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क्या सेक्स वर्कर्स हमारे लिए बस डॉक्यूमेंट्री मैटीरियल हैं?

अबकी जो कीन्हो दाता फिर न कीजो, अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो।

सुपरहिट फिल्म ‘उमराव जान’ जिसमें रेखा जी ने बखूबी एक तवायफ का किरदार निभाया था, फिल्म ‘पाकीजा’ में मीना कुमारी ने भी एक तवायफ की ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव, उसकी व्यक्तिगत ख्वाइशों को बड़े ही उम्दा तरीके से जीवंत किया था। ‘मुगलेआज़म’ में मधुबाला ने अनारकली के किरदार को अमर बनाया, ‘चांदनी बार’ में तब्बू, ‘देवदास’ माधुरी दीक्षित और ‘देव डी’ में कल्कि कोचलिन ने तवायफ या सेक्स वर्कर के किरदार को बखूबी निभाया।

इन सभी अभिनेत्रियों ने अपनी प्रतिभा और बेहतरीन अदाकारी से उन औरतों के जीवन की ओर सभी का ध्यान खींचा जिन्हे समाज के लोग ही हाशिये पर जीवन जीने के लिए मजबूर करते हैं।

भला हो उन सभी फिल्मकारों का जिन्होंने इस विषय पर फिल्म बनाई और हम सभी का परिचय औरत के एक ऐसे रूप से करवाया जो समाज का हिस्सा होते हुए भी गुमनाम रहता है।

भारत में एशिया की सबसे बड़ा देहव्यापार का स्थान सोनागाछी (पश्चिम बंगाल) में सबसे ज़्यादा लड़कियां मानव तस्करों द्वारा बंगाल और नेपाल से लाई जाती हैं। इनमें से कई तो काफी कम उम्र में ही देह व्यापार में धकेल दी जाती हैं। मुंबई के डांस बार में लड़कियों का व्यापार भी कुछ ऐसा ही है जो बाहर से बहुत ही चकाचौंध से भरा हुआ दिखता है, लेकिन इसमें काम करने वाली महिलाओं को अंधकार के सिवा कुछ हासिल नहीं होता।

लोगों को कॉल गर्ल को गलत निगाहों से देखने, उनके साथ बुरा बर्ताव करने और उनकी ज़िंदगी के बारे में चटखारे लेकर बात करने से शायद अच्छी अनुभूति होती होगी। शायद उन्हें खुद को सभ्य समाज से होने में गर्व महसूस होता होगा, लेकिन वो यह क्यूं भूल जाते हैं कि कॉल गर्ल या सेक्स वर्कर भी उनकी तरह ही एक इंसान होती हैं। उसकी भी अपनी ज़िंदगी होती है, पसंद-नापसंद, इच्छाएं और सपने होते हैं। जिंदगी जीने का हक उसे भी है, एक इंसान, एक औरत होने के नाते सम्मान से जीने का संवैधानिक अधिकार उसे भी है।

सदियों से लोगों ने अपनी कुंठित सोच और झूठे अहम की वजह से सेक्स वर्कर्स को एक अलग दुनिया का हिस्सा बना रखा है। शॉर्ट फिल्म ‘अभिसारिका’ समाज के उन लोगों की सोच बदलने में काफी कारगर साबित हो सकती है जो सेक्स वर्कर के बारे में बस चटकारे लेकर पढ़ना चाहते हैं, उनके जीवन पर फिल्में देखना चाहते हैं, उनके बारे में सब जानना चाहते हैं लेकिन उनकी तकलीफ को समझना नहीं चाहते।

फिल्म के एक दृश्य में एक सेक्स वर्कर से पूछा जाता है कि तुम्हे रेप का डर नहीं लगता है?

जवाब में सामने आने वाली लड़की की भावनाएं समाज के मुंह पर एक करारा तमाचा है, जो कुछ इस तरह है-

औरतों का रेप तो उनके पति भी करते हैं। कॉलगर्ल को इज्ज़त उतरने से नहीं इज्ज़त मिलने से डर लगता है। लड़कियों का रेप समाज के लोग कभी खुलेआम निगाहों से करते हैं तो कभी बंद कमरों के अंदर। रोज़ाना जाने कितने लोग हमारा इंटरव्यू लेते हैं, सबके वही एक जैसे सवाल- अपनी मर्ज़ी से इस व्यापार में आई हो या कोई जबरन लाया है? इस काम में मज़ा आता है क्या? और भी बहुत से ऐसे ही सवाल पूछते हैं।

कोई कभी ये नहीं पूछता कि इस दलदल में जहां तुम्हारा कोई अपना साथ नहीं होता, तुम्हारा जहां कोई भविष्य नहीं होता, वहां तुम्हें कैसा महसूस होता है? तुम्हें डर नहीं लगता इन अंतहीन अंधेरों से? कोई तुम्हें खुद में अच्छा महसूस करने, खुश रहने का मौका देता है क्या?

कॉल गर्ल के जीवन के ऊपर भारत के साथ विदेशों में भी डॉक्यूमेंट्री बनती हैं, हम पर मूवी बनाकर लोगों को अवॉर्ड मिलते हैं, प्रसिद्धि मिलती हैं,लेकिन हमें कोई अवॉर्ड क्यों नहीं मिलता? कोई हमें उस सफलता का श्रेय क्यों नहीं देता? लोग अपने घर की औरतों के ऊपर फिल्म क्यों नहीं बनाते? सबको ऐसा क्यों लगता हैं कि हम बाज़ार में बिकते हैं तो हम उनसे अलग हैं? जो औरतें घरों में रहती हैं वो देवी हैं और जो बाज़ारों में बिकती हैं वो देवदासी? ऐसी दोहरी शब्दावली हमारे लिए ही क्यों?”

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