उपचुनाव में दो सीट जीतना या हारना कोई बहुत बड़ी उपलब्धि या पराजय नहीं है. 2014 से 2018 तक चार साल बीत चुके हैं. मोदी-वेव का असर कम हुआ है. हम उत्तर प्रदेश की बात कर रहे हैं, यहाँ से देश की राजनीती निर्धारित होती आयी है. समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे लपेट गया था. ये गढ़बंधन वैचारिक या सामाजिक उत्थान के लिए किये जा रहे हैं ऐसा मुझे नहीं लगता, महज अपना स्थायित्व बचाये रखने की कोशिश के तौर पर भी इन्हे देखा जाना चाहिए. योगी, मुख्यमंत्री के तौर पर नए हैं, और यदि पार्टी-विचारधारा को दरकिनार कर दें तो उनको “ओवर वर्कड” देखा गया था. संभव है समय के साथ चीजें सुधरें. (मैं उम्मीद करता हूँ). अखिलेश और मायावती दोनों को उत्तर प्रदेश में बहुमत मिला था, लेकिन दोनों में जनता को निराशा हुई थी. अखिलेश में इच्छाशक्ति दिखती थी लेकिन वे स्वतंत्र नहीं थे (या ऐसा पोर्ट्रे कर रहे थे); अखिलेश और मुलायम के समाजवाद में अंतर है. अखिलेश का समाजवाद कई बार बुर्जुआ समाजवाद भी लगा. हालाँकि मैं गलत भी हो सकता हूँ. मायावती ने कांशीराम को न मानते हुए खुद के प्रयोग किये और काफी कुछ के साथ अकूत संपत्ति अर्जित की. अजीब है कि इस समय उसपर किसी ने चर्चा नहीं की. अपने शासन काल में सपा, बसपा दोनों ने मुस्लिम वोट बैंक को, और अति-पिछड़ी जातियों को साधने की कोशिश की. बीच-बीच में हिंदु और ऊँची जाति भी याद की गयी. 2014 में लोकसभा और उसके बाद 2017 में विधानसभा में करारी हार के बाद यह तथ्य बदला और अब दोनों को हिंदु और ऊँची जाति से समस्या नहीं है, ऐसा लगता है. क्या यह महज वोट बैंक की राजनीति है? या उससे आगे भी कुछ है? अवसरवाद के लक्षण तो नहीं?
बहरहाल, जीते हुए उम्मीदवारों को बधाई!