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#पद्मावत #आजऔरकल #समस्या #एकपहल

किसी भी संस्कृति का चिरायु होना उसके ऐतिहासिक पक्षों को आत्मसात करने से प्रेरित होता है। ऐतिहासिक कमियों को ध्यान में रखकर गरिमामई इतिहास पर खड़े खंभों में ही ओजस्वी भविष्य का निर्माण होता है।
हमारी संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है,जहां समाज ना किसी धर्म,जाति,वर्ण पर बंटा था ना ही कभी मानवता की अनदेखी करने वाले सामाजिक तत्वों को बल मिला। जो भी संस्कृति भारत आई भारतीय होकर रह गई।आज उसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की कुछ घटनाओं पर आधारित किसी किताब का जब फिल्मांकन किया गया तो अचानक कोहराम मच गया। क्या यह उचित है, और यदि हां या ना कुछ भी, तो क्या विद्रोह का यह तरीका सोचनीय नहीं हो जाता ।
कार्मिक वर्णों पर आधारित समाज,धार्मिक वर्गों में विभक्त किया गया।मानव सभ्यता बटी,नए धर्म आये फिर नयी विचारधारा जनी गयी और समाज के अन्य मत आए, मानव जाति कुल में बटी और फिर धीरे-धीरे सब अकेले पड़ते गए। वेद आए,उपनिषद बने फिर टीका,टिप्पणी, महाकाव्य आए,संस्कृतियों ने अपनी विचारधारा बनाई,वह फिर तोड़ी और गढ़ी गई और केंद्र में बसा भाव अभाव से ग्रसित हो गया।
कन्या वध ,महिला शिक्षा रोकना, सती प्रथा, बंधुआ मजदूरी ,वर्ण प्रथा, देवदासी प्रथा, छुआछूत आदि कुप्रथाओं को सुधारने का प्रयत्न एक शिक्षित एवं तार्किक समाज द्वारा किया जा रहा है ,वहीं पद्मावत से संबंधित विषय विचारणीय हो जाता है ।
भारतीय संस्कृति की कमियों की दुहाई देकर पश्चिमी सभ्यता की ओर उन्मुख नवयुवक क्या यह भूल गया कि आज सिनेमा सांस्कृतिक विरासत को नई पीढ़ी तक पहुंचाने का मुख्य साधन बन चुका है ।मुख्य चिंतनीय विषय यह है कि आज हो रहे यह विद्रोह जो धार्मिक, सांस्कृतिक आतंकवाद का स्वरूप ग्रहण करते जा रहे हैं, में सर्वाधिक सहभागिता नवयुवक की है।भारतीय अर्थव्यवस्था आज इन्हीं नवयुवक आबादी की वजह से विश्व गुरु होने का दंभ भरती है,परंतु जो नवयुवक सिर्फ खबरों पर आधारित, तथ्यों से दूर किन्हीं बोल-वचनों पर सड़कों पर उतर आएं और नरसंघार करने का दम भी भरने लगें, बड़ा ही बेचारा सा प्रतीत होता है।
नवयुवकों द्वारा इस प्रकार की प्रतिक्रिया आज सामाजिक ढांचे और एजुकेशन सिस्टम पर भी उंगलियां उठाती है।सिकुड़ता परिवार एवं माता-पिता के पास बच्चों के लिए कम समय क्या इस बदलाव और बहकाव का कारण है? आखिर क्यों निर्भया के हत्यारों को सजा दिलाने के लिए कैंडल मार्च निकालने वाला, अन्ना हजारे के साथ भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए रातों को जागने वाला नवयुवक आज पेट्रोल बम फोड़ रहा है। राजधानी में छोटे बच्चों की बसों पर पथराव और आगजनी का प्रयास, सिनेमाघरों में ऊधम मचाने का दम दिखाना एवं सामाजिक संसाधनों को तबाह करना किस हद तक तार्किक एवं स्वीकार्य है।यह सब हालात देखकर क्या परिवारों के,समाज के, धर्म के ठेकेदारों को यह एहसास नहीं हो रहा कि यह कुछ पल की जिद एवं झूठा अभिमान भी इतिहास में लिखा जा रहा है, जो कि आगे आने वाले समय में हमारे समाज का कमजोर स्तंभ होगा ? क्या अब कोई फिल्म डायरेक्टर पुनः ऐसे विवादों के चलते यह प्रयास करेगा ? क्या यह कमी कभी खलेगी नहीं ? क्या हम नवयुवकों को जिद और सनक का हथियार नहीं दे रहे? क्या तार्किकता बहकावे से बढ़कर है? आधुनिक सामाजिक समस्याएं क्या इतनी विशाल नहीं कि उन पर चर्चा की जाए और इस प्रकार के निर्णय लेने की जिम्मेदारी न्यायपालिका, विधायिका , कार्यपालिका पर छोड़ी जाए और संतुलित मात्रा में ही धार्मिक व बाह्य दबाव बलों का प्रभुत्व मान्य हो ।
एक विषय यह भी जरूरी हो जाता है कि विधायिका एवं राजनीतिक पार्टी जो सत्ता में हैं या विपक्ष में उन्हें प्रेरणा का स्रोत बनने का प्रयास करना चाहिए ना कि राजनीतिक फायदे के लिए इस प्रकार के प्रयासों की अनदेखी करना चाहिए।
प्रश्न बहुत से हैं, पर मुख्य मुद्दा यह है कि नवयुवक आज जो इतिहास लिखेगा कल वह प्रेरणादाई रहेगा या फिर वह भी हंसी एवं हीनता का पात्र बनेगा।

पीयूष उमराव (पीय)

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