ईरान में पर्दा प्रथा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन तेज़ हो गया है। ईरानी युवतियां स्कार्फ उछालकर अपनी निजी ज़िंदगी में स्वतंत्रता चाहती हैं। ईरान की राजधानी तेहरान में सबसे पहले इस आन्दोलन की जनक 19 महीने के बच्चे की माँ ‘विदा मुव्हैद’ समेत 29 महिलाओं को बिना हिजाब के घूमने पर गिरफ्तार कर लिया गया है। गौतरलब है कि ईरान में सार्वजनिक रूप से शरियत कानून के अनुसार बिना हिजाब के घूमने पर पाबंदी है।
फर्ज़ कीजिये किसी देश का संविधान लगभग 200 वर्ष पहले लिखा गया था और यदि कुछ साल बाद उसमें लोगों की ज़रूरत और समय के अनुसार परिवर्तन करना पड़ जाए तो क्या उसे आस्था से जोड़कर देखा जाएगा? यदि नहीं तो फिर हम 1400 वर्ष या उससे पहले बने कानून को क्यूं आस्था के नाम पर ढोए जा रहे हैं?
सुना है इस्लामिक कानून में हिजाब अनिवार्य था, पर कब? चलो ये सवाल बुरा लग सकता है, इसे यूं समझिये कि यदि हिजाब से ही महिलाओं में शालीनता आती है तो क्यों न इसे दस-बीस साल मर्दों को पहनाया जाए! मेरे हिसाब से शालीनता की कुछ ज़रूरत वर्तमान में मर्दों को भी है।
विदा मुव्हैद ‘My Stealthy Freedom’ (मेरी छुपी हुई आज़ादी) नाम से आन्दोलन चला रही हैं, पर ‘विदा’ हम किस मुंह से तुम्हारा हौसला बढ़ाएं? हमारे यहां भी तो जींस टॉप से लोगों को दिक्कते हैं। तुम्हारे यहां उन्हें महिलाएं हिजाब में चाहिए और हमारे यहां सूट-सलवार, साड़ी या बुरके में।
विदा! तुम्हारे इस आन्दोलन से इंसानी ख्वाहिशों को दबाकर जीने वाले परेशान हो सकते हैं, लेकिन खुली हवा में चहककर जीने वाले ज़रूर राहत की सांस ले रहे होंगे। ये खबर उन्हें परेशान कर रही होगी जिन्होंने पिछले साल अदाकारा सना खान के मंगलसूत्र पहनकर सोशल मीडिया पर फोटो अपलोड करने पर उन्हें ट्रोल किया था।
विदा, तुम्हारा आन्दोलन संस्कृति के नाम पर लोगों को लठ से हांकने वाले उन लोगों को सकते में डाल सकता है, जिन्हें मोहम्मद कैफ के सूर्य नमस्कार से दिक्कत हुई थी। जिन्होंने क्रिसमस मनाने को इस्लाम के खिलाफ बताया और कहा कि एक मुस्लिम का ऐसा करना धर्म के खिलाफ है। इसके बाद रफिया नाज़ से योग के नाम पर और एक बच्ची के गीता के श्लोक गाने पर इन्हें दिक्कत हुई थी।
कल सुबह ही फेसबुक पर पढ़ रहा था, एक महाशय ने अभी से ही वेलेंटाइन डे न मनाने का ढोल गले में लटका लिया है। ये कह रहे हैं कि यह हमारी संस्कृति नहीं है। शायद उनके इस पोस्ट ने ही मुझे कीबोर्ड पर उंगलियां चलने को मजबूर किया। मैं उनके अन्य पोस्ट देखने लगा, सोचा देश में महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा, मासूम बच्चियों के बलात्कार या ऐसे ज़रूरी मुद्दों पर उनके कोई पोस्ट दिख जाएं, पर नहीं मिले। शायद इन महाशय की नज़र में ये संस्कृति के विषय नहीं होंगे।
विदा! अजीब मुल्कों में जीते हैं ना हम? जहां नफरत, हिंसा, रेप, लूट-खसोट, भ्रष्टाचार को संस्कृति समझ लिया जाता है और प्रेम, कपड़े पहनने के ढंग या भाषा में ज़रा से बदलाव को असांस्कृतिक।
क्या तुमने देखा है कभी ये संस्कृति के कथित रखवाले समाज की असल बुराइयों के खिलाफ निकलें हों?
विदा! तुम्हे तो पता ही होगा कि 70 के दशक से पहले तुम्हारे देश में हिजाब पर कोई कानून नहीं था। कुछ साल पहले जब हमारे यहां महिलाओं ने साड़ी के ऊपर ब्लाउज़ पहना तो संस्कृति के रखवाले खड़े हो चले थे, इसे अश्लील पहनावा बताया गया। बोले, ‘साहब! क्या ज़माना आ गया है पेट भी दिखता है और कमर भी।’ धीरे-धीरे वही पहनावा संस्कृति का हिस्सा बन गया। फिर जब जींस बाज़ार में आई तो ये फिर रोने लगे कि साड़ी ब्लाउज़ की अपनी संस्कृति छोड़कर महिलाएं जींस पहनने लगी हैं, सारी संस्कृति स्वाह कर दी है।
संस्कृति को इन्होने ऐसा ढोल बना दिया गया जिसे सब अपने-अपने तरीकों से बजा रहे हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि संस्कृति और भाषा समय के साथ न बदलती हो? चीज़ें बदलती हैं और हमेशा नई चीज़ें प्रचलन में आती हैं, वही चीज़ें बचती हैं जो ज़रूरी होती हैं। घाघरा हो या बुर्का, हो सकता है कि ये उस समय की मांग रही हों, लेकिन आज न तो घाघरे या बुरके में स्कूटी चल सकती और न उस पुराने पहनावे में दौड़कर मेट्रो या बस पकड़ी जा सकती है।
विदा, कितना मुश्किल है ये समझना कि कौन सी संस्कृति में प्रेम और अपने कपड़ों के ढंग की मनाही है? क्या प्रेम के नाम पर किसी अंकित सक्सेना की हत्या होना भी संस्कृति का हिस्सा है या किसी अफराजुल को गैंती से मारकर जला देना भी इसी संस्कृति के विषय का अध्याय है?
हो सकता है तर्कों और उदाहरणों के टोकरे भरकर लोग इस पोस्ट की समीक्षा करें। दो-तीन दशक पुराने उदाहरण लेकर लाल आंखों से मुझे समझाएं? पर इस नकली संस्कृति के रखवालों, देखना एक दिन आप लोगों के पास संस्कृति की खोखली बात बचेगी पर इनसे हांकी जाने वाली दुनिया की आधी आबादी उड़ जाएगी, आगे बढ़ जाएगी।
फोटो आभार: फेसबुक पेज My Stealthy Freedom