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“मैं खुशनसीब हूं कि मेरी दो बेटियां हैं”

मेरी शादी को आठ साल पूरे हो चुके हैं। शादी से पहले सोचता था कि दो बच्चे हो जाएंगे तो ठीक है, एक लड़का और एक लड़की। शादी के पहले साल सबको बहुत उत्साह दिखा जब घर में एक नए मेहमान के आने के बारे में पता चला। सब ये मानकर ही बैठे थे कि पहला बच्चा लड़का ही होगा। पड़ोस की महिलाएं भी मेरी मम्मी और पत्नी के साथ हंसी-मज़ाक करती थी कि तुम्हारा रंग काला पड़ गया है, देख लेना पक्का तुम्हे लड़का ही होगा।

पत्नी ने बताया कि उसे मिट्टी खाने का मन करता है तो इस बात को भी सभी ने लड़के से ही जोड़ दिया। पापा भी खुशी से कहा करते कि पोते को कंधे पर बैठकर घुमाने लेकर जाऊंगा, उसके साथ खूब शरारते करूंगा।

जब डिलीवरी का टाइम आया तो रात को पत्नी को हॉस्पिटल में एडमिट कराना पड़ा। उसे दर्द ज़्यादा बढ़ गया था तो डॉक्टर मैडम ने बोल दिया, “देख लेते हैं अगर नॉर्मल डिलीवरी हुई तो ठीक है, नहीं तो ऑपरेशन करना पड़ेगा।” और सुबह उन्होंने कहा कि ऑपरेशन ही करना पड़ेगा।

ऑपरेशन थिएटर से बच्चे के रोने की आवाज़ आई तो किसी ने सूचना दी कि लड़का हुआ है। उस वक्त वहां मेरे साथ मेरी मम्मी और मेरी सास मौजूद थे, सब खुश हो गए और मेरे सर पर हाथ फेरने लगे। फिर जब किसी ने सही सूचना दी कि लड़की हुई है तो हम सब के चेहरे के हाव भाव थोड़े बदल गए, क्योंकि उस समय अपने सामाजिक परिवेश के चलते वही सोचा कि काश पहला लड़का हो जाता तो कितना अच्छा होता।

लड़की होने पर एक उदासी सी छा गई थी, किसी को ज़्यादा फोन करके भी नहीं बताया कि लड़की हुई है। किसी ने फोन किया तो अधूरे मन से बताया कि लड़की हुई है, जवाब मिलता, “कोई नहीं सब ठीक हो जाएगा, अगली बार लड़का ही होगा।” जब मेरी पत्नी और बच्चे को हॉस्पिटल के कमरे में लाया गया और जब मैंने अपनी बेटी को देखा तो उस वक्त मन में कोई सवाल नहीं था कि ये लड़का है या लड़की बल्कि अपने पिता बनने पर बहुत अच्छा महसूस कर रहा था। एक अलग सी खुशी थी जिसका एहसास शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।

अगले ही पल मां ने बच्ची को देखते हुए बोला, “अरे इसका तो एक पैर मुड़ा हुआ है”, सबको बहुत तकलीफ हुई कि लड़की हुई ऊपर से पैर में दिक्कत भी है। इससे दिमाग में कुछ अलग सी ही बात चलने लगी उसके भविष्य को लेकर, लेकिन फिर डॉक्टर ने घर वालों को बताया, “गर्भ में बच्चा उल्टा होने के कारण पैर ऐसा लग रहा है यह कुछ दिनों की मालिश में ठीक हो जाएगा।” हॉस्पिटल के बिलकुल सामने एक कालीमाता का मंदिर था, मैं मम्मी के साथ उस मंदिर में गया और अपनी बेटी की खुशियों और सेहत के लिए दुआ की और पिता बनने की खुशी में बेटी के जन्म पर एक कविता भी लिखी जिसका शीर्षक था मेरे घर में “आई एक नन्ही परी”।

पहले बच्चे के साथ हंसते-खेलते दो साल का टाइम कब निकल गया, पता ही नहीं चला। अब फिर से घर, रिश्तेदारी में बातें होने लगी कि दूसरा बच्चा बना लो इसको भाई भी चाहिए, एक भाई हो जाएगा तो जोड़ी पूरी हो जाएगी। अब दूसरी बार मेरी पत्नी गर्भ से थी, एक बार फिर से घर में सब खुश थे। पड़ोसी से लेकर रिश्तेदार तक सब अपना-अपना आंकलन कर रहे थे कि लड़का होगा। पहले की तरह वही चर्चाएं फिर से होने लगी लेकिन अब ये कुछ ज़्यादा हो रही थी। किसी ने कहा 21 सोमवार का व्रत रख लो पक्का लड़का होगा, गाय को रोज़ रोटी खिलाओ, चिड़ियों को बाजरा डालो वगैरह-वगैरह।

एक बार मम्मी के कहने पर मैं जगह से लड़का होने की दवाई लेने भी गया, किसी रिश्तेदार ने कहा था कि उनकी दवाई जिसने भी खाई पक्का लड़का ही हुआ है। इन चीज़ों में मेरा कभी विश्वास नहीं रहा, लेकिन मेरी पत्नी और मम्मी की ज़िद के चलते मैं वो भी ले आया। उन्होंने कुछ दवाई दी, कुछ उपाय बताए जो घर आकर मैंने उनको बता दिए। मेरी पत्नी हो या मम्मी दोनों को यही लग रहा था कि अब पक्का लड़का ही होगा। घर में मैं सबसे बड़ा था, पहले शादी हो गई थी तो वंश आगे बढ़ाने की उम्मीद भी मुझसे ही की जा रही थी।

15 अगस्त का दिन था मेरी पत्नी को हॉस्पिटल ले जाया गया जहां मेरा और मेरी पत्नी का परिवार भी मौजूद था। डॉक्टर ने बताया कि दूसरा बच्चा भी ऑपरेशन से ही होगा और सब बेसब्री से इंतज़ार करने लगे। फिर जैसे ही सूचना आई कि लड़की हुई है तो वहां खड़े सभी लोगों ने मुझे गले से लगा लिया और मुझे सांत्वना देने लगे कि कोई बात नहीं बेटा इन बहनों को भगवान एक भाई ज़रूर देगा।

मेरी पत्नी को जब ऑपरेशन थिएटर से हॉस्पिटल के कमरे में ले जाया जा रहा तो उसकी आंखों पर जमे आंसू साफ दिखाई दे रहे थे। होश में आने पर उसने बताया कि उसने ऑपरेशन थिएटर में ही डॉक्टर की बात सुन ली थी कि लड़की हुई है और इतना कहकर वो ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। वो कभी अपनी मां के गले लगकर तो कभी मेरी मां के गले लगकर रो रही थी और सब उसे हौंसला दे रहे थे।

कुछ ज़रूरी सामान लेने जब मैं घर जा रहा था तो रास्ते में सबने पूछा कि क्या हुआ, लड़की के जन्म के बारे में पता लगने पर वो मुझे सांत्वना देने लगे। जिन्हें पहले से पता था वो अफसोस ज़ाहिर करने लगे। उस वक्त लड़की के जन्म का मुझे दुःख नहीं था बल्कि दुःख हो रहा था लोगों के  सांत्वना देने से, जैसे कोई बड़ी दुर्घटना मेरे साथ हो गई हो। उनकी बातें सुनकर दो तीन महीनों तक एक अलग ही तरह की उदासी छाई रही।

जहां पहली बेटी का नाम उसके जन्म से पहले ही सोच रखा था, वहीं इस बेटी का नाम रखने तक का मन न किया। मैं भी समाज के उन तमाम लोगों की सोच का शिकार हो चुका था, जहां समाज में बेटियों के जन्म पर पाबन्दी है, जो सोचते हैं कि अगर किसी औरत ने लड़के को जन्म नहीं दिया तो वो अधूरी है। अगर बहनों का भाई नहीं है तो वो कमज़ोर हैं, लड़के के बिना वंश नहीं चलेगा, मुक्ति नहीं मिलेगी, चिता को कौन आग देगा वगैरह-वगैरह।

शायद उसमें उनकी भी गलती नहीं है, हमारी समाजिक रूढ़ियां ही इतनी गहरी जमी हैं कि इन्होंने सबको इस मजबूती से जकड़ लिया है कि कोई उनसे बाहर आने के बारे में सोचता भी नहीं है।

बेटियों के बचपन में महीने और साल बीतते गए। मैं उनके साथ हंसा, रोया, मैं कभी उनका घोड़ा बना तो कभी उनके लिए जोकर। कभी उनके लिए टॉफी लाया तो कभी खिलौने। किसी को अगर बुखार या खांसी होती तो रात को ना उनकी मम्मी सो पाती और ना उनके पापा।

आज दोनों जब तैयार होकर स्कूल जाती हैं और जब मैं उन्हें छोड़ने जाता हूं तो उनसे ढेर सारी बातें करता हूं उनके सपनों की और अपने सपनों की। मेरी बड़ी बेटी कहती है कि उसे डांस और नाटक करना अच्छा लगता है तो छोटे वाली कहती है की उसे ‘मैडम’ बनना है और फिर हम हंस पड़ते हैं। बेटियों को पाकर कभी किसी बेटे की कमी नहीं खली मुझे और हो भी क्यों, सारी ही तो खुशियां दी हैं मेरी बेटियों ने अपने पापा को। ‘मेरी आन और बान हैं मेरी बेटियां, मेरे चेहरे की मुस्कान है मेरी बेटियां।’

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