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चूरल मुरियल: केरल के मंदिर में लड़कों के साथ होने वाली दिल दहला देने वाली कुप्रथा

केरल के अलाप्पुझा में चेट्टीकुलांगरा देवी मंदिर में हर साल की तरह इस साल भी कुंबा भरानी त्यौहार की तैयारियां ज़ोरों पर हैं। दक्षिण के कुंभ मेला के नाम से मशहूर इस त्यौहार के दौरान निभाई जाने वाली 250 साल पुरानी एक परंपरा आपको हैरान कर सकती है। इसके अनुसार अमीर परिवारों के द्वारा भगवान को बली चढ़ाने के लिए गरीब परिवारों से जवान लड़के अडॉप्ट किए जाते हैं। और इसके बाद जीवन भर के लिए उन लड़कों का बहिष्कार कर दिया जाता है।

नवंबर 2016 में राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग द्वारा जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत इस त्यौहार पर बैन लगाया गया था। बाद में केरल हाइकोर्ट ने भी इस बैन को सही ठहराया था। इसके बाद भी इन आदेशों की अनदेखी कर मंदिर प्रशासन हर वर्ष यह त्यौहार मनाता है।

इस साल भी केरल हाइकोर्ट ने इस परंपरा के खिलाफ आदेश दिया है और कहा है कि इस त्यौहार में शरीक हर इंसान गैर ज़मानती अपराध का दोषी होगा। कोर्ट के आदेश से बेपरवाह मंदिर प्रशासन इस साल भी तैयारियों में लगा हुआ है जिसमें 24 बच्चों की बली दी जाएगी।

चूरल मुरियल

चूरल मुरियल के नाम से मनाए जाने वाली ये प्रथा कूडियाट्टम का हिस्सा है जिसमें मंदिर की देवी भद्रकाली की पूजा की जाती है। कूडियाट्टम प्रथा में गरीब परिवारों के 8-14 साल के लड़कों को पैसों के बदले अमीर परिवारों के द्वारा अडॉप्ट किया जाता है।

लड़कों को उन परिवारों के द्वारा अडॉप्ट किया जाता है जो अगले 7-10 दिनों तक वझीपाडु (पूजा) की प्रतिज्ञा करते हैं। इन घरों में इस दौरान भोज के साथ साथ उन लड़कों को डिटेल में डांस स्टेप्स भी सिखाए जाते हैं। ‘भरानी’ के दिन लड़कों को कागज़ के मुकुट और केले के पत्तों से राजा की तरह सजाया जाता है।

चूरल मुरियल के दौरान बच्चों के पसलियों के दोनों तरफ की चमड़ियों में एक सुई से छेद किया जाता है और उसके बाद एक आसन (गुरू) द्वारा उस छेद में सोने का धागा घुसाया जाता है। उसके बाद बाजे-गाजे के साथ भक्तों के द्वारा बच्चों को मंदिर तक ले जाया जाता है। मंदिर पहुंचने के बाद वृद्धों के द्वारा खून से रिस रहे उस घाव से वो धागा निकाला जाता है। और इसके साथ कूडियाट्टम का अंत होता है।

चूरल मुरियल प्रथा की एक फोटो।

इस प्रथा की सच्चाई

“ इस प्रथा के अनुसार परिवार को अपने बच्चों की बली देनी होती है। लेकिन ऐसा नहीं होता। इसके बदले गरीब बच्चों को इस प्रथा का शिकार बनाया जाता है। अमीर घराने गरीब परिवार के बच्चों को कुछ पैसों के बदले अडॉप्ट करते हैं। ” –  जसविंदर सिंह, कम्यूनिकेशन और एडवोकेसी हेड, प्रोत्साहन। प्रोत्साहन ने इस प्रथा के खिलाफ change.org पर एक ऑनलाइन याचिका दायर की है।

इस प्रथा को कवर करने वाले पत्रकार टी.सुदेश बताते हैं “हमने करीब 15-20 परिवारों से बात की और देखा कि कभी -कभी कितनी छोटी चीज़ों जैसे कि गहनें और खिलौनों के लिए बच्चों को अमीरों को सौंप दिया जाता है। ये उन गरीब परिवारों के लिए तो गंभीर विषय है ही, साथ में उन अमीर परिवारों के लिए भी शर्म का विषय है जो शायद अपने बच्चों को ऐसी प्रथा में  कभी नहीं झोंकते, जिसमें वो इन गरीब बच्चों को पैसे के बदौलत झोंकते हैं।

YKA से बात करते हुए जसविंदर सिंह बताते हैं कि इस पूरी प्रथा के बारे में जो सबसे हैरान कर देने वाली बात है वो यह कि इस त्यौहार के बाद इन बच्चों का क्या होता है? चूंकि इस प्रथा का मतलब यह है कि भगवान को मानव बली प्रदान की गई है, उन बच्चों का पूरी तरह से बहिष्कार कर दिया जाता है, यह समाज उन्हें हमेशा के लिए मृत मान लेता है। लोग उन्हें मनहूस मानते हैं और यही व्यवहार उनके साथ जीवन भर किया जाता है।


इस प्रथा को बंद करने की सभी कोशिशें अबतक बेकार ही गईं हैं। और इसके पीछे वजह है मंदिर को मिलने वाला राजनीतिक संरक्षण।

“पूरे समुदाय के हितों और भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले भक्तों के संगठन श्रीदेवी विलासम हिंदुमठ कंवेन्शन के, कुछ बेहद मज़बूत लोगों के साथ रिश्ते हैं, जिनका सामना कोई नहीं करना चाहता। हालांकि कोर्ट साफ कह चुका है कि यह संस्था ना तो समुदाय और ना ही उस मंदिर के हितों का प्रतिनिधित्व करती है फिर भी उन लोगों की वजह से मंदिर को मिलने वाले संरक्षण ने उन्हें कोर्ट का आदेश भी तोड़ने के लिए बेफिक्र कर दिया है।” – टी सुदेश YKA से बात करते हुए।

इस मंदिर को कितना राजनीतिक संरक्षण मिला है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि नेतागण कितने उत्साह से इस प्रथा में हिस्सा लेते हैं। जैसे पिछले साल राज्यसभा सांसद सुरेश गोपी इसका हिस्सा थें और उनके परिवार की बेहतरी के लिए भी दो बच्चों को इस कुप्रथा से गुज़रना पड़ा।

उसी दिन गोपी के साथ 14 और लोगों ने कूडियाट्टम में हिस्सा लिया था, और उन सबने कम से कम 2-2 बच्चों को अपनी इस कुप्रथा का हिस्सा बनाया था और 10 से 50 लाख तक खर्च किए थे।

बाल अधिकार के लिए काम करने वाली सोनल कपूर ने YKA को बताया “ये बेहद दुखद है कि यह सब उस राज्य में हो रहा है जहां पर लिट्रेसी रेट सबसे ज़्यादा है। और उससे भी दुखद है कि कुछ बेहद ही रसूखदार और मज़बूत लोगों के शामिल होने की वजह से अबतक इसपर कोई ठोस कार्रवाई नहींं हुई है।”

स्थानीय मीडिया में इस खबर के लिए कोई जगह नहीं है।

इस दमनकारी प्रथा से लड़ रहे सभी लोगों के पास बस एक ही रास्ता बच जाता है, वो है उम्मीद का रास्ता। उम्मीद यह कि एक दिन इतनी जागरूकता होगी कि लोग इसको गलत मानेंगे और सरकारी तंत्र नींद से जागेगा। ताकि इस साल कम से कम 24 मासूम बच्चे बचाए जा सकें।

इस स्टोरी को आगे शेयर करके हर साल मासूम बच्चों को बचाने में हमारी मदद करें।

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