Site icon Youth Ki Awaaz

सूरजकुंड मेला कला का वो बाज़ार है जहां कलाकारों की कोई हैसियत नहीं

“अजीब दास्तां है ये…” इस गीत की बांसुरी की धुन मेले में कदम रखते ही मेरे कानों से होकर हृदय में उतर ही रही थी कि अचानक गीत बदल गया। अब की बार फिर एक बेहतरीन गीत “दिल जो न कह सका, वही राज़े-दिल कहने की रात आई” की मनमोहक बांसुरी की धुन। सीधी सी बात ये कि निरंतर एक ऐसा माहौल तैयार किया जा रहा था जो आपको मेले से आंतरिक रूप से जोड़ दे।

देश के सभी राज्यों और विभिन्न देशों की शिल्पकला और संस्कृति का अद्भुत संगम सूरजकुंड का अंतर्राष्ट्रीय मेला, किसी परिचय का मोहताज नहीं है। यह अंतर्राष्ट्रीय मेला देश की संस्कृति और शिल्प को प्रोत्साहन और संरक्षण के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विलुप्त होती विभिन्न संस्कृतियों और कलाओं को एक मंच प्रदान करता है। सूरजकुंड मेले में प्रत्येक वर्ष एक थीम राज्य होता है और एक सहयोगी राष्ट्र, जैसे इस बार थीम राज्य उत्तर प्रदेश है और सहयोगी राष्ट्र किर्गिस्तान है। इस बार 28 देशों के 1100 से अधिक शिल्पकार और 14 देशों के कलाकार सांस्कृतिक प्रस्तुति के लिए शामिल हैं।

निश्चय ही इस आकर्षक मेले का अपना एक अद्वितीय स्थान है, पर क्या यह वास्तव में वैसा ही है जैसा दिखता है? जिनके हाथ से बनी कलाकृतियों और संस्कृतियों से सूरजकुंड मेला सजता है, वो इस देश की भीड़ के मेले में कहां हैं?

उनकी सामाजिक और आर्थिक हैसियत क्या है? क्या सरकारी मदद उन तक पहुंची, जिनकी ये कलाकृतियां हैं या अब भी वो दिहाड़ी पर ही अपनी कला और संस्कृति को संवारने पर मजबूर हैं?

यह मेला उनकी पहचान आपसे करा पाता है या महज़ कलाकृतियों का कारोबार है यह मेला? कई कलाकारों से बातचीत के बाद उनकी बेबसी के किस्से सामने आए। हम जिन कृतियों और प्रस्तुतियों को देखकर खुश हो रहे थे, हमारे चेहरे चमक रहे थे, वहीं वे निराश थे और उनके चेहरे बुझे हुए थे। ऐसी कई कहानियां थी जो मैं वहां देख सका।

फोटो आभार: अमित अनंत

वास्तविक लगने वाले इन नकली फूलों के बीच खड़े शख्स से मैने जब पूछा कि इनको किसने बनाया, तो वो हड़बड़ी में गर्व से बोल पड़ा मैंने। मुझे एक पल के लिए ऐसा लगा जैसे उनसे उनका कोई हक छीन रहा हो। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय का बोर्ड लगा होने के कारण मैंने सरकारी सहायता से संबंधित सवाल पूछे, पर वह बताने में असमर्थ रहा। एक व्यक्ति की ओर इशारा करते हुए कहा कि आप उनसे पूछ सकतें हैं।

बात ही बात में मुझे ये जानने को मिला कि इन सुंदर फूलों को बनाने वाले लोग बिहार से बुलाए जातें हैं जो दिहाड़ी मज़दूरी और सुबह-शाम के खाने पर काम करते हैं और इस काम के लिए सरकारी सहायता हरियाणा के किसी छोटे कारोबारी के नाम है।

सवाल ये है कि ये सरकारी सहायता इस काम में लगे दिहाड़ी मजदूरों को नहीं मिल सकती क्या? आदिवासी और पिछड़े समुदायों के लिए जीविकोपार्जन के नाम पर व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर दी जाने सहायता में ठेकेदारी का प्रचलन कितना सही है? ऐसे कलाकारों को क्या हम उनका वाजिब हक दिला पा रहें है या महज औपचारिकताओं में मामला निपटा दिया जाता है? योजनाओं के ऐसे क्रियान्वयन से पेट भरने भर की उम्मीद की जा सकती है पर उनके आत्मनिर्भरता, उत्थान, पहचान और कल्याण की नहीं।

शोभारानी से टूटी-फूटी अंग्रेजी में, मेले से लौटते वक्त मिलने का वादा किया था जो मैं निभा न सका। शोभारानी कर्नाटक से हैं, बेहद सौम्य और कर्मशील। कर्नाटक सरकार से उनके समूह को अपने उत्पादों को बनाने के लिए बेहद कम ब्याज़ दर पर आर्थिक सहायता मिली है, जिससे इनका समूह यह काम करने के लिए उत्साहित रहता है। उनके समूह द्वारा निर्मित सामानों की श्रेणी में अगरबत्तियां, धूप, छोटे खिलौने और मूर्तियां हैं।

फोटो आभार: अमित अनंत

इतने उत्साह और मेहनत के बावजूद उनको निराशा हाथ लग रही है। वो बताती हैं कि ऐसे बहुत कम मौके आए हैं जब हमको लाभ हुआ है। कई बार हमें इस काम मे घाटा होता है और हम लोन चुकाने में असमर्थ होते हैं। इस बार के मेले को लेकर भी वो निराश हैं, बिक्री बहुत कम है। उनका कहना है कि लोगों की मानसिकता मोलभाव करने की है जिससे उनको उचित दाम नही मिल पाता, पूरे सामान की बिक्री न हो पाने पर दोबारा कर चुकाने से उनका नुकसान बढ़ जाता है। मेले की इस चकाचौंध में उनकी ये एक अलग तरह की समस्या है जो मेले के नकारात्मक पक्ष को उजागर करती है। इतने भव्य मेले में ये अपनी समस्यों से जूझते नज़र आते हैं, इनके लिए सरकार को वैकल्पिक समाधान सुनिश्चित करना चाहिए।

मेले का शोर जहां कम होने लगता हैं वहीं किसी किनारे ये बैठे मिलते हैं। अपने हुनर से तो ये भी कम नही पर इस आधुनिक व्यवस्था के मारे हुए है।

जब इनसे मैं मिला तब इनके अनुसार एक रूपए की भी बिक्री नहीं हो सकी थी। इस मेले का एक अनछुआ पहलू यह भी है जहां कला और संस्कृति, पेट पर भारी पड़ती है।

ये कहां से सीखा, पूछने पर बताते हैं कि खानदानी पेशा रहा है ये, पहले तो जीविका चल जाती थी पर अब इसका सहारा भारी पड़ रहा है। कोई दूसरा विकल्प अपनाने की बात पर ये कहते हैं कि जहां पर हमारा घर है वहां और कोई संभावनाएं नहीं हैं। सवाल यह है कि इन पीछे की पंक्ति के लोगो के लिए यह अंतर्राष्ट्रीय मेला क्या है, इनकी कला-संस्कृति की प्रदर्शनी या रोज़गार के जद्दोजहद की जगह। अफगानी गहने बनाने वाले फर्रुखाबाद के नरेश बताते हैं कि इस व्यवसाय में अब सौ प्रतिशत घाटा है।

फोटो आभार: अमित अनंत

ट्राइब्स इंडिया नाम से लगी 20 दुकानें कला एवं संस्कृति प्रदर्शन के दृष्टिकोण से बेमिसाल हैं। धातुओं की बनी मूर्तियां, मालाएं, बर्तन और कपड़े तथा घर सजाने के साजो-सामान अपने आप में अद्वितीय है। इन कृतियों के पीछे भी कई गिरहें हैं। उड़ीसा के आदिवासियों द्वारा बनाई गई ये धातु की मूर्तियां उनसे किलोग्राम के भाव खरीदी जाती हैं और यहां मेले में इनकी कीमत एक-एक पीस के हिसाब से से लगाई जाती है।

यह सोचने वाला विषय है कि क्या उनको अपनी कला का वास्तविक मूल्य मिल पाता है? साल भर में इस तरह के 3-4 मेलों में कितनी आमदनी संभव है? इस कला से जुड़ी प्रमुख उत्पादक इकाई (आदिवासी समुदाय) द्वितीयक नज़र आती है। इस अमूल्य कला एवं संस्कृति को संजोए रखने से शायद ही उनका जीवन-यापन संभव हो।

बात सांस्कृतिक कार्यक्रम के प्रदर्शनों की करें तो, फाग गायन के लिए आगरा से आयी महावीर सिंह चाहर की टीम मुझे मेरे गले में आईकार्ड और लटककती हुई नीली पट्टी लटकाये अपनी ओर आते देख ठिठक कर खड़ी हो गई।

जितनी उत्सुकता से उन्होने अपना परिचय मेरे सामने रखा मैं उससे इस बात का अंदाज़ा लगा सकता हूं कि वर्तमान मीडिया और आज का युवा उनका किस हद तक तिरस्कार करता आ रहा है।

उनके सवाल कि आप कहां से हैं, इसको कहां छापेंगे, अभी तक कई सवाल कर रहें हैं। महावीर सिंह चाहर अपनी टीम के मुखिया हैं जो कि राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता रह चुके है और इसके सिवाय भी उनकी कई उपलब्धियां हैं। उनकी टीम में शब्बीर हुसैन, राजकुमार, मुकेश, रघुनाथ, कपिल, करिश्मा और श्वेता हैं।

अंत में बस इतना कि कला और संस्कृति के इन पोषकों को उनका वाज़िब हक़ और सम्मान के साथ-साथ अपेक्षित सामाजिक-आर्थिक हैसियत मिले, जिससे ये लोग अपनी ज़िंदगी और इस सांस्कृतिक परंपरा को गति प्रदान करने का दायित्व उठा सकें।

फीचर्ड फोटो आभार: flickr

Exit mobile version