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अभिव्यक्ति की आजादी: दिया जल रही है ,हवा चल रही है

हाल ही में हुए फिल्म पद्मावती के विवाद ने कई सारे प्रश्न ने कई सारे प्रश्न कई सारे प्रश्न और पुरानी यादें ताजा कर दी हैं । करणी सेना द्वारा जारी किए गए बयानों ने ईरान के कट्टरपंथी अयातुल्ला खुमैनी की याद दिला दी है । जिन्होंने मशहूर लेखक सलमान रुश्दी की किताब ‘द सैटेनिक वर्सेज ‘ का विरोध करते हुए , रुश्दी का सर कलम करने का फतवा जारी किया था ।

करणी सेना ने भी उसी तर्ज पर भंसाली का सिर कलम करने और दीपिका की नाक काटने पर लाखों के इनाम की घोषणा करी थी । अभिव्यक्ति की आजादी के अनुसार “आप शिष्टता पूर्वक अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र हैं ” । कुछ लेखकों ने इसे दूसरे अर्थों में में लिया और एक नई परिभाषा तैयार करी । जिसके अनुसार “यदि आप किसी को शारीरिक रूप से क्षति नहीं पहुंचाते हैं ,तो आप किसी को कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र हैं “।
दुनिया की वह हर जगह जहाँ मानव जीवन मौजूद हैं, अभिब्यक्ति की आजादी मूलभूत आवश्यकता रही हैं । बिना अभिव्यक्ति की आजादी आजादी किसी राष्ट्र में मानव जीवन की कल्पना ही नहीं करी जा सकती हैं।

भारत में अभिव्यक्ति की आजादी अनुच्छेद 19(1)के अनुसार “आप अपनी बात लोकतांत्रिक मर्यादा ,शुचिता में रहकर स्वतंत्रतापूर्वक स्वतंत्रतापूर्वक अपना मत, विचार ,आलोचना, समीक्षा करने के लिए पूर्णतया स्वतंत्र हैं । अगर किसी चीज की स्वतंत्रता है ,तो उसका सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों होता हैं ।
सन 2012 में असीम त्रिवेदी जो कि अन्ना हजारे अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत की मुहिम से जुड़े थे । आवेश में आकर भारत की संसद और भारत के अशोक चिन्ह का अपमानजनक कार्टून बनाकर अभिव्यक्ति की आजादी का उल्लंघन कर बैठे। जिसके कारण उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ी थी । वहीं इस संघर्ष में मिसाल के तौर पर तसलीमा नसरीन का नाम अतिशयोक्ति ना होगा । अंधेरे में प्रकाश की किरण बनते हुए ,1994 में अपनी लिखी पुस्तक लज्जा में उन्होंने इस्लाम की आलोचना की थी थी । इसके चलते उन्हें बांग्लादेश से निर्वाचित होना पड़ा था । मार्च 2000 में जब वह भारत आई थी ,तब उन्हें जिंदा जलाने की धमकी दी गई थी । इतनी पीड़ा तकलीफों से गुजरने के बाद भी सदियों से लोग चुप नहीं बैठे हैं । बोलते आए हैं ।भले ही उन्हें जान गंवाने की कीमत क्यूँ न चुकानी पड़ी हो । सुकरात हों , गैलीलियो हों सभी लड़े हैं । सब ने शायद अहमद फ़राज़ की इन पंक्तियों को सार्थक किया है ।
“बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे ,बोल की जुबान तेरी जुबान तेरी तेरी है । बोल कि तू अभी तक जिंदा तू अभी तक जिंदा हैं।”
दूसरे शब्दों में किसी लेखक ने अपनी जिम्मेदारी कुबूल करते हुए कहा था ।
“शायद मैं तुम्हारी बात से सहमत नहीं होऊंगा , लेकिन यदि वह तुम्हारे मूलभूत अधिकारों से संबंधित है ,तो मैं तुम्हारे लिए लड़ते लड़ते मर जाऊंगा “।

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