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क्या बजट-2018 सही में किसानों के लिए ‘खुशनुमा’ है?

मोदी सरकार में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने 1 फरवरी को बजट पेश करते हुए इस किसानों के लिए हितकारी बजट बताया और कहा कि सरकार का पूरा ध्यान गांवों और ग्रामीणों के ईज़ आॅफ लिविंग अर्थात रहन-सहन को अच्छा बनाने पर है। इसके अलावा सरकार ने बजट में घोषित स्वास्थ्य बीमा योजना को भी दुनिया की सबसे बड़ी बीमा योजना बताया।

बजट में ऐसी ढ़ेरों बाते हैं जो बजट को खुशनुमा बातों वाला बजट बनाती हैं, परंतु वास्तव में बजट का तर्कसंगत ठोस विश्लेषण खुशी को खुशफहमी बना जाता है।

बजट दावा करता है कि किसानों को डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया गया है। परंतु देश में किसानों की बढ़ती बदहाली और उनकी आत्महत्याओं का ना रुकने वाला सिलसिला सरकार के इस दावे को गलत और झूठा साबित करता है। यदि हम कृषि के विकास और बेहतर प्रदर्शन के लिए मध्य प्रदेश को उदाहरण लें तो जेटली के किसान पक्षीय बजट को समझना आसान हो सकता है। मध्य प्रदेश ने 2000-01 से 2014-15 तक कृषि क्षेत्र की जीडीपी में लगभग 10% की दर दिखाई गयी है और मध्य प्रदेश का यह बेहतरीन प्रदर्शन एक विश्व रिकाॅर्ड बन गया है।

अब इस विश्व रिकाॅर्ड बनाने वाले मध्य प्रदेश में ही दूसरे आंकड़ों पर निगाह डाले तो इस आंकड़ेबाजी पर टिके प्रदर्शन की वास्तविकता सामने आ जाती है। जहां एक तरफ कृषि क्षेत्र में अपने प्रदर्शन से मध्य प्रदेश विश्व रिकाॅर्ड बना रहा था तो वहीं दूसरी तरफ किसान लगातार आत्महत्या कर रहे थे। इसी मध्य प्रदेश में पिछले 16 सालों में 21 हज़ार किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। केवल इतना ही नहीं फरवरी 2016 से फरवरी 2017 के बीच 1982 किसान आपनी जान देने के लिए मजबूर हुए। यह वो साल था जिसमें प्रदेश में प्याज का बंपर उत्पादन हुआ और उसी प्याज उत्पादन करने वाले क्षेत्र में किसानों ने सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया जिसमें मंदसौर में पांच किसान पुलिस की गोली से मारे गए। जिस साल प्याज का बंपर उत्पादन हुआ, उसी साल सबसे ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या की।

मोदी सरकार के वित्तमंत्री 2022 तक किसानों का लाभ दोगुना करने की बात कर रहे हैं। परंतु यह किस प्रकार होगा उसकी पूरी प्रणाली और रोडमैप उनके पास नहीं है। सरकार यदि किसानों को लाभदायक न्यूनतम समर्थन मूल्य देना तय भी करती है तो उसके पास उस मूल्य पर खरीद की कोई व्यवस्था नहीं है। अभी सरकार के पास देशभर में 7 से 8 हज़ार मंडियां हैं, जबकि किसानों के उत्पादों की खरीद के लिए उसे 42 हज़ार से अधिक मंडियों की आवश्यकता है। इस बजट में सरकार 22 हजार हाटों को कृषि बज़ारों में बदलने की बात कह रही है। इसके अलावा किसानो के उत्पादों की खरीद को स्थाई बनाना और खरीद को श्रेणियों में बांटकर खरीदना भी किसानों से सुगम खरीद की राह की एक बड़ी रुकावट है। सरकार उससे कैसे निपटेेगी अभी सरकार को यह भी समझना है।

इसके अलावा जेटली ने दावा किया कि अभी भी सरकार किसानों को स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप उनकी लागत में 50 प्रतिशत जोड़कर लाभ दे रही है। जबकि यह सरकार सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कह चुकी है कि वे स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार कीमत देने में असमर्थ है। ऐसा ही बयान सरकार संसद में भी दे चुकी है और कह चुकी है कि इससे बाज़ार पर नाकारात्मक असर पड़ेगा।

दरअसल यदि सरकार किसानों का सारे उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार खरीदना तय करती है तो देश के कॉर्पोरेट घरानों को भी किसानों से प्रतिस्पर्धी दामों पर उनके उत्पादन को खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ेगा जो उनके लिए एक भारी घाटे का सौदा होगा।

यहां तक कि किसानों के उत्पादों का दाम कम करने और कॉर्पोरेट घरानों को फायदा देने के लिए ही आयात-निर्यात नीतियां भी तय की जाती हैं।

नासिक के प्याज को ही हम उदाहरण लें तो किसान की फसल के समय प्याज का दाम 1 से 2 रुपए किलो तक ही बाज़ार में रहता है परंतु सीजन निकलने पर वही प्याज 40-50 से लेकर कभी कभी 80-100 रुपए किलो तक भी पहुंचता है। इसीलिए किसानों को स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार लाभकारी मूल्य देना और उस मूल्य पर किसानों से खरीद सुनिश्चित करना एक चुनावी जुमला भर है जिसे 2014 में भाजपा के सत्ता में आने से पहले से ही दोहराया जा रहा है और अब 2019 की आहट के कारण इसे अधिक ज़ोर से दोहराया जाने लगा है।

इसके अलावा बजट भाषण में जेटली ने किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से 11 लाख करोड़ रुपए के कर्ज़ देने का वादा भी किया है। हालांकि यह कर्ज़ ही भारतीय किसान की आत्महत्या करने की असली वजह बना हुआ है। उसे और कर्ज़ से ज़्यादा पुराने कर्ज़ की माफी और अपने उत्पाद के लाभकारी मूल्य की अधिक ज़रूरत है। वैसे देश की संसद में मोदी सरकार मान चुकी है कि किसानों पर 14.5 लाख करोड़ के कर्ज़ का बोझ है। सरकार को चाहिए कि बजट में किसानों को इस कर्ज़ से मुक्त करने का प्रावधान करे।

उसके लिए सबसे पहले सरकार कर्ज़ माफी और फिर किसान को उसकी लागत पर डेढ़ गुना लाभ देना सुनिश्चित करे। जहां तक कर्ज़माफी का सवाल है किसानों के सर पर कर्ज़ की भी कई श्रेणियां है।

सरकार जब भी कर्ज़ माफी की बात करती है तो वह सरकारी बैंकों और सहकारी बैंकों के कर्ज़ की माफी की बात करती है। लेकिन किसानों के लिए सबसे खराब कर्ज़ और कहें तो जानलेवा कर्ज़ महाजनी कर्ज़ और प्राइवेट वित्तीय संस्थानों का कर्ज़ होता है, उसका आंकलन सरकार कभी करती ही नहीं है।

वित्तमंत्री ने इस बजट में राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति और सभी सांसदों के वेतन में वास्तविक बढ़ोतरी की है, परंतु देश के अन्नदाताओं को यह सुख नसीब नहीं हो पाया है। वास्तव में किसानों को भी पिछले चार साल से जारी खुशनुमा बातों की जगह वीआईपी लोगों के जैसी वास्तविक खुशी दी जाती तो ज़्यादा बेहतर था। परंतु अफसोस इस बात का है कि इन नीति निर्धारक वीआईपी लोगों के चेहरों की चमक और खुशनुमा बातें ही अन्नदाता के घरों को अंधेरे से भर रही हैं।

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