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विश्व सिनेमा की सबसे भावुक फिल्मों में से है चार्ली चैपलिन की सिटीलाइट्स

 

महान अदाकार व फिल्मकार चार्ली चैपलिन की फिल्मों का संग्रह बनाने पर आप गंभीरता से विचार करें तो उसमें ‘सिटी लाईट्स’ का होना अनिवार्य होगा। उनकी फनकारी के ज़्यादातर पहलुओं को एक जगह पर देखने का दुर्लभ अवसर इस फिल्म से बेहतर कहीं नहीं मिलेगा। इन खूबियों में आप यह ना भूलियेगा कि चार्ली चैपलिन का निभाया ‘लिटिल ट्रांप’ का सर्वकालिक किरदार भी इस फिल्म में है।

विश्व सिनेमा के विकास के नज़रिए से देखें तो इस फिल्म के समय टॉकीज़ (बोलता सिनेमा) का उदय हुए कुछ बरस बीत चुके थे। चैपलिन की यह पेशकश, उनकी मूक फिल्मों में आखिरी कतार में खड़ी थी।

कहीं ना कहीं उन्हें भी आभास रहा होगा कि अब फिर से मूक फिल्में बनाने में काफी मुश्किल होगी। टॉकी की हलचल से प्रभावित होकर ‘सिटी लाईट्स’ को भी टॉकी रूप में बनाने पर चैपलिन थोड़ा झुके थे, लेकिन फिर उन्होंने मूक फिल्म और टॉकी के बीच का रास्ता अपनाया। चैपलिन की धुनों से सजा एक आकर्षक बैकग्राउंड संगीत और ध्वनि प्रयोग इस मूक फिल्म को खास बनाता है।

फिल्म के ओपनिंग दृश्य में सांकेतिक भाषणों के प्रयोग से, तत्कालीन राजनीति के उपहास का हौसला नज़र आया। यहां संबोधन के नाम से राजनेताओं के मुख पर बेतुके व कर्कश लफ्ज़ आरोपित हैं। टॉकी फिल्मों में संवाद चलन का एक तरह से यह दिलचस्प मज़ाक था। उनके निशाने पर नज़र आने वाले बाकी चीज़ों में शालीन कहे जाने वाले लोगों की कटुता, फूहड़ता और आडम्बर शामिल था। यह संभ्रात लोग ‘ट्रांप’ किस्म के बेसहारा और प्यारी शख्सियतों से काफी निर्ममता से पेश आएं।

चैपलिन ने जो किया उसमें एक खास संगत नज़र रही: उनके ‘लिटिल ट्रांप’ ने खुद को संवादों के ज़रिए कभी व्यक्त नहीं किया। अधिकांश मूक फिल्मों में संवादों का एक सुंदर भ्रम बनाया गया। देखकर महसूस होगा कि किरदार मूक नहीं, परंतु हमें वो संवाद सुनाए नहीं गए। समकालीन फिल्मकार कीटन के किरदार चैपलिन की तुलना में स्पष्ट रूप से सुने जाने वाले थे। लेकिन स्वांग व अंगविक्षेप के मसीहा ट्रांप के लिए शारीरिक भंगिमाएं ही भाषा थी। वो समकालीन किरदारों से एक अलग दुनिया का नज़र आता है।

बाकी की सीमाओं से बाहर खड़ा वो शख्स, जिसे लोग उसके बाहरी आवरण पर परखते हैं। अजनबी-अंजान में बंधु-परिवार खोजने वाला बेघर-आवारा। दुनिया की दुनियादारी में घुलने के वास्ते उसके पास काम के अलावा भाषा नहीं।

कभी-कभार उसके लिए संवाद होना ठीक महसूस होता है, लेकिन शायद ट्रांप को उसकी ज़रूरत नहीं पड़ी। मूक सिनेमा के ज़्यादातर किरदारों की तरह वो भी संवादों की भाषा कभी-कभार इस्तेमाल कर सकते थे।

अधिकांश फिल्मों में मानवीयता को आविष्कार की संगत में पेश किया गया। उनकी यह फिल्म भी उसी किस्म की रही, क्योंकि यहां चैपलिन के सबसे दिलचस्प हंसोड़ दृश्य नज़र आएंगे। आप कुश्ती के सीन को याद करें, खुद को प्रतिद्वंदी से किसी तरह अलग रखने के खातिर हीरो द्वारा कदमों का चपल इस्तेमाल देखकर आप हंसी रोक नहीं सकेंगे।

ओपनिंग सीन जहां एक महान वीर की प्रतिमा दिखाने के बहाने उसकी गोद में पड़े हीरो को दिखाया गया। उस ऊंची प्रतिमा पर चढ़ने की कोशिश में ट्रांप की पैंट मजाकिया रूप से वीर की तलवार से फंसी रह गई थी। फिर वो दृश्य जिसमें सीटी निगल लेने की वजह से कुत्तों का झुंड हास्यास्पद रूप से उसके पीछे लग गया। लुटेरों से जूझने वाला सीन एवं नाइटक्लब डांसर को ज़बरदस्ती के साथी से बचाने वाला दृश्य भी देखने लायक था।

चैपलिन को अदाकारी में छुअन व रुकी हुई प्रतिक्रिया की कला पर महारत हासिल थी। फूलवाली नबीना (blind) युवती के इलाज का खर्च लेकर उसके घर आए अभिनेता का सीन देखें। अमूमन असमझदार रहने वाला ट्रांप बड़ी समझदारी से थोड़े बहुत पैसे खुद की ज़रूरत के लिए रख लेता है। उदारता का स्तर देखें कि युवती द्वारा हाथों को स्पर्श कर चूमने पर वो बाकी पैसे भी शर्माते हुए निकाल देता है।

यह चरित्र एक बेदखल-आवारा ज़िंदगी जीने को मजबूर था, लोगों की किनाराकशी एक शाश्वत सच की तरह उससे लिपटी हुई थी। ज़्यादातर एक ही रणनीति को लेकर काम करने वाला ट्रांप, खुद को दुहराता सा लगता है। उसकी असंतुलित शारीरिक मूवमेंट से परेशान लोगों को उसमें जोड़ों का मरीज नज़र आ सकता है, लेकिन ट्रांप की अदाएं सभी को पसंद आएंगी। चैपलिन की सिटी लाईट्स को मानवीय संवेगों की विजय का गान कहना गलत ना होगा। चैपलिन का ‘लिटिल ट्रांप’ विलासिता व फकीरी के दो भावों में सहजता से गमन कर गया। न्याय व मानवता का निवेदन करने वाला आदमी, बेशक एक दुर्लभ किस्म की शख्सियत का उनमें वास था।

फिल्म में जेल से रिहा होकर ट्रांप फिर से वहीं आने की बार-बार कोशिश करता नज़र आया, जेल ही उसके लिए ज़्यादा सुरक्षित होगी यह सोचकर। लेकिन सिटी लाईट्स में उसका दु:ख जो कि हमारा भी हो गया कि बेचारे की पहचान उन्हीं लोगों से बनी जो उसे देख नहीं सकते। वो मतवाला शराबी, व्यक्तित्व से थोड़ा कट जाने पर ही ट्रांप को पहचान नहीं पाता। नबीना फूलवाली युवती (विरजिनिया शेरिल) से मुहब्बत भी उसी तरह मर्मस्पर्शी अंत को ही पाएगी।

उसका फकीरी का आवरण उसे बाकी से अलग करता है। संवाद कायम करने के लिए संकेतों का इस्तेमाल करने में वह लोगों को चिड़चिड़ा कर देता है। एक स्टीरियोटाइप धारणा के दायरे में उसे सीमित कर लोग काफी गलती कर रहे थे।

चैपलिन का ट्रांप हम लोगों के किस्म का नहीं था। जाति-समाज से बेदखल आवारा…अकेला। दुनिया का ठुकराया हुआ आदमी।

एक नबीना फूलवाली से बेघर-आवारा का नाता दिलों को स्पर्श कर जाने वाली कहानी को बयान करता है। क्या देख ना पाने कारण ही वो युवती किसी आवारा से मुहब्बत कर बैठी? क्या महज़ इसी वजह से उसे ट्रांप की फिक्र रही, क्योंकि उसने ट्रांप को देखा नहीं था? बेशक युवती को उससे दूर रहने की हिदायत भी मिली हुई थी। जब कभी उसे बुलाने ट्रांप घर चला आया, फूलवाली वहां नहीं मिली। फिल्म का आखिरी सीन विश्व सिनेमा के सबसे भावुक दृश्यों में शामिल है।

नबीना युवती के इलाज का खर्च जो नादान ट्रांप वहन कर गया, रोशनी वापस मिलने पर वह उसे ही अवारा-लफंगा समझने लगी। वह एक बनावटी मुस्कान के साथ उसे एक गुलाब भेंट करती है। हीरो को उस फूलवाली युवती से मुहब्बत हो चुकी थी। खुद की झूठी अमीर छवि बनाने में कामयाबी पाकर ट्रांप ने उसका दिल जीत लिया था। आप यह ना सोंचे कि नबीना (blind) फूलवाली युवती व अमीर शराबी का होना चैपलिन की इस कहानी में असंगत नज़र आते हैं। क्योंकि चैपलिन को वास्तविक रूप में ना देख पाने का असर दोनों को मुख्य किरदार से जोड़े हुए है।

फिल्म का अदभुत बाक्सिंग सीन, फिर दिल तोड़ देने वाला था। आखिरी दृश्य जिसमें युवती आंख मिलने बाद अंधपन के साथी को पहचानकर भी अनजाना समझती है। चैपलिन इसको भी कविताई रूप में लौटाता है। पूरी फिल्म में नबीना लड़की आवारा ट्रांप को अमीर सहायक मानती रहती है, लेकिन असलियत से रूबरू होने पर दोनों के दरम्यान एक अलग भावुकता का निर्माण होता है। वो रिश्ता जो जान-पहचान का होकर भी असलियत के सामने अजनबी बन जाता है।

युवती की प्रतिक्रिया को लेकर हीरो की आंखों में इंतजार व भय का एक साथ होना देखा जा सकता है। वहीं दूसरी तरफ अवसर को लेकर युवती में भी अस्पष्टता व मुहब्बत का मिश्रण नजर आया।

हाथ में थोड़े बहुत पैसे देने के क्रम में वह अंधपन के साथी का स्पर्श पहचान लेती है। अंधकार से रोशनी में आकर वो उसकी फिक्र करने वाले को थोड़े विलम्ब से ही सही, जान-पहचान का कुबूल कर लेती है। हीरो ने फूलवाली युवती की भलमनसाहत का ठीक अनुमान लगाया, खुदा का शुक्र रहा कि ट्रांप भी खुद को खुद की शख्शियत के प्रकाश में कुबूल कर सका। एक तरह से यह मुहब्बत की भी जीत थी। मूक सिनेमा के पहलुओं पर खरी उतरने वाली यह फिल्म साइलेंट होकर भी प्यार की एक अदभुत कहानी सुना गई। रूमानियत से रूबरू कराती ऐसी सुंदर फिल्में विरले ही बन पाती हैं।

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