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राष्ट्रवाद और देश भक्ति को कैसे समझें?

भारत माता

राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर आज-कल सारे हिंदुस्तान में ना सिर्फ चर्चा हो रही है, परंतु ऐसी-ऐसी बहसें हो रही हैं कि लोग हाथापाई तक पर उतर आते हैं। यह मतभेद और बहस जल्दी खत्म भी नहीं होने वाली। आज-कल अगर कोई भी मुसलमान बढ़ते अन्याय और ज़ुल्म की बात करता है तो उस पर फौरन देशद्रोह और गद्दार होने का इल्ज़ाम थोपा जाता है। बहुत दिन नहीं हुए हैं कि भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति ने एक ऐसा बयान दिया जिसकी वजह से पूरे देश में सनसनी मच गई और खबरें और टीवी देख कर मालूम ऐसा होता था जैसे शिकवा और शिकायत कर के उन्होंने कोई बहुत बड़ा पाप किया था।

इससे पहले कि हम अंसारी साहब और राष्ट्रवाद पर कुछ लिखें यह बात साफ कर देना बहुत ज़रूरी है कि इतिहास में राष्ट्रवाद की जड़ें किस सोच और संस्कृति में मिलती हैं और इस कारण हमको हिंदुस्तान की अनोखी परम्परा को कैसे समझना चाहिए।

सब को मालूम है कि अठारहवीं सदी से पहले राष्ट्र और कौम के माने आज की व्याख्या से बिलकुल अलग थी। यह सोच यूरोप के जंगी माहौल से उभरी, जब फ्रांसीसियों ने जर्मनों पर अपना सिक्का जमाया। यूरोप में राष्ट्रवाद की जड़ें वहां की पुरानी दुश्मनियों का नतीजा थीं और हम सब को पता है कि बीसवीं सदी में उस ही जर्मनी में यहूदियों पर नाज़ी पार्टी और हिटलर ने कितने ज़ुल्म ढाए!

हिंदुस्तान में यह सोच अंग्रेज़ों के साथ आई और उन्होंने हमारे समाज को उसी तरह बांटना शुरू किया जैसे उन्होंने यूरोप में बाटा था। भाषा, धर्म, परम्परा, संस्कृति, इतिहास और हद है कि जात-पात की बिनाह पर लम्बी-लम्बी फेहरिस्त बनने लगीं। इनको अंग्रेज़ी में सेन्सस कहते थे। सामने की बात है कि अंग्रेज़ों ने ये किसी अच्छी नियत की वजह से नहीं किया था बल्कि इसलिए  किया था कि वो आसानी से राज कर सकें। इसके खिलाफ हमारे वरिष्ठ और बुज़ुर्ग लीडरों ने एकता का परचम बुलंद किया और यह कोई नयी बात नहीं थी।

आज हमारे देश में राष्ट्रवाद का वो तसव्वुर आम किया जा रहा है जो जर्मनी के उस ज़हरीली राष्ट्रवाद से ज़्यादा मिलता है जिसकी वजह से 60 लाख से अधिक यहूदी मौत के घाट उतार दिए गये थे। सवाल यह उठता है कि  हमको आज राष्ट्रवाद को कैसे समझना चाहिये। हिंदुस्तान की अनोखी विविधता का तक़ाज़ा यह है के हम कुछ नई सोच और कुछ नई फिकरें आम करने की कोशिश करें। अब आप ज़रूर सोच रहे होंगें कि इस सब का हामिद अंसारी साहिब के बयान से क्या सम्बंध है?

जनता या कौम एक परिवार की तरह होती है। जैसे कि हर व्यक्ति को पता ही होता है एक परिवार में हर शख्स की अपनी तबियत होती है और अपनी एक खास पहचान होती है। इसका नतीजा यह होता है कि मामूली सी मामूली बात से लेकर और बड़े से बड़े विषयों पर लोगों में इतना बुनियादी फर्क पैदा हो जाता है कि वह एक दूसरे से बातचीत करना बंद कर देते हैं। इसके बावजूद अगर बुनियादी तौर पर लोगों के रिश्ते और संबंघ प्यार और मुहब्बत पर कायम होते हैं और उनकी नियतें ठीक होती हैं तो कुछ दिन बाद बातचीत का सिलसिला फिर से शुरू हो जाता है। कभी कभी तो ऐसा भी होता है कि एक ही परिवार के लोगों की सोच में इतना बड़ा अंतर होने के बावजूद वह अपने व्यक्तिगत नज़रियों को रिश्ते पर असर नहीं करने देते।

अब हम सब को पता ही है कि परिवारों का एक दूसरा पहलू यह होता है कि बच्चों के रुझान और उनकी तबियतों में कभी-कभी ज़मीन आसमान का फर्क होता है। सच तो यह है कि अपने माँ और बाप से हर बच्चे का अपना एक अनोखा रिश्ता होता है और माँ अक्सर हर बच्चे की छोटी सी छोटी आदत और पसंद को इतनी अच्छी तरह जानती है कि वह बच्चे के कुछ कहने से पहले ही उनकी बात समझ जाती है। माँ का प्यार तो ऐसा होता है कि वह अपने बच्चों की कमज़ोरियों के लिये  भी बहाने करने की कोशिश करती है। यह भी एक सच है कि असली मुहब्बत और प्यार का इज़हार कभी-कभी शिकवा और शिकायत के ज़रिये होता है। आप किसी भी धर्म और किसी भी मज़हब की किताबें पढ़ेंगे तो आप को पता चलेगा कि बड़े-बड़े धर्म गुरुओं ने भगवान से अपनी वफादारी और नज़दीकी, शिकवे के ही ज़रिये दिखाई। असल में तो यूं कहना चाहिये कि कोई भी व्यक्ति शिकवा उसी से करता है जिससे वह बेतकल्लुफ होता है,  जिससे उसको बेलौस मुहब्बत होती है- जिससे उसके घरेलू संबंध होते हैं।

अब आप यही मिसाल एक परिवार के बजाए एक कौम के लिये इस्तेमाल कीजिये। हमारे देश की मुख्तलिफ कौमें एक परिवार की तरह ही हैं और हर कौम उस परिवार के एक बच्चे की तरह है। हर कौम अपनी माँ से एक अनोखा रिश्ता रखती है और जब अपने प्यार का ज़िक्र करती है तो वह उनकी विशेष भाषा में होती है। जैसे किसी एक बच्चे को अपनी माँ की कोई अदा पसंद होती है तो किसी और को अपने माँ के हाथ की पकाई हुई चीज़ पसंद आती है। शायद किसी को उनकी आवाज़ से मुहब्बत हो तो किसी और को उनका हंसने का तरीका।

अक्सर जैसे भाइयों और बहनों में आपसी लड़ाइयां होती हैं ठीक उसी तरह कौमें भी आपस में लड़ती हैं लेकिन हमको सवाल ये पूछना चाहिये कि जब दो बच्चे आपस में लड़ते हैं तो दोनों ही अपने माँ बाप से इंसाफ की उम्मीद रखते हैं। इंसान की फितरत कुछ ऐसी है कि वो पहले अपनी माँ ही के पास जाता है। अब आप साफ-साफ बताइये कि अगर माँ अपने किसी एक बच्चे को नज़रअंदाज़ कर दे या उस से बेरुखी अपनाये तो उस बच्चे के दिल पर क्या गुज़रेगी। हिंदुस्तान में हम अपने बच्चों को सिखाते हैं कि भारत हमारी माँ की तरह है तो क्या हमारी माँ हमारी मुश्किलें और हमारी शिकायतें नहीं सुनेगी? आज हमारे देश में एक संगठन है जो अपने को भारत माता या मादरे वतन का ठेकेदार समझता है। भले कोई बच्चा अपनी माँ की ठेकेदारी कर सकता है?

भारत माता (Bombay, 1928)

जिस तरह बच्चे अपनी माँ के पास जाते हैं वैसे ही जनता अपनी माँ यानी देश के शासन प्रशासन के पास जाती है क्यूंकि उनको यह उम्मीद होती है कि  उनको इंसाफ मिलेगा। अगर ऐसा नहीं होता है तो फिर लोगों का भरोसा ख़त्म हो जाता है। जब यह होता है तो फिर एक दुखी बच्चे की तरह वो अपना दर्द, शिकवा और शिकायत के ज़रिये औरों को सुनाता है। याद रहे शिकवा करना मोहब्बत का सबूत है ना के गद्दारी की दलील । अगर शिकवा करने पर ही पाबंदी और रोक लगा दी जाये। तो फिर उस कौम के लोगों में दुख, अफसोस, तकलीफ और डर पैदा हो जाते हैं। इस सूरते हाल में कुछ भटके हुए गुमराह लोग गैर कानूनी राहें भी अपना लेते हैं। यहां एक बार फिर परिवार की मिसाल ज़रूरी है क्यूंकि अगर परिवार के लोगों में आपस में मोहब्बत और प्रेम होती है तो फिर ऐसा परिवार एकजुट होता है।

भारत माता (Ravi Verma Press, Trivandrum, 1930’s)
आज हमारे देश में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो यहां की एकता और भाईचारे को जड़ से ख़त्म कर देना चाहते हैं। हिंदुस्तान में हमारे सामने दो रास्ते हैं: पहला रास्ता यह है कि हम यह मान के चलें कि यहां के सभी नागरिक एक परिवार की तरह हैं। दूसरी राह यह है कि किसी एक समुदाय, गुट, या दल के लोग अपने को राष्ट्रवाद का ठेकेदार समझ कर अपनी ही सोच औरों पर थोपने की कोशिश करें। पहले वाले रास्ते में कठिनाइयां और बाधाएं होंगी। और हमको कभी-  कभी ऐसे लोगों को भी साथ ले के चलना होगा जिन से हम राजनैतिक या व्यक्तिगत तौर पर सहमत नहीं हैं। हमको बार बार याद रखना होगा कि यह हमारे भाई और बहन हैं। दूसरा रास्ता सिर्फ़ नफ़रत और हिंसा का रास्ता हैं क्यूँकि हम दूसरों को अपना तब ही मानेंगे जब वह हमारे जैसे हो जाते हैं। आप ख़ुद सोचें कि अगर कोई माँ अपने बच्चे से कहे कि मुझसे इस खास तरीक़े से मोहब्बत करो तो बच्चे के दिलो दिमाग़ पर क्या गुज़रेगी। याद रहे के शिकवा और शिकायत करना एक तरह से मोहब्बत करने का सबूत है और हम को आज उन तमाम लोगों को गले से लगाना चाहिये जो देश से प्रेम और मोहब्बत करते है चाहे उनका प्रेम करने का तरीक़ा अनोखा क्यूं ना हो!

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