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कार्ल मार्क्स और धर्म

मार्क्स नास्तिक थे और उनकी नास्तिकता सामान्य जनों की नास्तिकता से ज्यादा गहन, वैज्ञानिक और “सामाजिक” था. मतलब, वह नास्तिकता को अमूर्त रूप में नहीं देखते थे पर समाज में आस्तिकता का जन्म, विकास और सड़ांध के रूप में देखते थे, और जनता की मज़बूरी में देखते थे. सही शब्दों में वह “द्वंद्वात्मक भौतिकवादी” थे.

“धर्म जनता का नशा है” या “अफीम है” का क्या मतलब है?
पूरा कोट है “Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, and the soul of soulless conditions. It is the opium of the people”:- “A Contribution to the Critique of Hegel’s Philosophy of Right”.
मतलब, धर्म प्रताड़ित जनता का आह है, एक बेरहम दुनिया का दिल, एक हृदयहीन संसार का हृदय है!
धर्म, भगवान, अल्लाह या गौड को मार्क्स या कोई भी कम्मुनिस्ट नहीं मानते, लेकिन यह समझते हैं की मजदूर, किसान और शोषित, प्रताड़ित जनता के लिए धर्म “जरुरी” या “मज़बूरी” है,और उसके बिना उसके जीवन के भयानक सच को भुलाया नहीं जा सकता. बिना उन कारणों को हटाये, जिसके कारण वह अवैज्ञानिक, काल्पनिक वस्तु पर विश्वाश करता है, वह धर्म के अन्धविश्वाश से दूर नहीं हट सकता.
जरा सोचिये, उदहारण द्वारा. एक मेहतर 4-6 घंटे गटर में जाकर दूसरों के पखाने साफ कारता है और शाम में जब घर आता है तो ताड़ी या शराब के 2-4 घूंट ना लगाये, अपने देव-देवता को याद ना करे तो जीवित कैसे रहेगा? उसे या समझाना की शराब या धर्म बेकार है, तो क्या उसकी जिंदगी नहीं छिनना है?
क्या करोड़ों उस महिलाओं को हम उस “शक्ति” से अलग रख सकते हैं, जिसकी पूजा कर, मान्यता मांग कर वह अपने पति और ससुराल वालों से संघर्ष करने की या बर्दाश्त करने की ताकत पाती है?
क्या करोड़ों बेरोजगारों या अर्ध रोजगार युवकों को, खासकर असंगठित क्षेत्र में, जिनपर छटनी का तलवार लटकता रहता है, से धर्म छीन सकते हैं?
मार्क्सवाद लेनिनवाद एक वैज्ञानिक विधि है. किसी भी विश्लेषण को वह हवा में, बिना उसके पुरे वातावरण के नहीं करता है! वैज्ञानिक नास्तिकता बिलकुल सही है पर किसी भी क्रन्तिकारी को इसे उस समाज और समय से बहार नहीं देखना चाहिए, नहीं आर्थिक, सामाजिक और राजनीती से परे!
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