Site icon Youth Ki Awaaz

“दुश्मन की गोलियों का सामना करेंगे, आज़ाद हैं आज़ाद ही रहेंगे”

यह तस्वीर जगरानी देवी की है, चंद्रशेखर आज़ाद की मां। टोला- मोहल्ला वाले उन्हें डकैत की मां बोलकर ताना मारा करते थे! कहते हैं कि तब इन्होंने अपनी दो उंगलियों को बांध लिया था, एक किस्म का टोटका था। आज़ाद से मिलने के बाद इसको खोलना था, लेकिन वो इसके बाद कभी आज़ाद से मिल नहीं पाईं।

27 फरवरी 1931 को अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेज़ों से लड़ते हुए आज़ाद ने खुद को गोली मार ली थी। 1947 के बाद इलाहाबाद के इस पार्क का नाम चंद्रशेखर आज़ाद पार्क रखा गया। आज़ाद की प्रतिज्ञा थी: “दुश्मन की गोलियों का सामना करेंगे, आज़ाद हैं आज़ाद ही रहेंगे।”

हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन के कमांडर इन चीफ आज़ाद को भगत, सुखदेव, राजगुरु सब लोग पंडित जी बुलाते थे। आज़ाद एक हिष्ट-पुष्ट नौजवान थे और इन सब लौंडों को हड़काकर रखते थे। अंग्रेज़ इन्हें बहरूपिया बोलते थे, वेश बदलकर कई बार आज़ाद इन्हें चकमा दे जाता था इसलिए।

आज़ाद का प्रारंभिक जीवन :

मध्यप्रदेश के झाबुआ ज़िले के भाबरा गांव में आज़ाद का जन्म हुआ था। भील बच्चों के साथ घूमा-फिरा करते थे और उन्हीं के साथ तीर-धनुष चलाना सीख लिया था। निशाना ऐसा बन चुका था कि जिस चिड़िया को तय कर लिया उसका नीचे गिरना तय था। यहीं से सटीक निशाना लगाने का उन्हें प्रशिक्षण मिल गया था। आगे चलकर एक हाथ में हमेशा ‘बम्पूलाट’ रखते थे, जिसका शिकार कई अंग्रेज़ हुए। आज़ाद अपनी बंदूक को ‘बम्पूलाट’ कहते थे। उन दिनों हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के साथी क्रांतिकारी कहते थे, “ऐसे तो बम्पूलाट छह राउंड का होता है, लेकिन पंडित जी के पास 10 राउंड का है।”

आज़ाद भाबरा से बंबई आए, जहाज पर रंगसाजी का काम मिल गया लेकिन मन नहीं लगता था। फिर परिवार में लोग चाहते थे कि वो संस्कृत पढ़ ले। सो आज़ाद बनारस आ गए और संस्कृत पाठशाला में दाखिला ले लिया।

साल 1919 जलियांवाला बाग में कत्लेआम और राष्ट्रीय आंदोलन में प्रवेश :

इसी बीच 1919 में जलियांवाला बाग में कत्लेआम हुआ, इस समय आज़ाद की उम्र 13 बरस थी। इस घटना के बाद स्वतंत्रता संग्राम में नौजवानों का एक नया बैच आया। यह बैच अलग-अलग जगहों से शामिल हुआ इनके एक लक्ष्य ने इन सबको एक-दूसरे से मिलवा दिया। इसमें आज़ाद, भगत, राजगुरु, सुखदेव इत्यादि थे।

आज़ाद जालियांवाला बाग नरसंहार के बाद स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए। साल 1921 में गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाले नौजवानों में आज़ाद भी था। आंदोलन के दौरान आज़ाद गिरफ्तार हो गए। मुकदमे के दौरान जब जज ने उनसे उनके पिता नाम पूछा तो जज की तरफ आंख में आंख डालकर कहा-

“मेरा नाम आज़ाद, पिता का नाम स्वाधीन और घर जेल खाना”

यहीं से चंद्रशेखर के नाम के साथ आज़ाद जुड़ गया। (घर वालों का दिया हुआ नाम चंद्रशेखर सीताराम तिवारी था।) इस समय आज़ाद 15 बरस के थे।

आज़ाद के जवाब से जज तिलमिला गया। जज ने आज़ाद को 15 बेंत लगाने का आदेश दिया। 10 बेंत आते- आते पीठ से खून की बूंदें नीचे आने लगी, लेकिन आत्मविश्वास में कमी नहीं आई। आज़ाद दिमाग से जितना मज़बूत था, उतना ही शरीर से भी था। प्रतिदिन दंड पेलना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। अगर आज़ाद के बंधे हुए हाथों की रस्सी खोल दी जाती तो शायद उस अवस्था में भी अंग्रेज़ों की छाती चरचरा देते!

क्रांतिकारी जीवन का आरंभ :

आज़ाद ने काशी विद्यापीठ में दाखिला लिया। यहीं से कई क्रांतिकारियों से उनका परिचय हो गया और सिलसिलेवार ढंग से उनका क्रांतिकारी जीवन आरंभ हुआ। साल 1922 में गांधी जी द्वारा अचानक असहयोग आंदोलन वापस लिया गया और सत्याग्रह से  क्रांतिकारियों का मोहभंग हुआ। अब ज़रूरत महसूस हुई एक नए संगठन की, फलस्वरूप रामप्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेशचन्द्र चटर्जी आदि ने साल 1924 में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन का कानपुर में गठन किया, आज़ाद भी इसमें शामिल हो गए। पार्टी का उद्देश्य सशस्त्र क्रान्ति को व्यवस्थित करके औपनिवेशिक शासन समाप्त करना और संघीय गणराज्य संयुक्त भारत की स्थापना करना था।

काकोरी स्टेशन पर सरकारी खज़ाने की लूट :

9 अगस्त 1925, समय आ चुका था काकोरी स्टेशन से सरकारी खज़ाना लूटने का। गाड़ी को लखनऊ से पहले काकोरी स्टेशन के समीप रोककर लूटने की योजना बनी। काकोरी लूट में आज़ाद तो पुलिस को चकमा देकर बच गए, लेकिन राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, रौशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी पकड़े गए। इन चारों को फांसी की सज़ा सुनाई गई। अशफाक उल्ला खां ने काकोरी लूट का विरोध इस तर्क के आधार पर किया था कि इस घटना के बाद अंग्रेज़ हमें जड़ से उखाड़ने में लग जाएंगे और वही हुआ! जहां-तहां धरपकड़ शुरू हो गई। दल के चार क्रान्तिकारियों को फांसी दी गई और सोलह अन्य को कैद की सज़ा देकर जेल में डाल दिया गया।

आज़ाद का अज्ञातवास :

सरकारी खज़ाने की लूट अंग्रेज़ी शासन के मुंह पर तमाचा था, पुलिस आज़ाद के पीछे लगी हुई थी। इसके बाद आज़ाद अज्ञातवास में रहने लगे, कभी साधु का वेश तो कभी भिखारी का वेश में। यहीं से अंग्रेज़ आज़ाद को बहरूपिया कहने लगे। कुछ साल तक आज़ाद के अज्ञातवास का ठिकाना झांसी रहा। मास्टर रुद्रनारायण सिंह ने उन्हें आसरा दिया और वो झांसी में एक कुटी बनाकर रहने लगे। झांसी में ही आज़ाद को सदाशिव मलकापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन जैसे अजीज़ मित्र मिले।

हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के साथ ‘सोशलिस्ट’ शब्द जुड़ना और आज़ाद को कमांडर इन चीफ बनाया जाना :

काकोरी कांड में साथियों की कुर्बानी से यह संगठन (हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन) छिन्न-भिन्न हो गया था। वक्त की मांग थी कि संगठन को पुनर्जीवित किया जाए। इसलिए आज़ाद ने भगत सिंह, भगवती चरण वोहरा, जयदेव कपूर व शिव वर्मा आदि से सम्पर्क किया। दिल्ली के फिरोज़ शाह कोटला मैदान में हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन की बैठक बुलाई गई। 8 और 9 सितम्बर 1928 को एक गुप्त बैठक की गई।

भगत सिंह की ‘भारत नौजवान सभा’ के सभी सदस्यों ने अपने संगठन का विलय हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में किया। बैठक का नेतृत्व आज़ाद ने भगत को सौंपा था और खुद बैठक में शामिल नहीं हो पाए। बैठक के दौरान ‘सोशलिस्ट’ शब्द जोड़ने से लेकर आज़ाद को ‘कमांडर इन चीफ’ बनाए जाने को लेकर घनघोर डिबेट हुई। भगत से ताबड़तोड़ सवाल पूछे जा रहे थे, लेकिन भगत की जितनी उम्र थी वो उसका दस गुना किताबें पढ़ चुका था। भगत ऊपर वाले की एक नेमत था, जिसे बीट करना मुमकिन नहीं था।

सवाल- जवाब का एक अंश :

फनीन्द्रनाथ घोष: एक आखिरी सवाल करना चाहूंगा। इस H.S.R.A (Hindustan socialist Republican Association) का कमांडर इन चीफ मि. चंद्रशेखर आज़ाद ही क्यों?

शिव वर्मा ने जवाब दिया: क्यों नहीं?

फनीन्द्रनाथ घोष: वो व्यक्ति अंग्रेज़ी की एक लाइन नहीं बोल सकता।

ललित मोहन बनर्जी: भई, कमांडर एक प्रेरणा होता है, उसका लिटरेट होना ज़रूरी है।

भगत सिंह : लिटरेट होना एक सब्जेक्टिव बात होती है, जनाब! कहीं पर वो मिशनरी स्कूल की पढ़ाई की वजह से है, तो कहीं पर ज़िदंगी के तल्ख तजुर्बों से।

और इस तरह आज़ाद कमांडर इन चीफ चुने गए और हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन में सोशलिस्ट शब्द जोड़ा गया। जहां तक जान पड़ता है, भारत में समाजवाद का पहला कदम यही था।

‘साइमन वापस जाओ’ नारे के साथ कमीशन का विरोध :

अक्टूबर 1928 साइमन कमीशन लाहौर पहुंचा। ‘साइमन वापस जाओ’ के नारे के साथ जुलूस निकाला गया जिसका नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे। सुप्रीटेंडेंट जेम्स स्कॉट ने लाठीचार्ज का आदेश दिया। पुलिस ने बेरहमी से लाठी चलाई और लाला लाजपत राय पर एक के बाद एक कई लाठियां पड़ी। 18 दिन बिस्तर पर रहने के बाद उनकी मौत हो गई। लेकिन जाते-जाते अंग्रेज़ी शासन के लिए वो कुछ बोल कर गए, “मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी।” यह तय हो गया था कि उनकी मौत का बदला लेना है। टीम तैयार हुई और काम बांट दिया गया।

लाला लाजपत राय की मौत का बदला :

17 दिसंबर 1928 का दिन था। भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर जयगोपाल अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गए जैसे कि वो खराब हो गई हो। अधिकारी के बाहर आने पर इशारा करने की ज़िम्मेदारी जयगोपाल की थी। आज़ाद DAV स्कूल की चारदीवारी के पास था। जयगोपाल ने इशारा किया और राजगुरु ने पहला वार किया। इसके बाद राजगुरु और भगत ने एक के बाद एक ताबड़तोड़ फायरिंग कर अपना बंदूक खाली कर ली। लेकिन एक चूक हो गई, मोटरसाइकल पर जेम्स स्कॉट की जगह असिस्टेंट सुप्रीटेंडेंट ऑफ पुलिस जॉन पी सांडर्स था।

अब यहां से ये लोग DAV कॉलेज (लाहौर) की तरफ बढ़े, चनन सिंह हवलदार ने इनका पीछा किया। भगत आगे बीच में चनन सिंह और पीछे राजगुरु। राजगुरु कोशिश में था कि सिपाही उसमें उलझ जाए और भगत निकल जाए। चनन सिंह सोच रहा था कि भगत को पकड़ना ब्रिटिश हुकूमत की बड़ी कामयाबी होगी। बस चनन सिंह, राजगुरु को छोड़कर भगत के पीछे भागा।

चनन सिंह भगत की तरफ हाथ बढ़ा ही रहा था कि तभी DAV कॉलेज की दीवार से एक गोली चनन सिंह को लगी, वो फिर भी आगे बढ़ा। फिर दूसरी गोली उसके पेट में लगी और वह गिर पड़ा। DAV कॉलेज की दीवार पर आज़ाद बैठे थे। गोली चलाने से पहले आज़ाद ने चनन सिंह को सावधान किया था, लेकिन नहीं मानने पर आज़ाद ने गोली चलाई और आज़ाद का निशाना कभी चूकते ही नहीं थे।

आज़ाद फिर से अज्ञातवास पर :

लाहौर- दिल्ली षडयंत्र केस चला। (लाहौर षडयंत्र मतलब सांडर्स की मौत का केस और दिल्ली षडयंत्र मतलब असेंबली में बम फेंकने का केस।) आज़ाद का आशियाना फिर उजड़ गया, सारे साथी एक के बाद एक पकड़े गए। आज़ाद ने फिर से अज्ञातवास लिया। इस बार आज़ाद बनारस, इलाहाबाद, कानपुर में घूमते रहे। पुलिस उनके पीछे लगी थी।

लाहौर षड्यंत्र में ‘तीनों’ को फांसी हुई, लेकिन आज़ाद की रीढ़ कमज़ोर नहीं हुई थी। वो अपनी धुन में था। इसी बीच वो जवाहर लाल नेहरू से भी मिले। कई जगहों पर इस बात की चर्चा की गई है कि जवाहर लाल से हुई मुलाकात में एक मसला भगत की फांसी की सज़ा का भी था। (भगत की फांसी और गांधी- नेहरू की भूमिका एक अलग डिबेट है।)

आखिरी सफर :

आज़ाद यहां से वहां भाग रहे थे। भगत-राजगुरु-सुखदेव की फांसी की तारीख का ऐलान हो चुका था। पुलिस को अब बस बहरूपिया, किसी के हाथ न आने वाला, जिसकी ‘बम्पूलाट’ ने कभी धोखा न दिया हो, आज़ाद की तलाश थी। अल्फ्रेड पार्क में आज़ाद की मौजूदगी की जानकारी किसी गद्दार ने अंग्रेज़ों को दे दी। आज़ाद खूब लड़ा लेकिन आखिरी गोली उसने खुद के लिए बचाकर राखी थी। आज़ाद की ‘बम्पूलाट’ ने इस बार भी धोखा नहीं खाया। मां की दोनों उंगली बंधी रही! “आज़ाद थे आज़ाद ही रहे!”

आज़ाद के बाद जगरानी देवी :

आज़ाद के बाद जगरानी देवी की ज़िदंगी और तकलीफ से भर गई। घनघोर आर्थिक तंगी तो पहले से थी ही वो और बढ़ती गई। आज़ाद के झांसी वाले मित्र सदाशिव मलकापुरकर उनके पास गए, जगरानी देवी की स्थिति को देखकर उनसे रहा नहीं गया और वो उन्हें अपने साथ झांसी लेकर चले आए। साल 1951 में जगरानी देवी का निधन हुआ। मलकापुरकर ने ही उनका अंतिम संस्कार किया।

नमन, श्रद्धांजलि, सलाम ये सब औपचारिकताएं हैं। ऐसा लगता है कि यह सब लिखकर जगरानी देवी की कोख का अपमान कर दूंगी!
अंत में बस इतना ही-

जगरानी देवी ज़िंदाबाद!
इंकलाब ज़िंदाबाद!

नोट: आज़ाद के जीवन और जगरानी देवी के संघर्ष और त्याग को पांच सौ-हज़ार शब्दों में नहीं समेटा जा सकता। दूसरी बात, जो बातें लिखी गईं हैं उसमें फैक्ट के साथ-साथ लिखने वाले का भाव भी शामिल है।

Exit mobile version