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महिलाओं के प्रति हमारे पूर्वाग्रहों को तोड़ती महिला बस कंडक्टर

‘टिकट…टिकट…टिकट!’ अब तक मैं यह पुरुषों की आवाज़ में ही सुनती आई थी, पर उस दिन किसी महिला की आवाज़ में यह सुनते ही मेरा मुड़ कर पीछे पलटना स्वाभाविक था। देखा तो हाथ में e-PoS मशीन और कंधे पर तिरछी स्टाइल में एक बैग लटकाए एक महिला लोगों के टिकट काट रही है। मेरे लिए यह नज़ारा यह बिल्कुल ही नया था। अब तक पुरुष कंडक्टरों को ही टिकट काटते और टिकट न लेने वालों पर चीखते-चिल्लाते देखती आई थी।

इस फील्ड में भी महिलाओं ने सेंधमारी कर ली है, यह मुझे पता नहीं था। एक ओर जहां यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ, वहीं दूसरी ओर बेहद खुशी भी हुई कि धीरे-धीरे ही सही, पर महिलाएं ऐसे क्षेत्रों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही हैं, जिन्हें पुरुष अपना एकछत्र साम्राज्य मानते  थे।

यह सोचकर भी दिल को सुकून भी मिला कि चलो, इसी बहाने महिलाओं को पुरुष कंडक्टर्स द्वारा की जाने वाली अभद्रता से भी कुछ राहत मिलेगी।

यह पिछले साल की घटना है, जब किसी ज़रूरी काम से मैं दिल्ली गई थी, मैं उस वक्त डीटीसी की बस में सफर कर रही थी। बस की टिकट लेकर मैं जैसे ही अपनी सीट पर बैठी, मेरे मन में महिला बस कंडक्टर्स के बारे में जानने की जिज्ञासा पैदा हुई।

देश को पहली महिला बस कंडक्टर:

एशियन गेम्स-1982 के दौरान पहली बार महिलाओं ने पुरुषों के वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में घुसपैठ की थी। उस समय डीटीसी के कई रूटों में बसों में महिला बस कंडक्टर्स की नियुक्ति की गई थी। बाद में उन्हें ऑफिस जॉब में शिफ्ट कर दिया गया, इसके बाद 2010 में कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान महिला स्पेशल बसों में महिला कंडक्टर्स को नियुक्त किया गया।

इसके बाद साल 2016 में डीटीसी ने विशेष रूप से महिला बस कंडक्टर्स की नियुक्ति के लिए विभागीय वैकेंसी निकाली। इसके लिए सात महिलाओं ने आवेदन किया था, पर अंतिम रूप से चुनी गई केवल एक। फिलहाल डीटीसी में लगभग ढाई सौ महिला बस कंडक्टर नियुक्त हैं। दिल्ली के अलावा पंजाब, हरियाणा, यूपी, हिमाचल प्रदेश, कर्णाटक और तमिलनाडु आदि राज्यों के कुछ प्रमुख शहरों में भी महिला बस कंडक्टर नियुक्त हैं।

बिहार-झारखंड की स्थिति कुछ खास नहीं:

मैं यह जानना चाहती थी कि अपने राज्य की वो ‘लीडिंग लेडीज’ कौन है, क्योंकि मेरी जानकारी के अनुसार, बिहार की राजधानी पटना में महिलाओं के लिए सात रूटों पर पहली बार 15 मई 2011 को पिंक बस की शुरुआत की गई थी। इस तरह कुल सात महिला बस कंडक्टरों की नियुक्ति की गई लेकिन घाटे में आने की वजह से इससे 15 दिसंबर 2011 के बाद से बंद ही कर दिया गया।

विभागीय अधिकारियों से बात करने पर पता चला कि फिलहाल पिछले साल से पटना विश्वविद्यालय से सगुना मोड़ तक दो महिला स्पेशल बसों का परिचालन किया जा रहा है। दोनों ही बसों में महिला कंडक्टर ही नियुक्त हैं, जबकि ड्राइवर की सीट पर अब भी पुरुष ही विराजमान हैं। दिल्ली में भी अब तक मात्र एक ही महिला बस ड्राइवर है।

दूसरी तरफ झारखंड की बात करें, तो यहां अब तक राज्य परिवहन विभाग का ही गठन नहीं किया गया है। जो भी बसें चलती हैं, उसके लिए विभिन्न निजी एजेंसियों को ठेका दिया जाता है। उनमें ड्राइवर और कंडक्टर्स की नियुक्ति की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं की होती है। हालांकि रांची में 4 अक्टूबर, 2013 को महिला स्पेशल सिटी बस की शुरुआत की गयी थी, लेकिन एक माह बाद ही इसे ब्रेक डाउन होने के कारण बंद कर दिया गया। जमशेदपुर और धनबाद में महिला स्पेशल बसें अब भी चलाई जा रही हैं।

कहने का मतलब यह कि जिस जेाश से विभिन्न राज्यों में महिला स्पेशल बसें चलाने या महिला बस कंडक्टरों को नियुक्त करने की प्रक्रिया शुरू की गयी थी, उसकी तुलना में सफलता का स्तर संतोषजनक नहीं माना जा सकता। कारण साफ है- हमारे भारतीय समाज की बेटियों को लेकर अतिरिक्त सतर्कता बरतने की हमारी मानसिकता।

दरअसल हमारे भारतीय समाज की सबसे बड़ी प्रॉब्लम यह है कि हम अपनी बेटियों को हद से ज़्यादा सेफ ज़ोन में रखने की कोशिश करते हैं। हर मां-बाप को ऐसा लगता है कि उनकी बेटियां छुई-मुई हैं।

उन्हें लगता है कि वो कोई हार्ड कोर वर्क कर ही नहीं पाएंगी, जबकि बेटों को बचपन से ही वह सब करने की आज़ादी बड़े गर्व से दी जाती है। इसके बावजूद कई बेटियों ने इन बंदिशों को पार कर उन क्षेत्रों में भी अपनी धाक जमायी है, जिसे कभी पुरुषों की बपौती समझा जाता था।

खुशी इस बात की तो है कि कम संख्या में ही सही, पर अब तक पुरुषों के एकाधिकार में रहे इस क्षेत्र में महिलाओं के दखल की शुरुआत हो चुकी है। फिलहाल बिहार झारखंड की सड़कों पर आप फर्राटे से ऑटोरिक्शा चलाती महिला ऑटो चालकों को ज़रूर देख सकते हैं। उम्मीद है जल्द ही बसों में ड्राइवर सीट पर भी महिलाएं आपको बैठी नज़र आएंगी।

फोटो आभार: फेसबुक पेज Vichaar Dhara – Where Young India Speaks.

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