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फिल्म का नहीं, सैनटरी पैड्स का टैक्स फ्री होना ज़रूरी

padman poster

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 पिछले कई दिनों से सैनेटरी पैड हाथों में पकड़ कर सेल्फियां ली जा रही हैं, जिनमें न सिर्फ लड़कियां बल्कि लड़के भी शामिल हैं। सैनेटरी पैड अचानक से सबके लिए सहज हो गया है। लोग सहजता की बात को बड़ा ज़ोर देकर कह रहे है और उस पर खूब बहस करते भी नज़र आ रहे हैं। कोई सोशल मीडिया पर सैनेटरी पैड के साथ सेल्फी खिंचाता नजर आ रहा है, तो कोई उस पर वीडियो बनाकर कुछ बोलता हुआ नज़र आ रहा है।

लेकिन एक सवाल मेरे मन में है कि आखिर इससे पहले, इतने सालों और दशकों तक लोग पैड्स के साथ क्यों सहज नहीं थे। अचानक एक फिल्म ‘पैडमैन’ आती है, बाज़ार में कई तरह के विज्ञापन और प्रोमोशन शुरू हो जाते हैं और लोग अचानक जागरूक होने लगते हैं।

सवाल है कि हर बार किसी संवेदनशील मुद्दे को उठाने के लिए हमारे समाज को बाज़ार का मुंह क्यूं देखना पड़ता है? जब हमारा बाज़ार बात करना शुरू करता है, तभी लोग अचानक से प्रगतिशील बन जाते हैं।

पिछले दिनों रिलीज़ हुई ‘पैडमैन’ एक सत्य घटना और सत्य पात्र पर आधारित फिल्म है, जिसमें सैनेटरी पैड और माहवारी जैसे मुद्दे को उठाया गया है। फिल्म अच्छी है और मैं फिल्म का समर्थन भी करती हूं। ऐसे मुद्दों पर बात करने के लिए फिल्म तारीफ के काबिल है, जिन पर ज़्यादातर समय पर्देदारी आम होती है।

लेकिन ये फिल्म समस्या के 100 प्रतिशत के 1 प्रतिशत पर ही कार्य कर रही है, बाकी मुद्दा वैसा ही बना है जैसे वो पहले था। फिल्म निर्माण होने से बस कुछ लोग इस मुद्दे पर बात करने लगे है। वो भी ऐसे लोग जिन्होंने फिल्म के बारे में सुना है या जो फिल्म देखकर आए हैं, पर उन लोगों का क्या जो इन सबसे दूर हैं? उन्हें कैसे जागरूक किया जाए?

जहां टीवी और फिल्म देखने की सुविधा नहीं है, जहां महिलाओं को सैनेटरी पैड तो क्या कपड़े का टुकड़ा भी मुश्किल से नसीब हो पाता है और ना जाने कितनी बार उन्हें वही एक टुकड़ा बार-बार इस्तेमाल करना पड़ता है! क्या उन्हें इस मुद्दे पर जानकारी देने की ज़रूरत नहीं है?

फिल्म का प्रचार करने के लिए जब अक्षय कुमार लोगों को सैनेटरी पैड के बारे में बताते हैं, तभी हमारा समाज जागरूक होता है और इस फिल्म के प्रमोशन में ना जाने कितने सैनेटरी पैड बर्बाद कर दिए जाते हैं। हमारा समाज इंतज़ार करता है कि कोई अभिनेता आए और उन्हें जागरूक करे। जब दिल्ली के नॉर्थ कैम्पस में अक्षय कुमार ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ का झंडा उठाते हैं, उसके बाद ही कैम्पस में सैनेटरी पैड्स की मशीनें मुहैया कराई जाती हैं। क्या इससे पहले उन मशीनों की कोई ज़रूरत नहीं थी?

 सरकार ने कई सुविधाएं ‘पैडमैन’ फिल्म को दी हैं। राजस्थान समेत कई राज्यों में इस फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया गया, जबकि जीएसटी में सैनेटरी पैड्स को लग्ज़री आइटम की श्रेणी में डालकर उस पर टैक्स वसूला जा रहा है। क्या फिल्म की जगह सैनटरी पैड्स को टैक्स फ्री बनाने की ज़रूरत नहीं है?

मुझे शक है कि जो लोग सैनेटरी पैड्स के साथ देखा-देखी सेल्फी ले रहे हैं, वे इन मुद्दों पर गंभीरता से सोचते हैं। वे शायद ही यह सोचते हैं कि ग्रामीण महिलाओं को कैसे पैड्स मुहैया कराया जाएं? कैसे गरीब परिवारों तक इसकी पहुंच बन सके? मुझे शक है कि सिर्फ एक फिल्म से लोग अपने घरों में पीरियड्स के मुद्दे पर संवेदनशील हो सकते हैं। जैसे इस मुद्दे पर हज़ारों सालों से पर्देदारी होती आई, उसे देखते हुए इसे खत्म करने के लिए वैसे ही हज़ारों कदम उठाने होंगे।

मेरा उन लोगों से सवाल है जो पीरियड के सहज होने पर बहस कर रहे हैं, क्या वो अब पैड्स खरीदते समय इन्हें काली पाॅलिथिन में लेना बंद कर देंगे? ये मुद्दा बस तीन दिन गर्म रहने के बाद ठंडा नहीं पड़ना चाहिए, इस पर जैसे आज लोग प्रतिक्रिया दिखा रहे है वैसे ही आगे आने वाले समय में भी दिखानी चाहिए।

अगर आज भी हम अपने आसपास की दुकानों पर देखेंगे तो 14, 24 और 44 साल की औरतें अभी भी सैनेटरी पैड्स काली पाॅलिथिन में ही ले रही हैं। वैसे ही जैसे पिछले कई सालों से उन्हें सिखाया जाता रहा है।

मैं उन औरतों की बात कर रही हूं जो केवल वो दुकानें तलाशती हैं जहां कोई पुरुष ना बैठा हो। क्योंकि हमें बचपन से इसे छिपाए रखने की प्रक्रिया सिखाई जाती रही है और ये सब इस पुरुषवादी समाज ने ही हमें ज़ोर देकर सिखाया है ।

समाज में कई ऐसे लोग है जिन्होंने इसके सहज होने पर बात की है और इसके लिए ज़मीनी स्तर पर काम किया है और आज भी करते आ रहे हैं। हमारे समाज में महिलाओं को हमेशा सिखाया जाता रहा है कि माहवारी एक ऐसी बात है जिसके बारे में खुलकर किसी से बात नहीं कर सकते, ये एक छिपाऐ रखने वाली बात है। ये पूरा प्रशिक्षण हमें हमारी बड़ी बहनों और मांओं से मिलता आ रहा है।

हमारे समाज में आज भी माहवारी को एक रोग की तरह ही देखा जाता है। मै जिस परिवेश से आती हूं वहां आज भी औरतों को पांच दिन अलग बैठना पड़ता है। हालांकि ये पहले उनके आराम के लिए बनाई गई व्यवस्था थी, जिसे धीरे-धीरे मोड़ दिया गया और इस पर अनेकों पाबंदियां लगा दी गई। हर घर में एक कैंप चलता है जो इस पूरी प्रक्रिया को छुपाने के लिए कार्य करता है।

मेरा डर बस यही है कि बाज़ार ने पहले भी ऐसे कई मुद्दों पर बात की है पर वो बातें केवल बातों तक ही सीमित रह जाती है। ज़रूरत है बाज़ार से निकलकर सतह पर काम करने की। आप सामाजिक तौर पर ही नहीं बल्कि निजी तौर पर अपने ही घर में इस पर बात करने की शुरूआत करें और किसी फिल्म को नहीं बल्कि सैनटरी पैड्स को टैक्सफ्री करने के लिए अभियान चलाएं और उसमें शामिल हों।

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