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एक महिला की हंसी से ‘सरकार’ की मर्दानगी क्यूं आहत होती है?

“सभापति जी रेणुका जी को कुछ मत कीजिये, रामायण सीरियल के बाद ऐसी हंसी सुनने का आज सौभाग्य मिला है।”

राज्यसभा में प्रधानमंत्री मोदी ने इस टिप्पणी से सांसद रेणुका चौधरी के हंसी की तुलना रामायण के खल पात्रों से की। प्रधानमंत्री मोदी ने जब  यह टिप्पणी सांसद रेणुका चौधरी की तो शेष सदन हंस रहा था और मेज थपथपा रहा था। रेणुका चौधरी इस घटना पर विशेष अधिकार हनन की बात पहले ही कह चुकी हैं।

सनद रहे यह कोई पहली घटना नहीं है, जब किसी महिला या महिलाओं पर सार्वजनिक रूप से इस तरह से आपत्तिजनक टिप्पणी की गई हो।

कुछ समय पहले ही भाजपा के दिल्ली अध्यक्ष मनोज तिवारी ने भी एक महिला शिक्षक के साथ अभद्र व्यवहार किया और समाज बस फुसफुसा रहा था, मुंह पर हाथ रखकर मुस्कुरा रहा था। स्मृति ईरानी के बयान पर शरद यादव की चुटकी, निर्भया घटना पर महिलाओं के मुख़र होने पर अभिजीत मुखर्जी का ‘परकटी महिलाओं’ जैसे बयान के कई मामले हैं।

इस तरह की घटनाएं समाज की कुत्सित मानसिकता को बेनकाब तो करती ही है साथ में यह भी बताती है कि महिलाओं के साथ व्यवहारगत रूप से हम संवेदनशील नहीं हुए हैं, लोकतांत्रिक होना तो दूर की कौड़ी है। शुक्र यह है कि महिलाओं ने पितृसत्ता की इस साजिश को जल्दी समझ लिया और रूपकों और मिथकों में उलझी महिलाओं के छद्म परिवेश के खिलाफ खड़ी हो गई। तभी सोशल मीडिया पर महिलाएं अपनी खिलखिलाती हुई तस्वीर साझा कर रही हैं, एक दूसरे को टैग भी कर रही हैं कि तुम भी हंसो और खिलखिलाओं।

आधुनिक समाज में समानतावादी विचार भले ही क्रमिक रूप में आया है, पर महिलाओं के साथ समानता का विचार मौजूदा समाज में अभी तक विकसित हुआ ही नहीं है, अगर हुआ भी है तो वह काफी सीमित स्तर पर ही है। आधुनिक समाज, तमाम लोकतांत्रिक कोशिशों और कानूनों के बाद भी ज़मीनी स्तर पर महिलाएं सम्मानजनक जीवन के लिए संघर्ष कर रही है। अरे भाई! संविधान भी तो महिलाओं को समानता की गारंटी देता है। पर रूकिये ज़रा और सोचकर बताईए कि क्या सच में ऐसा कुछ हुआ है?

हमने अब तक खोखले विमर्शों को ही खड़ा किया है। हर साल लैंगिक समानता के तमाम आंकड़े संविधान की गारंटी की अलहदा ही तस्वीर बयां करते हैं।

सही है जब राजनीति और समाज के तौर तरीकों का सारा रायता ही पुरुषों ने फैलाया है तो एक स्त्री की हंसी तो झन्नाटेदार थप्पड़ की तरह लगेगी ही, स्त्री की हंसी से पुरुषों का पौरुष जो चूर-चूर हो रहा है।

भारतीय संविधान से जो कुछ भी महिलाओं को मिला है, बगैर लड़े नहीं मिला है। हर रोज़ आधी आबादी अपने उन अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही है जो संविधान ने उसे दिए हैं। मानुषी छिल्लर ने विश्व सुंदरी के अपने इंटरव्यू में घरेलू महिलाओं के कामकाज के मूल्य की बात उठाई तो वह न्यूज फ्रेम का हिस्सा ज़रूर बनी, लेकिन कुछ ही समय के लिए। समाज में आधी आबादी के काम के मूल्य को ठेंगे पर ही रखा जाता है।

आधी आबादी ने घर की चौखट लांघकर सेना, शिक्षा, चिकित्सा, खेल, समाजसेवा हर क्षेत्र में खुद की जगह बनाने के लिए लंबी जद्दोजहद की है। आधी आबादी की बराबरी पर आ जाने की सक्रियता पितृसत्तात्मक समाज को हज़म नहीं होती इसलिए उन्हें नीचा दिखाने की हर कोशिश होती रहती है। इसी मानसिकता ने तमिलनाडु विधानसभा में जयलतिता की साड़ी तक खींच ली थी।

घरेलू दायरे से बाहर निकलकर पब्लिक स्फीयर में भी महिलाओं के लिए अपनी जगह बना पाना कभी आसान नहीं रहा है। सड़कों, चौराहों यहां तक दफ्तरों में भी जेंडर से जुड़े मज़ाक, अश्लील इशारे, बेवजह हस्तक्षेप, पदोन्नति के लिए यौन प्रस्ताव आदि थोक भाव में इंतज़ार करते रहते हैं।

आज़ादी के चार दशक बाद 1992 में भंवरी देवी कांड के बाद महिलाओं का यौन उत्पीड़न राष्ट्रीय बहस का विषय बनने के बाद सरकारों के कानों में खलबली हुई और 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा गाईडलाइंस जारी की जिसे 2013 में कानून का रूप दिया गया। इसका उद्देश्य आधी आबादी को कार्य स्थल पर निडर और निष्पक्ष माहौल उपलबध कराना था। परंतु, आज कमोबेश सभी सार्वजनिक जगहों पर यौन-उत्पीड़न के मामलों को दबाया-छिपाया जा रहा है या काम करने की जगहों पर महिलाओं के चरित्र की नीलामी का बाज़ार सजा दिया गया है।

अगर महिलाएं अपने पुरुष सहकर्मी को अधिक भाव नहीं देती है तो सारी ताकत महिलओं के चरित्र चित्रण में झोंक दी जाती है। तमाम कानूनों के बाद भी पूरा माहौल उनके विरुद्ध खड़ा दिखता है, ज़ाहिर है आधी-आबादी के चरित्र पर पुरुषवादी समाज का मर्दाना-मर्दन जारी है।

मेरी एक महिला मित्र जो बैंकिग सेक्टर में कार्य रही हैं, वो अपनी महिला सहकर्मी के अनुभव के बारे में बताती हैं कि जब उन्होंने मेटरनिटी लीव का आवेदन दिया, तो वरिष्ठ पुरुष अधिकारी से जनसंख्या नियन्त्र पर उन्हें लेक्चर सुनना पड़ा। इसी तरह आधी आबादी को अपने निजी ज़रूरतों के लिए भी दफ्तरों में उत्पीड़न झेलना पड़ता है। मसलन, पीरियड्स के दौरान कामकाजी महिलाओं को विशेष परेशानी होती है, इस दौरान महिलाएं सर और पेट पकड़े काम करती रहती है, दफ्तरों के शौचालयों की स्थिति इतनी बुरी होती है कि इन्फेक्शन का खतरा बना रहता है। विश्व के कई देशों में पीरियड्स के दौरान छुट्टी दिए जाने का प्रावधान है, लेकिन हमारे यहां इस पर कोई बहस भी नहीं है।

लगता है कि आधी आबादी को सम्मानजनक जीवन की चाह में अपना संघर्ष आगे भी एक लम्बे समय तक जारी रखना पड़ेगा, क्योंकि पुरुषवादी समाज अपना डीएनए अकेले बदलने को तैयार ही नहीं है।

सोशल मीडिया पर महिलाओं ने ‘सेल्फी विद वूमन’ से ज़ाहिर कर दिया है कि वह सशक्त महिला, प्रिटी वुमन या शानदार महिला के फ्रेम में तय होने को तैयार नहीं है, वह एक समान्य महिला के रूप में अपने हकूक की मांग कर रही है।

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