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एक कटोरी पुरातन गर्व और अधपका इतिहास मिलाइए, कई भीमा कोरेगांव बन जाएंगे

खबर है कि महाराष्ट्र में पुणे के नज़दीक कोरेगांव भीमा में दलितों पर हुए कथित हमले के बाद मंगलवार को महाराष्ट्र के कई इलाकों में दलित संगठनों ने प्रदर्शन किया। कोरेगांव भीमा की घटना के 200 साल पूरे होने की खुशी में सोमवार को एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। इस दौरान अचानक हिंसा भड़क उठी थी, जिसमें एक शख्स की मौत हो गई।

मंगलवार दोपहर तीन बजे के आस-पास मुंबई के चेंबूर, गोवंडी और घाटकोपर इलाकों में रास्ता जाम किया गया और पत्थरबाज़ी हुई। इन इलाकों में दलित आबादी काफी है, प्रदर्शनकारियों ने आगजनी भी की। पुणे के पिंपरी में शाम साढ़े पांच बजे के आस-पास चक्काजाम शुरू हुआ और कई कारों को आग लगा दी गई।

पुणे में मुख्यमंत्री फडणवीस को एक कार्यक्रम में शामिल होना था लेकिन वो रद्द कर दिया गया। बुधवार को विपक्ष के नेता इस मामले में काफी नाराज़ दिखे, उन्होंने लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन के सामने कागज पर लिखे विरोध पत्र को पढ़कर सबको सुनाया।

हो सकता है एक-दो दिन के बाद यह हिंसा शांत हो जाए, धारा 144 हट जाए, जनजीवन सामान्य होकर ऑटो रिक्शा वाला बिना जाति-मजहब का सवाल किए सवारी उठाए। लेकिन जातिवाद का यह हिंसक तांडव सालों तक नेता याद दिला-दिलाकर वोट ज़रूर लेते रहेंगे।

जातीय गर्व और उनकी मांगों की बात करें तो हरियाणा में जाट आन्दोलन हुआ जिसमें 28 लोग मरे, गुजरात में पटेल आन्दोलन, दार्जिलिंग में भाषा और क्षेत्र के लिए आग लगाई गई। ऊना में दलितों की पिटाई करके कथित गौरक्षक दलों का छलकता गर्व सबने वीडियो में देखा ही था। इसके बाद बाबाओं की भक्ति ने भी कुछ जाने ली। पिछले साल जातीय गौरव ने ही सहारनपुर के शब्बीरपुर में आग लगाई थी।

कल सुखबीर फल वाला कह रहा था, “भाई लोकतंत्र में वोटों की बंदरबाट यूं ही होती है। देश में दो तरह के लोग ज़्यादा मरते हैं- एक वो जो बाट जोह रहे होते है कि सरकार हमारे लिए कुछ करेगी और दूसरे वो जो यह सोचकर देश में आग लगाते हैं कि चलो हम ही कुछ करते हैं।”

कहा जा रहा है दो सौ साल पहले हुई भीमा-कोरेगांव की लड़ाई की 200वीं सालगिरह मनाई जा रही थी। हर साल यह दिन बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता रहा है। लेकिन इस वर्ष फिज़ा बिगड़ गई जिस पर मायावती ने कहा, “महाराष्ट्र में कार्यक्रम के दौरान सरकार को सुरक्षा मुहैया करानी चाहिए थी। ये नहीं चाहते कि दलित वर्ग के लोग अपने इतिहास को बरकरार रखें। ये नहीं चाहते हैं कि दलित सम्मान और गर्व के साथ ज़िंदगी बिताएं।”

पता नहीं नेताओं और मीडिया में कौन ज़्यादा दूध का धुला है, लेकिन मायावती के इस बयान के बाद मामला समझ में आया कि देश में जातिवादी राजनीति करने वाले नेता इतिहास से गर्व और गौरव टटोलकर लोगों को थमा रहे हैं। दूसरी बात जो समझ से परे है वो ये कि लोगों को रोटी, मकान, दवा या रोज़गार की ज़रूरत है या ऐतिहासिक पुरातन गर्व की? किसी की समझ में आ जाए तो मेरे जैसे आम इंसान टाइप के लोगों को ज़रूर बताना। मैं भी किसी भूखे-नंगे को एक दो कटोरी पुरातन गर्व और इतिहास थमा दूंगा।

कुछ लोग कह रहे हैं कि दलितों का अंग्रेज़ों के साथ मिलकर पेशवाओं को हराने में और अपने ही भाई बंधुओं से लड़ने में कैसा गर्व? बात भी सही है, ये तो बिल्कुल ऐसा ही है ना जैसे 21 बार धरती को क्षत्रिय विहीन करने वाले महापुरुष भगवान की जयंती मनाना!

गर्व से कहना कि हमने 21 बार इस धरा को क्षत्रियों से विहीन कर दिया था! पता नहीं उन क्षत्रियों की मौत का गर्व मनाना कौन सी मानवता है? यदि है तो फिर पेशवाओं की हार को अपमान क्यों समझ रहे हो?

यदि ऐतिहासिक गर्व ही चाहिए तो संविधान के अनुसार सबको जातीय गर्व मनाने में समानता का अधिकार होना चाहिए ना?

पर ये बात कौन करें? देश की संसद को और बहुतेरे काम हैं इसलिए अब देश में धर्म संसद शुरू हो गई है, वो बता रही है कि कि हिंदू मोबाइल फोन फेंककर अपने हाथों में शस्त्र धारण करें। अगर सब कुछ इसी तरह गर्व के साथ चलता रहा तो कुछ दिन बाद जातीय संसद और फिर उपजातीय संसद भी शुरू हो जाएगी। भगवान ने चाहा तो ज़्यादा दिन नहीं लगेंगे इस विश्व गुरु को कबीलों में तब्दील होने में। सुखबीर फल वाले की माने तो, “यहां दो तरह के लोग हैं- एक वो जिन्हें मौका मिल गया और दूसरे वो जिन्हें अभी तक मौका नहीं मिला।”

 

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