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निजी अस्पतालों की लूट,आखिर कबतक?

भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा संस्थाओं की लूट वर्षों से चर्चा का विषय रही है लेकिन राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) द्वारा जारी एक रिपोर्ट से अब यह स्पष्ट हो जाता है कि जनसेवा के इस कार्य पर भी व्यावसायिक मानसिकता वाले लुटेरों ने अपनी नज़र जमा रखी है।
रिपोर्ट के मुताबिक निजी अस्पताल न सिर्फ सरकारी नियंत्रण से बाहर की दवाओं का प्रयोग करके मरीजों को बेवकूफ बना रहे हैं बल्कि दस्तानों और सिरिंज तक का खर्च बहुत बढ़ा चढ़ाकर वसूला जा रहा है।अपनी जांच में प्राधिकरण ने पाया कि एक मामले में अस्पताल ने करीब 13 रुपये के एक टीके की कीमत लगभग 190 रुपये वसूली है।शुद्ध लाभ लगभग 1000 फीसदी से लेकर किसी खास प्रकार की दवा पर 1700 फीसदी तक है। मुनाफाखोरी की इससे भयंकर मिसाल देना शायद ही मुमकिन हो पाए।
निजी अस्पताल एक और तरकीब के ज़रिए भी मरीजों को लूट रहे है और यह तरीका है नई दवाएं ईजाद करना। एनपीपीए का मानना है कि निजी अस्पताल कंपनियों के साथ सांठ गांठ करके ऐसी नई दवाएं या ड्रग फार्मूलेशन लिखते हैं जो सरकारी नियंत्रण से बाहर हो तथा इन्हें बनाने वाली कंपनियां भी इन दवाओं पर प्रतिवर्ष 10 फीसदी तक मूल्य वृद्धि का आनंद उठती हैं।
दरअसल यह पूरा मामला एक 7 वर्ष की बच्ची,आद्या सिंह की एक निजी अस्पताल में हुई मृत्यु के बाद प्रकाश में आया था जब उसके परिजनों को अस्पताल ने 18 लाख का बिल थमा दिया जिसमे 2700 दस्तानों और 660 सिरिंज का खर्च भी शामिल था।जिसके बाद सरकार द्वारा इसकी जांच के आदेश दिए गए।
प्राधिकरण ने हालांकि रिपोर्ट में सभी तथ्य आंकड़ों के साथ देश के सामने पेश किये हैं लेकिन दुर्भाग्य से वह अस्पतालों के खिलाफ उन दवाओं के अधिमूल्यन के लिए कोई कार्यवाही नहीं कर सकता जो सरकार की मूल्य नियंत्रण सूची से बाहर हैं।एनपीपीए ने पाया कि निजी अस्पतालों के बिल का 25 फीसदी हिस्सा गैर नियंत्रित गतिविधियों का होता है जैसे बीमारी की जांच,भर्ती किये जाने की अवधि आदि। और इसी हिस्से का फायदा उठाकर अस्पताल जांच सेवाओं के नाम पर ऊल-जुलूल पैसे ऐंठ लेते हैं।जबकि वही सेवाएं अन्य केंद्रों पर कहीं कम दाम पर उपलब्ध रहती हैं।
अब प्रश्न है कि ऐसे अनैतिक निजी अस्पतालों का क्या किया जाना चाहिए? निश्चित ही ये संस्थान देश के लिए एक आवश्यक बुराई हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि इन पर नकेल नहीं कसी जा सकती। निजी अस्पतालों की लॉबिंग मजबूत होने के कारण ही एक व्यापक सरकारी नीतिगत पहल में अड़चनें आ रही हैं लेकिन अब वक्त आ चुका है कि सरकार इसपर कोई कड़ी कार्यवाही करे। हर वर्ष कुछ दवाओं को नियंत्रित श्रेणी में अंदर-बाहर किए जाने मात्र से समस्या हल नहीं हो सकती।अस्पताल सरकार के फैसलों से दो कदम आगे रहते हुए अपनी गैर नियंत्रित दवाओं को आद्यतन रखे हुए हैं। यदि मौजूदा समय मे कोई नीति पेश किया जाना संभव नहीं है तो सरकारी नियंत्रित दवाओं की सूची की हर तीन माह बाद समीक्षा की जानी चाहिए जिससे इस लूट के दरिया में एक बांध लग सके।
निजी अस्पतालों द्वारा इस प्रकार के व्यवहार का एक कारण देश का लचर स्वास्थ्य सेवा तन्त्र भी है।सुविधा के नाम पर राष्ट्रीय स्तर पर भीड़ से लथपथ एम्स की ही छवि उभरती है जिसके कंधे भी अत्यधिक बोझ से झुक चुके हैं और देश की अंतिम उम्मीद होने के नाते किसी तरह खुद के अस्तित्व को बनाये हुए है लेकिन कम होते स्वास्थ्य बजट से कभी कभी एम्स की सांसें भी अटक जाती हैं। ऐसे माहौल में ‘मोदीकेयर’ का आविर्भाव निश्चित ही उत्साहजनक कदम है जिसका बेहतर नीतिगत कार्यान्वन सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के इतिहास में मील का पत्थर
साबित हो सकता है।
हालांकि निजी अस्पताल इस प्रकार के व्यवहार को उनके द्वारा किये गए भारी निवेश की पूर्ति करने के लिए जायज़ ठहराते हैं लेकिन उसके लिए पर्याप्त समय देने को राजी नहीं हैं।लेकिन निवेश की गई राशि पूरी हो जाने के बावजूद लूट का यह सिलसिला बादस्तूर जारी ही रहने वाला है।इस समस्या से बचने के लिए सरकार को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल के अस्पतालों को बढ़ावा देने पर विचार करना चाहिए जिससे निवेश की लागत से निजी संस्थान भी बच सकें तथा अनियंत्रित अस्पतालों पर सरकार का नियंत्रण भी बरकरार रहा सके।

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