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अपने बुरे दौर में खुश तस्वीरें साझा करने पर एहसास हुआ कि सोशल मीडिया हमें बीमार कर चुका है

अक्सर मैं किसी सोशल गैदरिंग में जाता हूं या यार दोस्त मिलते हैं तो कहते हैं यार तुम्हें देखकर जलन होती है। तुम इतना घूमते हो, तुम इतना खुश कैसे रह लेते हो, वगैरह, वगैरह। लेकिन पिछले एक साल से मैं काफी बुरे समय में रहा। मानसिक स्थिति अच्छी नहीं रही। काउंसलिंग करवाता रहा। इस दौरान भी जो लोग मिले उन्होंने ऐसी ही बात कही, अजीब लगा। फिर अपने टाइमलाइन चेक किया और समझ में आया कि मैं इन दिनों जब सबसे परेशान था, तब सबसे खुश तस्वीरें साझा कर रहा था। मुझे धक्का लगा, लगा कि मैं एक झूठ जी रहा हूं, एक झूठ फैला रहा हूं। काफी सोचने पर इस नतीजे पर पहुंचा कि यह दिक्कत मेरी कम बल्कि मेरी पीढ़ी की, फेसबुक की या फिर सोशल मीडिया के स्ट्रक्चर की ज्यादा है।

दरअसल हम बहुत जल्दी में रहते हैं। सोशल मीडिया को ज़िंदगी का इतना बड़ा हिस्सा बना लिया है कि ज़िंदगी ही कम पड़ने लगी है। सुबह उठो फेसबुक चेक करो, कभी फेसबुक से चटो तो ट्विटर है, इन्सटाग्राम है, टंबलर है। मतलब आपको घेरने की पूरी तैयारी है। आप इंटरनेट से बचकर कहीं जा नहीं सकते। आपको टंबलर से उतारा जायेगा तो आप व्हॉट्सअप पर आ जायेंगे। लेकिन बने रहेंगे।

हम सबको थोड़ा रुकने की ज़रुरत है। खुद से यह पूछने की ज़रुरत है कि जब हम अपनी ज़िंदगी के अंतिम दिनों में होंगे तो क्या इस बात पर अफसोस करेंगे कि हमें थोड़ा और फेसबुक करना चाहिए था, हमें थोड़ा और अपनी तस्वीरें पोस्ट करनी चाहिए थी?

हममें से अधिकतर का जवाब शायद होगा नहीं। हम शायद ही इस बारे में सोचेंगे। अगर हमारा जवाब ना है तो  फिर अपनी रोज़ की ज़िंदगी के चार-चार घंटे कैसे सोशल मीडिया और मोबाइल फोन पर खर्च कर रहे हैं।

हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स पर एक आर्टिकल पढ़ रहा था, जिसमें बताया गया है कि आखिर क्यों हमें अपने फोन से एक स्वस्थ रिश्ता बनाने की ज़रुरत है। इसका मतलब यह नहीं कि हम फोन छोड़ दें, सोशल मीडिया पर अपनी बात रखनी बंद कर दें, लेकिन हां इसके निजी जीवन में इस्तेमाल पर एक अंकुश लगाने का वक्त आ गया है।

न्यूयॉर्क टाइम्स के आर्टिकल में इस बात पर अच्छे से पड़ताल किया गया है। उसमें बताया गया है कि आखिर क्यों ज़्यादातर सोशल मीडिया मुफ्त सर्विस दे रही है। इसका सीधा मतलब है कि वो चाहते हैं आप ज्यादा से ज्यादा समय उनके प्लेटफॉर्म पर बितायें, जिससे कि विज्ञापन देने वालों को आपको सामान बेचने में आसानी होगी।

अभी हाल ही में फेसबुक, गुगल सहित दुनिया के बेहतरीन तकनीकी कंपनियों में काम कर चुके पूर्व कर्मचारियों ने मिलकर एक संस्था बनायी सेन्टर फॉर ह्मयूमेन टेक्नोलॉजी। संस्था दुनियाभर में तकनीक और सोशल मीडिया के बढ़ रहे कुप्रभाव के खिलाफ अभियान चला रही है।

कई रिपोर्ट यह बताती है कि फेसबुक, इन्सटाग्राम जैसे सोशल नेटवर्क लोगों में अवसाद, नींद न आना, अकेलापन जैसे चीजों को बढ़ा रही है। बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर इसका खासा बुरा प्रभाव पड़ता है। सोशल मीडिया का बुरा असर सामाजिक ताने-बाने पर भी देखने को मिल रहा है। लोग एक-दूसरे से तुलना करके, लाइक और शेयर की वजह से आपसी रिश्ते को खत्म कर रहे हैं। एक कमरे में पूरा परिवार एक साथ बैठने के बावजूद आपस में बात करने की बजाय अपने-अपने मोबाइल फोन में लगे रहते हैं का दृश्य अब आम हो चला है।

बात सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर होने वाले नुकसान का नहीं है बल्कि एक लोकतांत्रिक समाज के लिये भी सोशल मीडिया खतरनाक हो चला है। फेक न्यूज, फेक प्रोफाइल से गाली देना, महिलाओं को टारगेट करना, अफवाहें फैलाना, एक समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाना और सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर अपने विचार या पार्टी के पक्ष में जनमत को मोड़ना जैसी चीजें आम हो चली हैं। जो किसी भी लोकतंत्र और खासकर भारत जैसे देश के लिये खतरनाक है जहां आज भी गरीबी, भूखमरी जैसी समस्याएं आम हैं। जितना हमारा लोकतंत्र सोशल मीडिया आधारित होगा उतना ही एक बड़ा सुविधाविहीन समुदाय हमारी व्यवस्था से दूर चला जायेगा।

अभी यूरोप में फेसबुक ने बच्चों को मैसेंजर से कनेक्ट करने के लिये एप्प लॉन्च किया है, जिसका बड़े पैमाने पर विरोध भी किया गया। पूरी दुनिया सोशल मीडिया के बुरे चपेट में फँस गया है।

सोशल मीडिया ने बीमार बना दिया है, एडिक्टेड। कोई गाली दे रहा है, कोई नफरत फैलाने वाला मैसेज फॉरवर्ड कर रहा है, कोई घृणा से भरे वीडियो साझा कर रहा है। एक अजीब तरह की दुनिया बना दी गयी है- जहां प्रेम रेयर है, जहां आदमी होने की बेसिक तमीज रेयर है, जहां आपको इन्सान नहीं बनने दिया जा रहा है, जहां आप हमेशा शक के घेरे में हैं। आप संदिग्ध बना दिये गए हैं।

हालांकि हम सब कभी न कभी यह सोचते हैं कि हमें फोन पर कम समय गुजारना चाहिए लेकिन हम यह नहीं सोचते कि हमें ज़्यादा से ज़्यादा समय उन चीज़ों पर खर्च करना चाहिए जो हमें जीवन में सच्ची खुशी देते हैं मसलन दोस्तों के साथ गप्प करना, किसी के लिये चाय बनाना, धूप में बैठे रहना या फिर किताबें पढ़ना और खेलना। वह कुछ भी हो सकता है।

हमें खुद से सवाल करना चाहिए कि हमें सच्ची खुशी क्या देता है? बस इतना ख्याल रहे कि इस सवाल के जवाब से पहले हमें सोशल मीडिया खा न जाये!

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