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खुद छात्र आंदोलन से चमके बिहार के नेता क्यूं बन गए छात्र राजनीति के विरोधी?

राज्यपाल के निर्देश के बाद बिहार के विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव की सुगबुगाहट देखी जा सकती है। पटना यूनिवर्सिटी ने तेज़ी दिखाते हुए चुनाव की प्रक्रिया पूरी कर ली और परिणाम भी घोषित कर दिए। इस प्रकार पीयू में एक बार फिर से छात्रसंघ के गठन की आशा की जा सकती है। चांसलर के आदेश में सभी जगहों पर तय सीमा के भीतर चुनाव की बात कही गई है। अगर अन्य विश्वविद्यालय भी चुनाव कराने में सफल होते हैं तो कुछ-एक जगह पहली बार निर्वाचित छात्रसंघ आकार लेंगे।

राजभवन का यह आदेश छात्र नेताओं के लिए यह किसी सौगात से कम नहीं है। वैसे तो पटना यूनिवर्सिटी एक्ट-1976 और बिहार स्टेट यूनिवर्सिटी एक्ट-1976 दोनों ही के मुताबिक हर साल छात्रसंघ चुनाव कराने के कानूनी प्रावधान हैं। पर इस कानून को भी अन्य कानूनों की तरह कागज़ तक ही सीमित रखा गया। उच्च शिक्षा के वर्तमान प्रशासनिक ढांचे में छात्रसंघ का चुनाव एक तरह से राज्य सरकार की मर्ज़ी पर निर्भर करता है।

हालांकि यूजीसी से संबद्ध संस्थानों में छात्रसंघ का चुनाव आवश्यक है और छात्र संगठनों द्वारा भी इसकी मांग हमेशा से होती रही है, पर कभी राज्य सरकार अड़ंगा लगा देती है, तो कभी विश्वविद्यालय प्रशासन असमर्थता ज़ाहिर कर देता है। छात्रों पर दोष मढ़ना तो वैसे भी आसान होता है। नतीजा यह कि वर्तमान में बिहार की किसी भी यूनिवर्सिटी में छात्रसंघ चुनाव का कोई मॉडल नहीं है। सरकार के इसी ढुलमुल रवैये की देन है कि आज राज्य की अधिकांश यूनिवर्सिटियां गुमनामी में जीने को अभिशप्त हैं।

भारत में छात्र राजनीति के पक्ष और विपक्ष में कई दलीलें दी जाती रही हैं। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि कैम्पसों में होने वाली राजनीति- जातीय हिंसा और नफरत को बढ़ावा देती है, इस हिसाब से तो आम चुनाव समेत राज्यों के चुनाव भी बंद हो जाने चाहिए। वैसे ये छात्र राजनीति की ही खास किस्म की खामियां नहीं है, बल्कि वर्तमान राजनीति का चरित्र ही ऐसा है।

यहां सवाल चुनाव कराने के फायदे या नुकसान का नहीं, बल्कि चुनाव के ज़रिये लोकतंत्र की संस्कृति को बचाने और बनाने का है। आखिर लोकतंत्र का मतलब सिर्फ लाइनों में खड़े होकर ईवीएम का बटन दबाना तो नहीं है।

लोकतंत्र का मतलब अलग-अलग मतों, मान्यताओं, धारणाओं को वाद-विवाद और संवाद के ज़रिये सुलझाना है, गलतियों से सीखना और निर्णय प्रक्रिया में सहभागी बनाकर सामूहिकता का निर्माण करना है। इस मायने में कैंपस चुनाव हमें जोड़ने का ज़रिया हो सकता है। सीखने का अवसर हो सकता है।

बिहार में राजनीति और छात्र राजनीति का संबंध जानना रोचक है। इसे समझने के लिए बिहार में छात्रसंघ का इतिहास जानना ज़रूरी है। पटना यूनिवर्सिटी का यह चुनाव 6 साल बाद हुआ है। इससे पहले 2012 में आशीष सिन्हा चुनाव जीतने में कामयाब रहे थे। बिहार में पहली बार छात्रसंघ का चुनाव 1959 में हुआ था। इस चुनाव के साथ ही स्वतंत्र भारत के बिहार में पहला छात्रसंघ का गठन हुआ था। तब इसके उद्घाटन में तत्कालीन रक्षा मंत्री वी.के. कृष्णा मेनन आए थे।

1973 में लालू प्रसाद यादव, पटना यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ अध्यक्ष चुने गए। इसी वर्ष सुशील मोदी और रविशंकर प्रसाद भी अलग-अलग पदों के पर चुने गए थे। यह घटना बिहार की राजनीति में युगांतरकारी साबित हुई, जेपी आंदोलन ने छात्र राजनीति को हवा दी। आज़ादी के बाद बिहार में राजनेताओं की दूसरी पीढ़ी, छात्र आंदोलनों की ही देन है।

जैसे ट्रेन में सवार होने के बाद दरवाज़े बंद कर दिए जाते हैं ताकि और लोग उस डिब्बे में सवारी न कर सके, इसी तर्ज पर छात्र राजनीति से उपजे नेताओं ने भी खुद को राजनीति में स्थापित कर लेने के बाद छात्रसंघ के चुनाव बंद करवा दिए। यह बड़े ही सुनियोजित तरीके से किया गया। बाद के वर्षों में अनिल कुमार शर्मा (1980), शम्भू शर्मा और रणवीर नंदन शर्मा 1984 में क्रमशः अध्यक्ष और महासचिव चुने गए। एक तरह से देखें तो आज के बिहार के शीर्ष नेता, पटना यूनिवर्सिटी छात्रसंघ की उपज हैं। 1984 में जब कांग्रेस की सरकार आई तो उसने भी चुनाव पर ताले लगा दिए और जेपी आंदोलन से सत्ता की सीढ़ियां चढ़कर आए नेताओं ने भी छात्रसंघ चुनाव को बंद ही रखा।

मेरा मानना है कि तमाम गुण-दोष के बावजूद छात्र राजनीति और छात्रसंघ के चुनाव नियमित रूप से होने चाहिए। जब तक हम छात्रों को चुनने और चुने जाने का मौका नहीं देंगे, स्थानीय नेतृत्व को पनपने नहीं देंगे, राजनीति का रिमोट कंट्रोल दिल्ली ही बना रहेगा।

सैद्धांतिक रूप से विश्वविद्यालय का विचार दुनिया को बेहतर बनाने की प्रयोगशाला है। अगर दुनिया के अच्छे विचार या सिद्धांत, विश्वविद्यालय में स्थान नहीं पाते हैं, व्यवहार में लाकर उन्हें परखा नहीं जाता तो उसे विश्व का विद्यालय नहीं कहा जा सकता।

ऐसे विश्वविद्यालय डिग्रियां तो बाटेंगे पर पंगु नागरिक ही पैदा करेंगे। तमाम खामियों के बाद अगर राज्यों के चुनाव करवाए जा सकते हैं तो छात्रसंघ के चुनाव करने में क्या हर्ज़ है? अगर शिक्षा और रोज़गार आज की समस्या है तो इसका राजनीतिकरण करके ही हल निकाला जा सकता है। यह कहना कि छात्र राजनीति कैंपस का अकादमिक माहौल खराब करती हैं, जंचती नहीं है।

देश के अधिकांश अच्छे शिक्षण संस्थानों में छात्रसंघ के नियमित चुनाव होते रहे हैं। फिर कैम्पसों में चुनाव नहीं भी होते हैं तब भी छात्र राजनीति होती है। तब छात्र अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के पिछलग्गू बनकर उनकी बेगारी करते हैं। चुनाव कराने का फायदा यह होगा कि लोकतान्त्रिक तरीके से जीतकर आने वाले छात्र को ज़िम्मेदारी का एहसास होगा, उनमें नेतृत्व का विकास होगा। छात्र राजनीति को छात्रहित में बने रहने के लिए उन्हें राजनीतिक पार्टियों की जद से भी बाहर आना होगा।

बिहार में छात्रसंघ चुनाव की ज़रूरत इसलिए भी अधिक है कि इसके ज़रिये छात्र अपनी स्वतंत्र पहचान बना पाएंगे और उन्हें आज के नेताओं की राजनीतिक गुलामी नहीं करनी पड़ेगी।

आशा है इन चुनावों से बिहार में छात्र राजनीति का सूर्योदय होगा। यदि छात्रसंघ पर फिर से ग्रहण नहीं लग जाता है तो आने वाले समय की राजनीति में बेहतरी की उम्मीद की जा सकती है।

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