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डॉक्टर्स और मरीज़

निसंदेह डॉक्टर्स भगवान का रूप होते है। लेकिन क्या भगवान अपने भक्तों, बच्चों को लूटते है?

अभी कुछ दिनों से एक रिलेटिव के बीमार पड़ने के कारण डॉक्टर्स के चक्कर लगाने पड़े। बीमारी कुछ पेट से सम्बंधित थी, निर्णय लिया गया कि पटना में किसी अच्छे से डॉक्टर से दिखाया जाए। मरीज को पता था कोई ख़ास बीमारी नहीं है लेकिन फिर भी अपनी सन्तुष्टि के लिए एक अच्छा साधारण बज़ट लेकर वो डॉक्टर के पास पहुचें। डॉक्टर के पास अपार भीड़ के चलते दो दिन के बाद का नंबर लगा। शुरुआत हुई मामूली फ़ीस 500₹ से। जब डॉक्टर के केबिन में उनका नंबर आया तो मात्रा मिनट देखने के बाद डॉक्टर ने एक भारी भड़कम रिपोर्ट बनायीं। रिपोर्ट में कुल 7-8 जांच थे जिनका कुल खर्च 6-7 हजार आया। शर्ते भी थी की जांच यही करवानी है। अब जब ओखली में सर दिया तो मूसल से क्या डरना? जांच कराया गया। डॉक्टर के रिपोर्ट देखने के बाद मरीज को यह कहना, सब ठीक है मैं कुछ दवाई दे रहा हूं इसे तीन महीने तक चलाते रहिये। अच्छा जब सबकुछ ठीक ही था तो तीन महीने की दवाई क्यों दी और उन तीन महीने की दवाइयों को कुछ दवाई कहकर डॉक्टर साहब क्या साबित करना चाहते थे? अच्छा चलिये आगे बढ़ते है। डॉक्टर साहब ने पता नही ऐसी दवाई क्यों लिखी जो सिर्फ उनके क्लिनिक वाले मेडिसिन स्टोर पे उपलब्ध था। दवाइयां ली गयी और बिना किसी एमआरपी पे छूट के बिल आया 8000₹। अब मरीज़ का बज़ट तो ढीला हो गया उसे क्या पता था जिस भगवान के पास वो जा रहे है वो थोड़े बहुत में दया नहीं करते। कैसे भी अरेंज कर के 3000₹ में तब तक एक महीने की दवाई ली और जितने बीमार होके वो आये थे, उससे थोड़ा ज्यादा बीमार होकर लौट गए।

अब आते है मुद्दे की बात पर..
अधिकांश डाक्टरों ने अपनी फीस 150 से लेकर 800 रूपयें तक कर रखी है। इलाज फीस तक ही सीमित नहीं मरीज को भले ही मामूली बीमारी हो डिग्रीधारी डाक्टर मरीजों के अनावश्यक टेस्ट करा 1000-1500 रूपयें की दूसरी चपत मरीज को लगा देते है। इलाज यहीं तक सीमित नहीं डाक्टरों के यहां खुले मेडिकल स्टोरों पर भी दवाएं कम दामों पर नहीं मिलती है। कुल मिलाकर हालात ये बन चुके है कि एक गरीब मरीज का डिग्रीधारियों से इलाज कराना उनकी पहुंच से बाहर हो चुका है।

दवा एवं डॉक्टर के प्रति भोली-भाली जनता इतना विश्वास रखती है कि डॉक्टर साहब जितनी फीस मांगते हैं, दुकानदार जितने का बिल बनाता है, को वह बिना किसी लाग-लपेट के अपना घर गिरवी रखकर भी चुकाती है. क्या आप बता सकते हैं कि कोई घर ऐसा है, जहां कोई बीमार नहीं पड़ता, जहां दवाओं की ज़रूरत नहीं पड़ती? यानी दवा इस्तेमाल करने वालों की संख्या सबसे अधिक है. किसी न किसी रूप में लगभग सभी लोगों को दवा का इस्तेमाल करना पड़ता है, कभी बदन दर्द के नाम पर तो कभी सिर दर्द के नाम पर. यह कितना अजीब है कि जहां आज भी 70 फीसदी जनता 30 रुपये प्रतिदिन नहीं कमा पाती, उस देश में दवाओं कालाबाज़ारी चरम पर है. लाभ कमाने की दौड़ लगी हुई है. कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय द्वारा दवाओं के संबंध में कराए गए शोध में पाया गया है कि देश-विदेश की जानी-मानी दवा कंपनियां भारतीय बाज़ार में 203 से लेकर 1123 फीसदी तक मुना़फा कमा रही है. दवा कंपनियां ब्रांड के नाम पर मरीजों को लूट रही हैं. जैसे एक साल्ट से बनी दवा को कोई कंपनी 50 रुपये में बेच रही है तो कोई 100 रुपये में. दवाओं की गुणवत्ता संदिग्ध है. दूसरे देशों में प्रतिबंधित हो चुकी दवाएं भारतीय बाज़ार में धड़ल्ले से बेची जा रही हैं. डॉक्टर अनावश्यक जांच एवं दवाएं लिखते हैं. दवा दुकानदार जेनरिक के नाम पर लोगों को लूट रहे हैं. सरकारी अस्पतालों में दवाएं उपलब्ध नहीं हैं. ऐसे सैकड़ों तथ्य सामने आ रहे हैं, जिन्हें गहराई से जानने की ज़रूरत है.

विचारणीय बात यह है कि दवा कंपनियां अपने उत्पादों का बिक्री मूल्य इतना बढ़ाकर किसके कहने पर रखती हैं? क्या सरकार को पता नहीं है कि दवा बनाने में वास्तविक ख़र्च कितना आता है? अगर सरकार को नहीं पता है तो यह शर्म की बात है. अगर वह जानते हुए अंधी बनी हुई है तो यह और भी शर्म की बात है! देश में रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है. लोगों का स्वास्थ्य बजट बढ़ता जा रहा है. दूसरे मद में तो आदमी कमी कर सकता है, लेकिन स्वास्थ्य ऐसा मुद्दा है, जहां जीवन और मौत का सवाल है. ऐसे में स्वास्थ्य के नाम पर जितना ख़र्च ज़रूरी है, वह करना पड़ता है, चाहे उसके लिए घर बेचना पड़े, शरीर बेचना पड़े या किसी की गुलामी करनी पड़े. यह बात सरकार भी मानती है कि लोगों की आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब है. इसलिए वह समय-समय पर तरह-तरह की योजनाएं चलाती रहती है. बावजूद इसके परिणाम ढाक के तीन पात वाले हैं. सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि सरकार ने सभी समस्याएं दूर करने के लिए नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए) नामक एक स्वतंत्र नियामक संस्था बना रखी है, जिसकी ज़िम्मेदारी है कि वह देश में बेची जा रही दवाओं की कीमतें नियंत्रित करे. इसके लिए कई क़ानून भी हैं. कंपनियों द्वारा मनमाने ढंग से दवाओं का दाम तय करना यह बताता है कि एनपीपीए अपना कार्य कर सकने में असफल रही है. सस्ती दवा-सस्ता इलाज संबंधित सरकारी दावों को ठेंगा दिखाते हुए कंपनियां मनमाने ढंग से दवाओं की एमआरपी तय कर रही हैं.

सरकारी अस्पतालों पर नजर डाले तो शासन की ओर से सुविधाएं तो बेहतर से बेहतर मुहैया कराई जाती है लेकिन आम मरीजों को उनका लाभ पहुंचना महज भ्रष्टाचार व सरकारी अस्पतालों मेंं भर्ती मरीजों की संख्या के कारण नहीं पहुंच पाती। जिला अस्पताल पर नजर डाले तो भ्रष्टाचार मरीजों को स्वास्थ्य उपलब्ध कराने में जबरदस्त बाधा हैं। मरीजों को फायदा ना होने का हवाला देकर अधिकांश डाक्टर उन्हें बाहरी मेडिकल स्टोरों की दवाईयां लिखते है जिसके बदले दवा कंपनियों या मेडिकलों स्टोरों के स्वामियों से डाक्टरों का कमीशन पहुंच जाता है। इतना ही नहीं जिला अस्पताल के अल्ट्रासाउंड़, एक्स-रे व पैथोलोजी रिपोर्ट से बेहतर निजी संस्थानों की रिपोर्ट को एहमियत देते है। इसके पीछे किसी हद तक सरकारी डाक्टर भी अपनी जगह मरीज के हित में सहीं रहते है लेकिन सवाल यहां ये उठता है कि अस्पताल में सभी सुविधाएं होने के बावजूद वहां की रिपोर्ट पर सवालियां निशान क्यों लग जाता है?

ज्यादा कुछ नहीं बस मेरा उन डॉक्टर्स से एक ही सवाल है की काहे के भगवान आप। भगवान दुख-दर्द समझ के निदान करते है। आप तो बस निदान करते है वो भी ढेर सारा दुःख व कष्ट देकर। हाँ मैं आपकी अपेक्षा उन डॉक्टर्स को जरूर सलाम करता हूं जो सस्ते व मुफ्त में इलाज़ करते है। जिनका मकसद गरीबों को लूटकर अपना बैंक अकाउंट न भरकर समाज को रोगमुक्त बनाना होता है। मेरी नजर में ऐसे डॉक्टर्स भगवान है आप जैसे तो बिलकुल नहीं।

~आशीष

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