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प्यार को प्यार ही रहने दो

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूबके जाना है

मुझे नहीं पता इसे लिखते वक़्त जिगर मुरादाबादी के मन में क्या चल रहा था और उन्हें इसकी प्रेरणा कैसे मिली।हो सकता है उन्होंने मोहब्बत के भावनात्मक पक्ष को उजागर करते हुए अईसा कहा हो लेकिन आज के वर्तमान हालात को देखते हुए प्यार-मोहब्बत जैसी संवेदनशील विषयों को लेकर यह शेर हमारे समाज के व्यवहार का सटीक चित्रण करती हैं।

आये दिन ख़बरें आती हैं कि प्रेमी जोड़े को मार दिया गया या उन्हें सार्वजनिक तौर पर अन्य सजा दी गयी गोया की उन्होंने एक दूसरे को दिल देकर कोई अपराध कर दिया हो।भले हम इन घटनाओं को अलग-अलग नाम से जानें, कभी लव जिहाद तो कभी ऑनर किलिंग या फिर खाप पंचायतों के क्रूर फैसले लेकिन इन सभी घटनाओं के मूल में होती है हमारी संवेदनशीलता का नष्ट हो जाना।इन सभी घटनाओं के पीछे का मुख्य कारक है हमारी भावनाओं का विकृत होकर उनका बाजारीकरण हो जाना।
लोगों की भावनाओं से ज्यादा हमारे लिए महत्वपूर्ण हो गया है हमारा आर्थिक और सामाजिक हैसियत ।हमने प्रेम को औकात और जाति-धर्म जैसे सामजिक बुराइयों की बेड़ियों से बाँध दिया है।अगर लड़के या लड़की का प्यार हमारे स्वघोषित पैमाने पर खरा नहीं उतरा तो हम उसका अंत करने की हरसम्भव कोशिश में जुट जाते हैं।
एक अन्य स्थिति तब देखने को मिलती है जब लोग अपने बच्चों के प्यार को सिर्फ इस डर से अस्वीकार कर देते हैं कि इससे समाज में उनकी नाक कट जायेगी।अगर मेरे बेटे ने किसी गैर जाति की लड़की से विवाह कर लिया तो मेरी इज़्ज़त का क्या होगा?यही सोच न जाने कितनी प्रेम कहानियों को समाप्त कर देती है,फिर इसी मनोभाव के प्रभाव में वो हत्या जैसी जघन्य अपराध को अंजाम दे देते हैं।
आप समाज में व्याप्त रूढ़िवादिता का अंदाज़ा सिर्फ इस बात से लगा सकते हैं कि लोगों को कानून अपने हाथ में लेने से ज्यादा समस्या इस बात से है कि उनकी इज़्ज़त या झूठी शान पर कोई आँच न आ जाये।
समाज इतना वहशी बन चुका है कि वो किसी जोड़े को जिन्दा जलाने तक से परहेज़ नहीं करता है।हम सामूहिक तौर पर बीमार समुदाय बनते जा रहे हैं जिसके अंदर जाति-धर्म,ऊँच-नीच का मवाद भर चुका है।धीरे-धीरे यह कैंसर का रूप धर समूचे समाज को खोखला कर रहा है।
अगर समय रहते सरकार ऐसे वाकयों पर सख्त नहीं हुई तो पता नहीं ये सिलसिला कहाँ जाके रुके।तबतक हम एक संवेदनहीन और असभ्य समाज के तौर पर खुद को स्थापित कर चुके होंगे।जरूरत है लोगों को सामाजिक विभेद को मिटाकर अपनी ग्राह्यता बढ़ाने की।हमें अपने दिमाग के बंद दरवाज़ों को खोल प्यार को प्यार से स्वीकार करने की।

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