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गंगा मैया पियरी चढ़इबो से लेकर रिमोट से लहंगा उठाने तक भोजपुरी सिनेमा के 55 साल

55 साल पहले 22 फरवरी को, भोजपुरी की पहली फिल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ नाम से अस्तित्व में आई थी। भोजपुरी सिनेमा के शुरुआती फिल्मों और संगीतों में जिस मिठास और अपनेपन का अनुभव होता था उस मिठास के दिनों में आज जैसे खरवांस लग गया हो।

भोजपुरी देश की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं जिसमें सर से पांव तक अंग्रेज़ियत निवास करती है उसे बनाने में मज़दूरी करने वाले, खून-पसीना बहाने वाले मज़दूरों की बोली है। भोजपुरी सड़क के फुटपाथ पर मूंगफली, अमरूद और सब्जी का ठेला लगाने वाले मज़लूमों और देश का पेट पालने वाले गरीब किसानों की बोली है। जी हां! भोजपुरी गरीबों की बोली है।

आज भोजपुरी जितना गरीब और बिलखती हुई प्रतीत होती है, पहले उतनी ही सुदृढ़ और सामर्थ्य हुआ करती थी। भोजपुरी के सिनेमादारों और दृश्यकर्ताओं ने आज इसे अश्लीलता और फूहड़पन का पर्याय बना दिया है। हम सब के लिये कितने शर्म की बात है कि एक ओर जहां देश का हिन्दी-सिनेमा महिला-हिंसा के विरुद्ध तथा महिलाओं के सशक्तीकरण और उत्थान की ओर मुखर है वहीं भोजपुरी सिनेमा देश की आधी आबादी को महज़ भोग-विलास और मनोरंजन का साधन सिद्ध करने पर तुला हुआ है।

आज भोजपुरी सिनेमा शायद 21वीं सदी के किसी नवीन विज्ञान से प्रेरित है। आज भोजपुरी में गुरुत्वाकर्षण का मंज़र ये है कि ‘रिमोट से लहंगा तक उठा दिया जा रहा है।’ यौवन की सुन्दरता को बाल्टी के पानी से मापा जा रहा है। आश्चर्य की बात ये कि भोजपुरी सिनेमावाले आजकल पता नहीं कैसे रोटी और होठलाली के मिश्रित सेवन पर जीवित हैं। और तो और भोजपुरी के आजकल के गायक तो रात में दीया बुताने के बाद की पूरी अन्धकारमय प्रक्रिया के सचित्र सजीव वर्णन की अद्भुत क्षमता भी रखते हैं। भोजपुरी गायकों की स्मरण शक्ति इतनी तीव्र है और इन्हें अपने अधिकारों का इतना भान है कि ये मुखरित दावा करते हैं कि ‘पियवा से पहिले…..’।

 भोजपुरी सिनेमा को रुलाने में केवल इसके सिनेमादारों का ही हाथ नहीं है, हम सब ने भी इस बोली की आँख में कम मिर्च नहीं डाला है। शादी-विवाह के शुभ अवसरों पर हम खुद अगुआ बनकर अपनी माँ बहनों के सामने रिमोट से लहंगा उठवाते हैं और पियवा से पहिले अपना बताने की भरपूर कोशिश करते हैं।

भोजपुरी का पुराना स्वरूप यथा, सोहर, बिदेशिया, कजरी, बिरहा, निर्गुण आज सिमटकर पुरानी पीढ़ी तक ही सीमित हो गया है। मसलन आने वाले कुछ वर्षों में इनके विलुप्ति का खतरा भी मंडराने लगेगा। भिखारी ठाकुर, बलेसर यादव और रघुवीर जी जैसे गायककार आज भोजपुरी सिनेमा का इतिहास बन चुके हैं।

भोजपुरी सिनेमा के इस 55वीं बर्षगांठ पर हम सब को देश का पेट पालने वालों की बोली यानी भोजपुरी की अस्मिता की रक्षा के लिये एकजुट और दृढ़संकल्पित होने की ज़रूरत है। कम से कम व्यक्तिगत स्तर पर भोजपुरी गीतों के आधुनिक नंगे और फूहड़ स्वरूप का बहिष्कार करें और आसपास के लोगों को करने हेतु प्रेरित भी करें।

साहित्यकार बंधुओं से निवेदन है कि अपने साहित्य-सृजन के दायरे में इस बोली को भी स्थान दें। और सबसे ज़्यादा निवेदन और करबद्ध प्रार्थना भोजपुरी सिनेमाकारों से कि कृपा करके, रहम खाकर भोजपुरी को भोजपुरी ही रहने दें। माटी और गोबर की ही भाषा रहने दें। इसका अतिआधुनिकीकरण और विज्ञानीकरण न करें। इसे ट्रक चलाने वाले ड्राइवरों, ईंटा-गारा करने वाले मजदूरों और सीमा पर लड़ने वाले जवानों की भाषा रहने दें तो इसके और इसके इतिहास के साथ न्याय होगा। जय भोजपुरी।

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