विश्व के सभी कट्टर दक्षिणपंथी दलों की तरह भाजपा भी आम लोगों के हितों की सेवा करने का दंभ करती है। उसकी सफलता लोकप्रिय नारों पर निर्भर करती है और असल में वह बस मालिक वर्ग के हितों में काम करती है। पिछले दो सालों में भारत की सबसे धनी 1% आबादी की आमदनी में ज़बरदस्त इजाफा हुआ है। एक अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन की रिपोर्ट के अनुसार इस अमीर वर्ग की आमदनी वर्ष 2016 में भारत की कुल आमदनी का 58% थी, वर्ष 2017 में यह बढ़कर 73% हो गई।
निजी बीमा कंपनियों के लिए मोटा मुनाफा बनाने का बेहतरीन मौका
भाजपा सरकार ने वर्ष 2018-19 के अपने बजट पत्रक में वादा किया है कि वह – “विश्व का सबसे बड़ा सरकार द्वारा निधिबद्ध स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम” लागू करेगी जो स्वास्थ्य बीमा के माध्यम से द्वितीयक और तृतीया श्रेणी के 10 करोड़ परिवारों या 50 करोड़ लाभार्थियों को सीधे फायदा पहुंचाएगी। लेकिन इस विशालकाय बजट पत्रक में इस बात का कोई ज़िक्र ही नहीं है कि इन सब के लिए पैसा कहां से आएगा, इसके लिए निधि की क्या व्यवस्था की जाएगी और इस कार्यक्रम का क्रियान्वयन कैसे होगा।
यह सर्व-विदित है और सरकार भी मानती है कि स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ लोगों को इसलिए नहीं मिल पता है क्योंकि देश में अवसरंचना और मूलभूत सेवाओं की कमी है, लोगों को दवाइयां प्राप्त करने और प्रारंभिक चिकित्सा केंद्र तक जाने सुलभता नहीं है।
फिर भी सरकार अवसरंचना में सुधार या मूलभूत सुविधाओं की बेहतरी पर खर्च नहीं कर रही है बल्कि निजी बीमा कंपनियों को आम जनता से ज़्यादा से ज़्यादा पैसा खसोटने का मौका प्रदान कर रही है और इसे 2018-19 के आगामी चुनावों के लिए नारे के तौर पर देख रही है।
रोज़गार पैदा करने के खोखले वादे, मज़दूरी बढ़ाने पर चुप्पी
बजट पत्रक के राजनीतिक पक्ष को दरकिनार भी कर दें तो साफ दिखाई देता है कि भाजपा सरकार कट्टर आर्थिक रूढ़िवादिता की शिकार है, जिसे लगता है कि केवल आपूर्ति पक्ष पर ध्यान देने मात्र से बाकी सभी आर्थिक संकटों का हल हो जाएगा। यह सोच इस आर्थिक समझ से उत्पन्न होती है कि टैक्स में छूट देने और विनियम में लचीलापन होने से धनी लोग ज़्यादा खर्च करेंगे जिससे वस्तुओं की मांग बढ़ेगी और परिणामस्वरूप रोज़गार उत्पन्न होंगे।
हालांकि हाल में ऐसा कोई दूसरा समय याद नहीं आता जब राजनीतिक नीति पर ऐसी एकमतता हुई हो जैसी मौजूदा परिवेश में आर्थिक पुनरुत्थान के लिए सरकार द्वारा निवेश बढ़ाने, रोज़गार पैदा करने और कृषि क्षेत्र में स्थिरता लाने की नीतियों के सन्दर्भ में देखी जा सकती है। खुद भाजपा सरकार द्वारा 29 जनवरी 2018 को संसद में पेश की गई आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट 2017-18 में ऐसी नीति की सिफारिश की गई है। नए निवेश और रोज़गार दोनों ही क्षेत्रों की हालत उससे भी बुरी हो चली है जब भाजपा सरकार ने मई 2014 में देश की कमान संभाली थी।
बचत और निवेश:
मई 2014 से ही मज़दूरी दर की बढ़ोतरी में कमी आई है। सांकेतिक मज़दूरी दर की वृद्धि में 2014 के बाद से भारी गिरावट आई है जो कि 5% प्रति वर्ष तक फिसल गई है, जबकि इसकी दर 2008 से 2013 के बीच 15% प्रति वर्ष थी। परिणामस्वरूप भारत की मेहनतकश जनता खर्च अधिक कर रही है और उसकी बचत में कटौती हुई है। हमारे देश की अर्थव्यवस्था की संरचना ऐसी है कि इसमें मज़दूर वर्ग की बचत ही निवेश के रूप में वापस बाज़ार पहुंचती है।
भाजपा सरकार की नीतियों के कारण लोग बचत नहीं कर पा रहे, जिसके परिणामस्वरूप निवेश में कमी आई है और रोज़गार के नए आयाम नहीं बन पा रहे हैं, जिससे आर्थिक अस्थिरता गहरा रही है।
साथ ही, निजी क्षेत्र, जिसका निवेश वैसे भी कम हो चला है, अवसंरचना और मशीनों में निवेश नहीं कर रहा है, जिसके कारण रोज़गार की उत्पत्ति होती है। यह निवेश अचल संपत्ति (रियल एस्टेट) और वित्त क्षेत्र में हो रहा है, जिससे बेहतर मज़दूरी और नए रोज़गार पर कोई खासा प्रभाव नहीं पड़ता। भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद से लघु, मध्यम और सूक्ष्म उद्योगों में भी अवसरंचना और मशीनों पर निवेश कम हुआ है।
सामाजिक सुरक्षा:
भाजपा सरकार के सामने जो अतिमहत्वपूर्ण काम था वह था मेहनतकश वर्ग की आय बढ़ाना। यह करने का एक आम तरीका है सरकार का सामाजिक सुरक्षा पर अपना खर्च बढ़ाना। आंगनवाड़ी कार्यक्रम को छोड़ दें, जिसके खर्चे के आवंटन में 3 साल के बाद कोई वृद्धि हुई है और महंगाई के सन्दर्भ में देखें तो सरकार ने मनरेगा, स्वास्थ्य, भवन निर्माण और शिक्षा (मध्याहन भोजन मिलाकर) के खर्चे में कटौती की है। बजट पत्रक में ‘हर परिवार के लिए 2022 तक अपना मकान’ होने की बात पर भी कोई स्पष्ट नीति नहीं है। जिस दर से देश में भवन निर्माण हो रहा है, हर ज़रूरतमंद का अपने घर का सपना 2166 तक ही पूरा हो पाएगा।
साथ ही, बजट पत्रक में नई महिला कर्मचारियों का पहले तीन साल तक भविष्य निधि (EPF) के प्रति योगदान को मौजूदा 12% की दर से घटा कर 8% करने की बात कही गई है। सरकार का कहना है कि इससे महिलाओं को हाथ में मिलने वाले वेतन में इजाफा होगा जबकि असल में देखा जाए तो लम्बी दौड़ में महिलाओं का नुकसान ही होगा। महिलाओं को सेवानिवृत्ति के बाद कम लाभ मिलेंगे जिसके कारण उन्हें बुढ़ापे में पुरुषों पर निर्भर होना पड़ेगा।
इस नीति से परोक्ष रूप में इस सोच को भी बल मिलता है कि महिलाओं को घर से बाहर काम इसलिए करने दिया जाता है क्योंकि इससे परिवार की अतिरिक्त खर्च का पूरण होता है। हाथ में मिलने वाली रकम के बढ़ने के बाद हो सकता है मालिक वर्ग महिलाओं की मज़दूरी पर आघात करे। यह भी सोचनीय है कि ऐसी नीति लागू करने की बात तब की जा रही है जब आर्थिक सर्वेक्षण में माना गया है कि भारत में कार्यक्षेत्र में महिलाओं की प्रतिभागिता बहुत कम है और पुरुषों की तुलना में उनको मिलने वाली मज़दूरी में बड़ी असमानता है।
रोज़गार निर्माण:
रोज़गार के विषय में आर्थिक सर्वेक्षण का कहना है कि भाजपा सरकार ने संगठित क्षेत्र में 70 लाख नौकरियां जोड़ी हैं। यह भविष्य निधि के आंकड़ों पर आधारित है, जो यह नहीं बताता कि क्या रोज़गार अखंडित रहा, या फिर क्या मालिक ने लगातार भविष्य निधि योगदान दिया। दूसरी ओर रिपोर्ट ने यह भी माना है कि राज्य कर्मचारी बीमा योजना से सिर्फ 5 लाख नए मज़दूर जुड़े हैं। यह भी कहा जा सकता है कि नए रोज़गार पैदा होने के सन्दर्भ में यह कहीं ज़्यादा सटीक आंकड़ा हो।
आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार द्वारा औद्योगिक नियोजन (स्थायी आदेश) अधिनियम, 1946 में लाए गए संशोधन का गुणगान भी है जिसके द्वारा मालिकों को सीमित अवधि के अनुबंध करने की छूट होगी और नई नौकरियां प्रदान करने पर टैक्स में छूट भी मिलेगी। टैक्स छूट और सीमित अवधि अनुबंध कर सकने की क्षमता का फायदा उठाने के लिए मालिक छोटी अवधि के करार करेंगे और भारत में केवल अस्थायी नौकरियों को बढ़ावा मिलेगा इसकी पुष्टि स्वयं अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने की है।
इससे न केवल मज़दूर वर्ग की आमदनी और उनके जीवन की गुणवत्ता पर प्रतिकूल असर पड़ेगा बल्कि इसके कारण मज़दूरों के कौशल और उनकी सृजनात्मक शक्ति पर भी बुरा असर पड़ेगा, इसका परिणाम यह होगा कि देश की औद्योगिक क्षेत्र की उत्पादकता और सृजन शक्ति में भारी कमी आएगी। इस नीति से भविष्य में पूरी अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा क्योंकि उद्योगों की वैश्विक स्तर पर प्रतियोगिता करने की शक्ति क्षीण हो जाएगी।
न्यूनतम समर्थन दर में वृद्धि के लिए बजट में कोई आवंटन नहीं:
आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले साल की तुलना में 2% से भी कम है। कृषि संकट से निपटने के लिए भाजपा सरकार के पास बस एक ही वादा है कि वे न्यूनतम समर्थन दर उत्पादन की लागत से 50 प्रतिशत अधिक तय कर देगी। ऐसा होने का मतलब है धान की कीमत मौजूदा दर से 45% महंगी हो जाएगी। इसका सीधा असर खाद्यान्न के दामों पर पड़ेगा और महंगाई बढ़ जाएगी।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना के खर्चे में 21% की बढ़ोतरी की गई है जो कि असल मायनों में (महंगाई देखते हुए) मात्र 15% है। यह रकम न्यूनतम समर्थन दर में होने वाली बढ़ोतरी के कारण बढ़ने वाली महंगाई से जूझ पाने में पूरी तरह अक्षम होगी। खैर इस बाबत हमें ज़्यादा परेशान होने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि सरकार न्यूनतम समर्थन दर 50% से नहीं बढ़ाने वाली, चूंकि बजट पत्रक में इसके लिए कोई आवंटन है ही नहीं। यह सरकार का “2022 तक किसानों की आय दोगुनी” करने का जुमला भर है। सरकार ऐसी बौड़म घोषणाएं, देशव्यापी किसान आंदोलनों से भयभीत होकर कर रही है।
शासकीयता कम शासन ज़्यादा यानि सार्वजनिक क्षेत्र से लूटकर निजी क्षेत्र की झोली भरना:
भाजपा सरकार द्वारा राजस्व संबंधी मुद्दों पर अपनी पीठ खुद थपथपाने के बावजूद दो ऐसे अहम मुद्दे हैं जिनकी तरफ संसद का ध्यान ही नहीं गया, क्योंकि बजट पत्रक में इनका कोई जिक्र ही नहीं है। पहला, वर्तमान वित्तीय वर्ष (2017-18) में देश का ऋण 35% बढ़ा है। दूसरा, भाजपा सरकार का यह दावा कि विनिवेश करने से सौ हज़ार (100,000) करोड़ रुपये का लाभ हुआ है, पूरी तरह से सही नहीं है।
भाजपा सरकार ने सार्वजनिक वित्त क्षेत्र से, खासकर भारतीय जीवन बीमा निगम से सार्वजनिक क्षेत्र के शेयरों में निवेश करवाया है। इसके अलावा सरकार ने हिन्दुस्तान पेट्रोलियम के सभी 40,000 करोड़ के कीमत के शेयर, एकमुश्त ओ.एन. जी.सी. को बेच दिए। साथ ही सरकार ने 1 लाख 7 हज़ार करोड़ रुपये सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों, बैंकों और भारतीय रिज़र्व बैंक से लाभांश के रूप में प्राप्त किए। यह लगभग सरकार के पूरे खर्चे के 12% के बराबर है।
यह इशारा करता है कि भाजपा सरकार स्वयं द्वारा तय किए गए राजस्व लक्ष्यों को भी पूरा कर पाने में पिछड़ रही है और इसी कारण उसे कहीं ज़्यादा ऋण लेना पड़ रहा है। इससे हमारी पूरी अर्थव्यवस्था की स्थिरता पर एक सवालिया निशान खड़ा हो जाता है, क्योंकि न तो सरकार का काम ऐसे ऋण लेकर चल सकता है और न ही सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियां लगातार ऐसे लाभांश देकर भी लाभकारी बनी रह सकती हैं।
बजट पत्रक में ऐसी कंपनियों की आमद पर टैक्स 30% से घटा कर 25% करने की भी बात है जिनका मुनाफा 50 से 250 करोड़ के बीच हो। सरकार का कहना है कि ऐसा करने से सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों को फायदा होगा। जबकि ऐसा करने से कंपनियों में प्रतिस्पर्धा की भावना में कमी आएगी और तकनीकी विकास या नए उद्योगों में पहल करने के बजाय, वे नई परन्तु छोटी इकाइयां स्थापित करेंगे जिससे भाजपा सरकार की मेक इन इंडिया योजना को बड़ा झटका लग सकता है, जो कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा की बात करती है।
भाजपा सरकार यह भी मानती है कि सार्वजनिक क्षेत्र के निर्धन होने के बावजूद एक स्थिर अर्थव्यवस्था का निर्माण हो सकता है, खासकर सार्वजनिक क्षेत्र के वित्तीय संस्थानों के सन्दर्भ में।
बैंकों में फंसे कर्ज़े (नॉन पर्फार्मिंग एसेट्स) के परिप्रेक्ष्य में वैश्विक मानक की कार्यप्रणाली (ग्लोबल बेस्ट प्रैक्टिसेज़) की बात कर सरकार ने इन संस्थाओं को चिंता में डाल दिया है। ये सारे फंसे कर्ज़े निजी कंपनियों को दिए गए हैं जो कि बस भ्रष्टाचार की उपज है।
फंसे कर्ज़ों की मूल समस्या- भ्रष्टाचार से निपटने के बजाय सरकार ने इसका पूरा भार सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों पर डाल दिया है। यदि वित्तीय समाधान एवं जमा बीमा विधेयक (एफ.आर.डी.आई. बिल) पास कराने में सरकार सफल हो जाती है तो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का खात्मा निश्चित है, जहां मेहनतकश वर्ग अपनी खून पसीने की गाढ़ी कमाई से बचाया हुआ पैसा जमा करता है।
सबका साथ, सबका विकास?
भाजपा सरकार की लोगों के प्रति उत्तरदायित्व की भावना कितनी गौण है इसका द्योतक है, अल्पसंख्यकों के विकास कार्यक्रम के खर्चे का आवंटन। यह पिछले वर्ष के मामूली 3905 करोड़ से 65% घटा कर 1440 करोड़ कर दिया गया है। भाजपा सरकार ने जुमलों की आड़ में गरीबों, पिछड़ों और मज़दूरों की आंखों में धूल झोंकने का काम किया है।