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हम प्रेम के उत्सव के गुनाहगार लोग हैं

मानवीय सभ्यता के लिए ढाई आखर का शब्द ‘प्रेम’ पहेली बना हुआ है, जबकि काव्यों, कहानियों और फिल्मों ने सबसे अधिक शब्द, प्रेम पर ही खर्च किए हैं। बाज़ार ने इज़हार-ए-इश्क में कोई कसर नहीं छोड़ी है, सूचना क्रांति के मौजूदा दौर में इज़हार-ए-इश्क के लिए सुरक्षित ठिकानों की तलाश खत्म हो चुकी है।

समय के बदलाव के साथ यह धीरे-धीरे समाज के निचले स्तर तक भी पहुंच रहा है। प्रेम ने खुद को भी बदल लिया, अब वो ‘अमर प्रेम’ और ‘दिल एक मंदिर’ से बदलकर ‘प्यार का पंचनामा’ और ‘प्यार के साइड इफेक्ट’ तक का सफ़र तय कर चुका है। सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी बदलावों ने प्रेम को बदल दिया है, अगर कुछ नहीं बदला है तो वो है समाज में प्रेम को लेकर मान्यताएं। एक ऐसा समाज जिसमें विवाह, वर्ण व्यवस्था को टिकाए रखने का पुरातन और सबसे कारगर उपाय रहा है।

वह तमाम कविता, कहानियों, गीत-संगीत और सिनेमा में मौजूद प्रेम को टुकुर-टुकुर निहारता है, गुनगुनाता है, पीड़ा का अनुभव करता है और फिर चौकन्ना होकर अपने जीवन के सामंती ढांचे में लौट आता है।

समय के साथ चीज़ें बदलती रही, पर भारतीय मानस ना बदल सका। प्रेम को शहर की आधुनिकता या गांव के पिछड़ेपन की कसौटी पर आकंना बेवकूफी है, क्योंकि अगर गांव का मिज़ाज सामंतीपन को ओढ़े हुए है तो शहर का मिज़ाज तमाम मैट्रिमोनियल साइट्स या फिर किसी अखबार के मैट्रिमोनियल सेक्शन में सिमटा हुआ है। गांव-देहात का इश्क अगर पगड़ी की चौधराहट में दबा हुआ है तो शहरी इश्क भी कलफ किए हुए कपड़ों की तरह रौबदार बना हुआ है, आसान शब्द का इस्तेमाल करूं तो घोर कास्टिस्ट है।

इश्क को अपने शीशमहल को बचाए रखने के लिए कई चेक पॉइंट्स से गुज़रना पड़ता है। मसलन वह दूसरी जाति का न हो, वह दूसरे धर्म का न हो और वह समान लिंग का भी न हो।

इन सब से अगर वह बच गया तो इश्क का शीशमहल कभी तेज़ाब के हमलों का शिकार है तो कभी प्रेमिका के पूरे वजूद को ही निगलने को तैयार है। ज़ाहिर है कि इश्क के शीशमहल ने लोगों के स्वतंत्र विकास की मौलिक और सम्यक राह खोजी ही नहीं है।

रिजवानुर रहमान, अंकित सक्सेना, हादिया या प्रणय के पहले भी अॉनर किलिंग और प्रेम पर पाबंदियां लगाने के कई मामले हैं, जिन पर इश्क विरोधी ब्रिगेड के ठेकेदार गर्व करते है। इन बढ़ते हुए आकंड़ों को देखते हुए देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था तक को कहना पड़ा कि-

“अगर दो बालिग शादी करने का फैसला करते हैं तो उसमें कोई कोर्ट दखल नहीं दे सकता। कोई समाज, कोई पंचायत या कोई व्यक्ति उनकी शादी में दखल नहीं दे सकता है।”

इसका जवाब इतना झन्नाटेदार है कि मानवीय मूल्य सदमें में है, जवाब में कहा गया –

“हमारे मामले में दखल दिया गया तो हम लड़कियों को पैदा ही नहीं होने देगे। उन्हें पढ़ने-लिखने नहीं देगे, ताकि वो ऐसे फैसले खुद ले ही न पाएं।”

आज ज़रूरत इस बात की है कि अगर हम प्रेम का उत्सव वैलेंटाइन दिवस मना रहे हैं तो पूरे जोश के साथ मनाएं। उन लोगों के साथ खड़े होकर जो जाति, धर्म और ईगो की चौधराहट को तोड़कर मोहब्बत करते हैं। प्यार का कोई भी उत्सव जाति, धर्म, जेंडर और ईगो के बीच बंटा हुआ नहीं होना चाहिए। नहीं तो इश्क के शीशमहल में नफरत, ईर्ष्या, धोखा, पीड़ा सब साथ में होंगे और अगर कुछ नहीं होगा तो वो है प्रेम का ठहरा हुआ नाजुक स्वभाव। आस्कर वाइल्ड के शब्दों को उधार लूं तो-

“जिस तरह सूर्य के बगैर बगीचे में फूल मुरझा जाते हैं, ठीक उसी तरह प्रेम बिना जीवन भी नीरस हो जाता है।”

 

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