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सर सरकारी स्कूल में पढाई करते हैं तो क्या किताब नहीं दीजियेगा?

बिहार के विद्यालयों में बच्चे बिना पढ़े ही अगली क्लास में जाएंगे। अगर आप सोच रहे हैं कि ये कितने काबिल बच्चे हैं या कितनी बेहतरीन शिक्षा प्रणाली है तो इस भ्रम में न रहें। ये हमारी शिक्षा व्यवस्था की खामियां हैं, जिसकी वजह से राज्य के बच्चों को बिना पुस्तक पढ़े अगली कक्षा में जाना पड़ रहा है। शायद अगले वर्ष भी कुछ ऐसा ही हो और राज्य के बच्चों को बिना किताबों के पुनः अगली कक्षा में जाने को मजबूर होना पड़े।

15 वर्ष पूर्व जब मैं माध्यमिक विद्यालय में पढ़ा करता था, तब भी यही स्थिति थी। 8 से 10 किताबें आती थी और कुछ बच्चों में बंट जाया करती थी, बाकी अपने सीनियर से मांगते थे जिन्होंने स्वयं अपने सीनियर से वो किताबें मांगी होती थी।

वो किताबें हम तक आते-आते चीथड़ों में बदल जाती थी और जिन्हें वो भी नसीब नहीं होती, उन्हें बाज़ार से खरीदनी पड़ती थी। अगर वो सक्षम नहीं तो पूरे वर्ष दूसरे की किताब में झांककर गुज़ारना होता था। विद्यालय प्रारम्भ होने के पूर्व विद्यालय परिसर में जल्द पहुंचे किसी बच्चे से किताब मांगकर गृहकार्य पूरा करना होता था।

लेकिन आज स्थिति उससे भी बद्तर हो गई है, अच्छे शिक्षकों का अभाव तो है ही साथ ही अधिकांश विद्यालयों तक किताबें पहुंच ही नहीं रही हैं। अप्रैल 2017 से शुरू हुए सत्र में नवंबर से जनवरी महीने तक बच्चों को किताब दी गई, लेकिन सभी बच्चों तक हर विषय की किताबें भी नहीं पहुंच पाई। कोई ऐसा विद्यालय नहीं जिसमें सभी विषयों की किताबें बच्चों को मिली हों। किसी विद्यालय में 40 बच्चों में 30 को हिंदी, 20 को अंग्रेजी, 25 को गणित तो 18 को सामाजिक विज्ञान की किताबें मिली हैं।

सरकार दावा कर रही है कि शिक्षा का स्तर सुधरा है और विद्यालयों में गुणवत्तापरक शिक्षा प्रदान की जा रही है, लेकिन यह कैसे संभव है जब बच्चों के पास किताबें ही नही हैं? रही बात गुणवत्ता की तो इसकी हकीकत सभी जानते हैं।

बेतिया ज़िले के विद्यालयों में नामांकित करीब 5.60 लाख बच्चे बिना किताबों के पढ़ाई कर सत्र पूरा करने को मजबूर हैं।  मोतिहारी के विद्यालयों में किताबें तो दी गई लेकिन गणित, संस्कृत और इतिहास जैसे विषयों से बच्चे नदारद हैं। दरभंगा, समस्तीपुर जैसे कई अन्य ज़िलों का भी यही हाल है। बच्चों के साथ-साथ अभिभावक भी परेशान हैं, क्योंकि अब सरकारी विद्यालयों में चलने वाली पुस्तकें बाज़ारों में भी नहीं मिलती और उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि निजी विद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ा सकें। मजबूर होकर वो अपने नौनिहालों का भविष्य खराब होते देख रहे हैं।

आलम यह है कि छोटी-छोटी बातों पर भी तलवारें तान लेने वाला विपक्ष इस पर चुप्पी साधे हुए है, क्योंकि वो जानते है कि उनके समय भी यही हालात थे।

बिहार की शिक्षा व्यवस्था को अधर में डालने में उनका भी हाथ है, साथ ही बच्चे वोट बैंक तो हैं नहीं। ये उनके लिए सत्ता की सीढ़ी नहीं बन सकते, इसलिए कोई भी नेता इस मुद्दे को प्रमुखता से नहीं उठाता। सरकार का तर्क है कि कागज़ की कमी की वजह से समय पर किताबों की छपाई नहीं हो सकी, इसलिए अगले सत्र में किताबों की जगह किताबें खरीदने के लिए धन राशि दी जाएगी, जो कि सीधे बच्चों के बैंक एकाउंट में डाली जाएगी। यह एक स्वागत योग्य कदम है, किन्तु देखना ये है कि यह योजना भी धरातल पर उतर पाती है या नहीं और ये राशि कब तक बच्चों को प्राप्त हो पाती है।

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