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तो क्या सरदार पटेल ने त्याग दिया था कश्मीर के भारत में विलय का विचार?

तमाम सुनियोजित कोशिशों और धारणाओं की देन है कि कश्मीर विवाद का नाम सुनते ही ज़हन में देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के असफलता का प्रतिबिम्ब उभरने लगता है। नागरिक सोच कर व्यथित हो उठते हैं कि काश उस विवाद पर समझौता का अवसर देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को मिला होता तो आज कश्मीर और पाक-अधिकृत कश्मीर भी भारत में ही होता।

किन्तु मामला केवल उस व्यथित विचलन के कल्पना भर का नहीं है। बल्कि मामला इतिहास के सच्चे शोध और तथ्यात्मक संदर्भों को जानने की आवश्यकता का भी है। इतिहास का काल स्वर्णिम हो या भयावह किन्तु वह होता कालजयी ही है। कुछ विशेष वैचारिक परिधि के भीतरी लोग जिनकी ऐतिहासिक जानकारियां तथ्यहीन होती है लेकिन इतिहास के शोधार्थी होने का दावा भी करते है।

दरअसल गलती उनके ऐतिहासिक बोध को लेकर नहीं है बल्कि गलती उनके उस आलसपन को लेकर जो उन्हें संदर्भ ग्रंथों के पृष्ठों को पलटने से रोकती है। इस कारण विमूढ़ों के अतार्किक तर्जुमाओं का अनुसरण करना ज्यादा मुनासिब समझते हैं। मसलन ऐसा कुटिल ज्ञान ही इन्हें कुपमंडूक बना देता है।

इसी कश्मीर के समझौता बनाम विवाद के मसले पर एक तथ्यात्मक संदर्भ आपलोगों से साझा कर रहा हूं। भाजपा नेता व भारतीय विदेश राज्यमंत्री एम.जे.अकबर ने 1991 में एक पुस्तक लिखी है। पुस्तक का नाम है “कश्मीर बिहाइंड द वेल” जिसके पेज संख्या ’95’ पर उन्होंने लिखा है-

पटेल और नेहरू में कश्मीर को लेकर महत्वपूर्ण मतभेद था। पटेल साम्प्रदायिक विभाजन के मद्देनज़र मानसिक रूप से कश्मीर को भारत में शामिल करने का विचार त्याग चुके थे। लेकिन शेर-ए-कश्मीर ‘शेख अब्दुल्ला’ के कारण पंडित जवाहरलाल नेहरू कश्मीर को भारत में शामिल करने के लिए ऐड़ी-चोटी एक कर चुके थे।

इस पुस्तक के लेखक एम जे अकबर मौजूदा वक्त में भाजपा दल से राज्यसभा सांसद हैं और भारत के केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री भी हैं। उन्होंने तकरीबन 10 पुस्तकें लिखी हैं। उन्होंने राष्ट्रीय से लेकर अंतराष्ट्रीय अखबारों के वरिष्ठतम अथवा संपादक पद पर पत्रकारिता की है। उन्होंने पुस्तक में तथ्यों और तर्कों को संदर्भों के साथ चिन्हित किया है। लिहाज़ा यदि उनके उपर्युक्त संप्रेषित तथ्यों पर ऐतबार किया जाता है तो क्या उनके पार्टी के विचारक उनके तथ्यों को सही मानेंगे। क्या वो लोग कश्मीर विवाद का ठीकरा नेहरू पर फोड़ने से बचेंगे या फिर अभी भी पटेल को समझौता न करने देने के मलाल से नेहरू को ही कोसेंगे। इस अंतर्विरोध और द्वंदात्मक चयन के क्या मायने निकाले जाएं।

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