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न्यूज़ ही न्यूज़ और ब्रेकिंग न्यूज़ के बैनर में आम आदमी की खबर कहां है?

जब दिल्ली में संवैधानिक पदों पर बैठे लोग आधी रात को जूतम पैजार हो रहे हों, बिहार में एक पूर्व स्वास्थ मंत्री अपने घर वर्तमान मुख्यमंत्री पर भूत प्रेत भेजने का आरोप जड़ता हो, जब उत्तर प्रदेश में एक विधायक धर्म के आधार पर अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने का ज्ञान झाड़ रहा हो, ठीक उस समय बिहार के मुज़फ्फरपुर ज़िले में एक अनियंत्रित कार की चपेट में आने से 9 बच्चों की मौत पर भला कौन दुःख मना रहा होगा?

ये सब उस भारतीय को सोचना पड़ेगा जिसका सुख दुःख आज मीडिया से लेकर उद्योगपति, नेता से लेकर अभिनेता, धर्म के नाम पर धर्मगुरु और जाति के नाम पर जातिवादी नेता चट कर गये।

देश में न जाने कितने न्यूज़ चैनल हैं जो पल-पल की खबर लोगों तक पहुंचाने का दावा कर रहे हैं। किसी के पास सबसे बड़ी खबर है तो किसी के पास सच्ची खबर है। लेकिन इसमें एक आम भारतीय की खबर कहां है? सजे हुए न्यूज़रूम हैं, मेकअप किये एंकर बैठे हैं और हर रोज वही वक्ता हैं वही प्रवक्ता हैं। भूकम्प के केंद्र बिंदु तक जाने वाले संवाददाता, जब आत्महत्या करते किसान और आधारकार्ड न होने पर भूख से मरने वाली बच्ची के घर तक न पहुंच पाए तो सोचिये ये न्यूज़ किसके लिए चल रही है?

सद्भावना, समरसता, समानता, लोकतंत्र की बात हर रोज़ होती है, पर 1150 करोड़ रूपये का गबन कर सरकार और बैंक को आंख दिखाने वाला तथा केरल में थोड़ा सा खाना चुराने के आरोप में एक आदिवासी युवक की पीट-पीटकर हुई हत्या और लाचारी में जिस्म तक बेचने वाली किसी गरीब के बीच कैसी समानता, कैसा सद्भाव?

पूंजीवादी समाज में मुनाफे का पहिया खूब घूम रहा है, किसान से 2 रूपये किलो का आलू खरीदकर चिप्स बनाकर 900 रूपये किलो बेचने वाले, चटकारे लेकर खाने वाले, किसानों के लिए योजना बना रहे हैं भला किस मुंह से मेहनत और पूंजीवाद के बीच समानता का बेसुरा राग अलापा जा रहा है?

न जाने कितने दिन बीत गये देश के किसी गरीब नागरिक की ज़रूरतों की खबर न्यूज़ चैनल पर देखे हुए, बस हर रोज़ कुछ गिने-चुने चेहरों पर ही कैमरे घूमते हैं। स्टूडियों में शाम को दंगल होता है, कहीं ताल ठुकती है, कोई कह रहा है हम तो पूछेंगे और किसी को प्राइम टाइम में सरकार को कोसते हुए देखना हर रोज़ का किस्सा है।

चेहरे वही हैं, वही अभिनेता है, वही नेता है कोई चुनाव जीत गया कोई हार गया। हर रोज़ खबरों में बने रहने वाले इन्हीं निर्धारित चेहरों को देखते हैं। ज़्यादा दुखी होने और खुश होने की बात नहीं बस सोचना इसमें आम आदमी और उसकी ज़रूरते कहां है?

पत्रकारिता के बारे में आडवाणी जी ने कभी कहा था कि इनसे झुकने को कहा गया, ये तो रेंगने लगे, अब तो समय बीत गया लेकिन अब भी दरबारों में चारण की तरह विरद बखान हो रहा है। किसी ने सही कहा है कि यह पत्रकारिता का भक्तिकाल है- लगता है कि पत्रकारों के पास कलम की जगह घंटी आ गई है जिसे वो हर समय बजाते रहते हैं और अपने इष्टदेव की आरती उतारते रहते हैं।

समाजवाद लाने वाले परिवार को ढो रहे हैं, बहुजन हिताय वाले अपने हित तलाश रहे है, रामराज की बात करने वाले उल्टा अपनी पार्टी के दशरथों को वनवास या मार्गदर्शन मण्डली में भेजकर राम की बात कर रहे हैं, जिसको इस बात पर आपत्ति या सवाल है वो देश का दुश्मन है या फिर उसे राजनीति की समझ नहीं है।

ये ही गंभीर और सोचनीय बात है कि आज के भारत में भी एक दलित व्यक्ति को अपनी बारात निकालने के लिए प्रशासन से अनुमति लेनी पड़ रही है। दलितों के घर खाना-खाने सामाजिक समरसता की बात करने वाले इस मुद्दे से बचकर कुछ तो राष्ट्र रक्षा यज्ञ के लिए मिट्टी ढो रहे हैं।बचे-खुचे नेता अपने जनेऊ दिखा रहे हैं।

कहा जा रहा है कि भेदभाव पहले भी था और अब भी है। अगर इस देश के बड़े नेता देश निर्माण की बात कर रहे हैं तो देश का निर्माण सिर्फ सड़कें और अस्पताल बनाने से नहीं होता, बल्कि समाज बनाने से होता है। सभी नागरिकों को बराबरी का हक मिलेगा तब ही देश बनेगा। भले ही भारत का संविधान अपनी प्रस्तावना में ही समता, बंधुत्व और न्याय पर आधारित समाज के निर्माण की बात करता है, लेकिन ये हो नहीं पा रहा है। जिन्हें इस बात पर दंगल और ताल ठोकनी चाहिए वह अपने राजनितिक इष्टदेवों के साथ सेल्फी ले रहे हैं।

कथित अछूत लोग धर्म के लिए बलिदान करे तो वाह-वाह पर यदि वह अपनी खुशी के लिए घोड़ी चढ़ जाएं तो ये बर्दाश्त नहीं किया जा रहा है। उसे डांट डपटकर उसकी औकात याद दिलाई जा रही है। ध्यान रहे ये खबरें इतनी छोटी होती है कि न्यूज़ चैनल पर विज्ञापन के वक्त जब लोग चैनल बदल लेते है तब नीचे पतली पट्टी पर चलती दिखती है। मतलब देश का आम नागरिक आज हिंसा, दंगे और राजनितिक रैलियों का सिर्फ चेहरा बनकर रह गया है।

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