मेरे मन में शिकायतों का अंबार लगा है, दबी-कुचली हुई भावनाएं ज्वालामुखी के गर्म लावे की तरह बह जाना चाहती हैं लेकिन इस डर से कि लोग क्या कहेंगे मैं सदैव चुप रही, आखिर क्यों और कब तक?
क्योंकि मैं एक औरत हूं, मैं उस देश में पैदा हुई औरत हूं जहां सदियों से नारी को देवी का दर्ज़ा देकर पुरुषों ने उसका अपनी सुविधानुसार शोषण किया। शुरुआत में मुझे देवी का दर्ज़ा बहुत ही भाता था, अपने सर्वोच्च पद में होने के ऐहसास मात्र से मैं रोमांचित हो जाती थी। मुझे समाज का अभिन्न हिस्सा बताना और मेरे बिना तो संसार की कल्पना भी व्यर्थ है जैसी दिन-रात मिलने वाली कई लुभावनी तारीफें मुझे सातवें आसमान की सैर कराया करती थी, मैं यथार्थ के धरातल से नितांत ही अपरिचित थी।
मैंने तो अपने वैदिक ग्रन्थों के अलावा कभी कुछ पढ़ा ही नहीं था, चूंकि मैं देवी के सामान पूजनीय जो थी। इसलिए घर की चारदीवारी ही मेरी दुनिया थी, मैं सात पर्दों के अंदर कैद में रहकर भी ‘मैं नहीं तो कुछ नहीं’ की कल्पना में ही आत्ममुग्ध थी।
मुझे बाहर की दुनिया को, वहां हो रहे परिवर्तनों को जानने-समझने की ज़रूरत कभी महसूस ही नहीं हुई क्योंकि समाज के नियमों के अनुसार मुझे इन सब तुच्छ विषयों में समय व्यर्थ करने की कोई आवयश्कता ही नहीं थी।
मैं कन्या थी तो देवी के समान पूजी गई, विवाह के बाद लक्ष्मी समझी गई, वैधव्य का दंश मिला तो ज़िंदा जलकर सती का दर्ज़ा पाया। मैं हमेशा सभी षडयंत्रो से अनभिज्ञ अपनी भूमिकाओं में ही गर्वित थी। मुझे हर भूमिका में देवी का दर्ज़ा जो दिया गया था, इसलिए मैं इन सबको अपना भाग्य समझकर बड़ी ही तन्मयता से निभा रही थी।
मेरी भूमिकाओं में बदलाव की बयार तब बही जब भारत में अंग्रेज़ों के साथ आधुनिकता का आगमन हुआ। उनकी औरतों को देखकर मुझे कुछ समय तक तो यही ऐहसास होता रहा कि हमारे आगे तो इनकी कोई औकात ही नहीं। ये सभी बड़ी ही बेशर्म किस्म की हैं, मर्दों के साथ बेतकल्लुफी के साथ जश्न में शरीक होती हैं। कैसे अजीब से कपड़े पहनती हैं, अपनी मर्ज़ी के मुताबिक जहां-तहां घूमती फिरती हैं। इनमें तो कोई शर्मोहया है ही नहीं। ये तो शादी को सात जन्मों का पवित्र बंधन नहीं बस एक रिश्ता समझती हैं, इन्हें तो शादी नामक संस्था में यकीन भी नहीं है। ये अपना जीवन साथी अपनी मर्ज़ी से चुनती हैं, इनके जीवन में तो समाज के पुरातन नियमों की कोई जगह ही नहीं है। ये हमारी तरह चरित्रवान स्त्रियां, हमारी तरह देवियां नहीं हैं।
इतने पूर्वाग्रहों के बाद भी मुझे इनकी जीवनशैली बरबस अपनी ओर आकर्षित करती रही। मैं सदियों से देवी की भूमिका निभाते हुए थकान और हताशा से जर्जर होने लगी थी। एक नई स्फूर्ति की चाह में मैंने आधुनिक जीवनशैली की ओर रुख किया, तब मुझे बाहरी दुनिया में हो रहे सामाजिक सुधारों का भान हुआ।
मैंने और भी धर्मों के धार्मिक ग्रंथो को पढ़ा, उनके मर्म को समझने की चेष्टा करने लगी। मुझे सबसे ज़्यादा हैरानी ईसाइयों की पवित्र ‘बाइबिल’ को पढ़ने के बाद हुई, जिसमें स्त्रियों को कोढ़ियों के समान दया का पात्र समझा गया था। इसका मतलब उस धर्म में स्त्रियां देवी नहीं एक तुच्छ सामाजिक प्राणी थी, इससे भी ज़्यादा आश्चर्यचकित मैं यूरोपियन स्त्रियों की स्वतंत्रता से थी। उन्होंने एक तुच्छ सामाजिक प्राणी से एक सशक्त सामाजिक आधार बनने और अपना जीवन अपनी शर्तों में जीने का लंबा सफर तय किया था। यह तारीफ से कहीं अधिक प्रेरणा लेने के काबिल था।
मैंने भी देवी का स्थान छोड़कर एक सामान्य स्त्री बनने का निर्णय लिया, मेरे समाज की बाकी औरतों ने समझाया कि घर की दहलीज लांघकर तुम वितृष्णा का पात्र बन जाओगी। जब मैं नहीं मानी तो मेरे साथ सख्ती की गई, मुझ पर फिकरे कसे गए, मुझे दुत्कारा गया, देवी से देवदासी बना दिया गया। ऐसा करने वाले मेरे अपने ही थे, जिनके लिए समाज और लोग सर्वोपरि थे। लेकिन मैंने अपने दिल की सुनी और अपनी ज़िंदगी जीने के लिए दुनिया देखने का सपना लिए घर से निकल पड़ी। मैंने पहली बार समाज की गलत परंपराओं को धता बताकर खुली हवा में सांस ली।
अब मुझे समाज की परंपराओं के दुष्चक्र का सही मायनों में अर्थ समझ में आया, वो षड्यंत्र जो हमारी स्वतंत्रता के पैरों में बेड़ियां डालने के उद्देश्य से रचे गए थे। महाभारत के चक्रव्यूह की तरह ही हमें देवी का दर्ज़ा देकर, मान-सम्मान का आधार बनाकर, परंपराओं के चक्रव्यूह में फंसा दिया गया था ताकि हम कभी अपने हक की मांग ना कर सकें। समाज में सर्वोच्च स्थान देकर हमें पुरुषों के ऊपर इतना निर्भर बन दिया गया कि हम बिना उनके जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते थे।
हम खुद को देवी की संज्ञा दिये जाने से इतने अभिभूत हो गए थे कि ‘हम देवी की आड़ में देवदासी से ज़्यादा महत्व नहीं रखते हैं’ इस ओर ध्यान ही नहीं दे पाए। सदियों तक देवदासी बनकर खुद को समाज के नियमों के लिए समर्पित करते रहे, अपना जीवन होम करते रहे। हमारा खुद का कोई अस्तित्व हो सकता है इसकी कभी कल्पना करने की भी कोशिश नहीं की।
आज वक्त बदला है, हमने कई मोर्चों पर खुद की अलग पहचान बनाई है, हम सही मायनों में सर्वश्रेष्ठ हैं ये भी साबित किया है, लेकिन अभी भी कुछ पूर्वाग्रह मन में बाकी हैं। ‘ऐसा किया तो लोग क्या कहेंगे?’ ये डर अभी भी दिल में घर बनाए हुए है।
हमारा समाज कई मायनों में आधुनिक हो चुका है, लेकिन आज भी कुछ विषयों पर हम सदियों पुरानी परंपराओं का आवरण ओढ़े रहने में गर्व महसूस करते हैं। उसमें एक विषय है कौमार्य (वर्जिनिटी) जो सदियों से सिर्फ महिलाओ के लिए अनिवार्य है। वर्जिनिटी का सीधा मतलब औरतों के चरित्र से है। अगर वो वर्जिन हैं, शादी के बाद ही उन्होंने सिर्फ अपने पति के साथ सेक्स किया है तो ही वो चरित्रवान हैं।
पुरुषों को शादी के पहले सेक्स में कोई आपत्ति नहीं होती है, लेकिन उन्हें अपनी बीवी वर्जिन ही चाहिए। इसके पीछे की अवधारणा है कि वर्जिन लड़की रिश्तों के प्रति ईमानदार होती है और वर्जिनिटी को भंग करने का अधिकार सिर्फ पति को होता है। इस धारणा की संतुष्टि के लिए आजकल हाइमेनोप्लास्टी सर्जरी का चलन बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है, वर्जिन बनने के चक्कर में इसके दुष्प्रभावों को जानते हुए भी औरतें ये तरीका धड़ल्ले से अपना रही हैं।
हम औरतों के अंदर भी सेक्स की ख्वाइश पुरुषों जितनी ही होती है, ये मुझे ‘दा हाइटी रिपोर्ट’ पढ़ने के बाद बेहतर तरीके से समझ आया। ’50 शेड्स ऑफ ग्रे’ नॉवेल पढ़ने और मूवी देखने के बाद खजुराहों के मंदिरो में बनी कलाकृतियों की सेक्स की अलग-अलग भावभंगिमाएं और उन्हें समझने के लिए विदेशियों का खजुराहों के प्रति दीवानगी समझ में आई, जिसे हम सिर्फ उनकी कामुकता से जोड़कर ही परिभाषित करते आए हैं।
औरतों का सेक्स के प्रति झुकाव गलत है, ये मानसिकता हमारे समाज के प्रमुख नियमों में से एक है। इस अवधारणा ने वर्जिनिटी को लेकर पुरुषों के मन में औरतों के लिए एक अलग ही परिभाषा बना दी है, जिसके चलते औरतें खुद को सही साबित करने के लिए अपनी इच्छाओं को दबाने लगती हैं या फिर हाइमेनोप्लास्टी जैसी सर्जरी का सहारा लेती हैं। इसे बदलने कि आवयश्कता है।
बीबीसी हिंदी ने एक सीरीज़ के अंतर्गत नई पहल करके आम महिलाओं की वर्जिनिटी और सेक्स को लेकर व्यक्तिगत अनुभवों को दुनिया को बताने की मुहिम शुरू की है।
ऐसी दोहरी मानसिकता वाले समाज के ठेकेदारों से मुझे सदियों से शिकायत रही है, आज मैं खुलकर इस शिकायत का इज़हार करती हूं।
अब मैं 50 शेड्स ऑफ ग्रे और द हाइटी रिपोर्ट्स जैसी किताबें छुपाकर नहीं, बड़ी बेबाकी से सामने रखकर पढ़ती हूं। मैंने खजुराहों के मंदिरो को जाकर देखा तो जाना कि सेक्स सिर्फ पुरुषों के एकाधिकार का नहीं वरन स्त्री की बराबर सहभागिता का विषय है। अपने पूर्वजों की आधुनिक सोच पर मुझे गर्व महसूस हुआ, जिन्होंने स्त्रियों की इच्छाओं का भी सम्मान किया। मुझे आज उन्हीं पूर्वजों की तरह की सोच वाले समाज की अभिलाषा है जहां मैं खुलकर अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति कर सकूं, क्यूंकि अब मुझमें गलत सहने कि क्षमता नहीं बची है।
(फोटो साभार -दी हिन्दू)