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फ्लैक्का ड्रग्स इंसानों के ज़ॉम्बी बनने की कहानी को सच कर रहा है

जब फ्लोरिडा निवासी ऑस्टिन हरौफ ने एक दिन अपने पड़ोसी का चेहरा चबा लिया तो लोगों को लगा कि उनके भीतर किसी काले साये ने कब्ज़ा कर लिया है। वहीं अफ्रीकन युवक लेरॉय स्ट्रोथर्स एक दिन नंगा होकर अपनी बिल्डिंग पर चढ़ गया और बंदूक लहराने लगा। लोगों को लगा की लेरॉय की मानसिक हालत बिगड़ गई है।

कई ऐसे भी मामले सामने आए जिनमे इंसान की हालत इतनी बिगड़ गई कि वो दौड़-दौड़ कर खुद का सर चलती गाड़ियों में मारने लगा। ऐसे ही तमाम किस्से समय-समय पर मीडिया रिपोर्ट्स में सामने आ रहे हैं, जिनके तार एक ही कड़ी से जुड़े हुए हैं। जब इन सभी मामलों में मेडिकल जांच हुई तो बात सामने आई कि सभी के शरीर में एक ही तरह के परिवर्तन देखे गए और उनके जिस्म में एक ही तरीके के मादक पदार्थ के अवशेष मिले।

जी हां, मैं बात कर रहे हूं दुनिया में तेज़ी से पांव पसारते ड्रग्स फ्लैक्का की। आज तक इंसानों ने इससे खतरनाक नशे का इजाद नहीं किया।

फ्लैक्का का सेवन करते ही इंसान, हैवान में तब्दील हो जाता है। उसका शरीर अकड़ने लगता है, सर झुक कर कंधे के नीचे पहुंच जाता है। बिलकुल वैसे ही जैसे ज़ोम्बीज़ को आपने फिल्मों में देखा होगा, इसीलिए फ्लैक्का को ज़ोम्बी ड्रग्स भी कहते हैं। इस मादक पदार्थ का असर होते ही शरीर का तापमान हद से ज़्यादा बढ़ जाता है। जिस्म में इतनी ताकत महसूस होने लगती है कि इंसान खुद को सुपर ह्यूमन समझने लगता है।

दुनियाभर में नशे करने के हज़ारों तरीके मौजूद हैं, मादक पदार्थ दो तरीके से बाज़ार में उपलब्ध हैं। पहले तो वो जो प्राकृतिक कहे जाते हैं जिन्हें पौधों या फलों से बनाया जाता है, जैसे- तम्बाकू, शराब, गांजा, भांग आदि। दूसरे प्रकार के पदार्थों को कृत्रिम मादक पदार्थ (Synthetic Drugs) कहा जाता है। इन्हें कृत्रिम रूप से संश्लिष्ट करके बनाया जाता है, इन ड्रग्स को फैंसी ड्रग्स भी कहते हैं, जैसे- हेरोइन, कोकीन और एलएसडी आदि। फ्लैक्का भी सिंथेटिक ड्रग्स की श्रेणी में आता है। कैप्सूल के रूप में उपलब्ध यह नशीला पदार्थ इंसानी जिस्म को झकझोर कर रख देता है।

कैसे बनता है फ्लैक्का

फ्लैक्का का केमिकल रूप अल्फा-पीवीपी है, जिसे ओ-2387, बीटा-केटो प्रोलिंटेन, प्रोलिंटेनोन और डिसमेथाईल पाईरोवेलेरोन भी कहते हैं। कैथिनोन वर्ग के इस उत्तेजक कृत्रिम पदार्थ का पहला निर्माण 1960 में हुआ था। अन्य मनोउत्तेजक औषधियों की तरह अल्फा-पीवीपी भी पागलपन, दु:स्वप्न और मानसिक विक्षेप जैसे प्रभाव डालता है। इसके ओवरडोज़ के बाद लोगों की मौत और आत्महत्या की रिपोर्ट्स भी सामने आई हैं। रक्त या प्लाविका में अल्फा-पीवीपी की मात्रा सामान्यतः 10 से 50 माइक्रोग्राम/लीटर रहती है, लेकिन शौकिया कम मात्रा में डोज लेने पर यह 100 माइक्रोग्राम/लीटर से भी ज़्यादा हो जाती है। वहीं इसकी मात्र 300 माइक्रोग्राम/लीटर से ज्यादा होने को ओवरडोज़ मान लिया जाता है, जिसके बाद किडनी और फेफड़े पर इसका घाताक परिणाम देखने को मिलता है।

फ्लैक्का के नशे में धुत्त लोगों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। अमेरिका, साउथ अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया जैसे बड़े देशों में इसका इस्तेमाल आम होता जा रहा है। इस आत्मघाती ड्रग्स को धीरे-धीरे भारत में भी लाया जा रहा है।

कई मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो गोवा , बेंगलुरु, हैदराबाद और मुंबई जैसे बड़े शहरों में फ्लैक्का ने पांव पसारना शुरू कर दिया है। भारत में इसके डोज़ की कीमत 1000 रूपये से शुरू हो जाती है, वहीं अन्य देशों में ये सबसे सस्ते नशे के तौर पर उपलब्ध होने की वजह से प्रचलन में आता जा रहा है। इसके ओवरडोज़ के लिए मात्र 0.01 ग्राम का सेवन भी काफी होता है।

यह फैंसी ड्रग युवाओं को तेज़ी से अपनी ओर खींच रहा है और इसी तरीके के कई और ड्रग बाज़ार में आ गए हैं जो अवैध रूप से बेचे जा रहे हैं। अमूमन मानव शरीर के लिए जो दवाइयां बनाई जाती हैं उनका पहला इस्तेमाल चूहों पर किया जाता है, लेकिन इस तरह के सिंथेटिक ड्रग को सीधे इंसानों तक पहुंचाया जाता है।

सिंथेटिक ड्रग्स धीरे-धीरे खतरनाक होते जा रहे हैं, क्यूंकि इनकी चंद डोज़ भी आपको इनका आदी बना देती हैं। कहते हैं कि प्रशासन की नाक के नीचे से भारतीय युवाओं के रगो में फ्लैक्का दौड़ रहा है, लेकिन इसे बड़े पैमाने पर अभी तक कहीं से बरामद नहीं किया गया है। खुद की जान का दुश्मन बना देने वाले इस ड्रग्स को जितनी जल्दी हो सके नारकोटिक्स विभाग को संज्ञान में लेना चाहिए और इसे रोकने के कड़े कदम उठाने चाहिए।

 

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