त्रिपुरा की ‘भगवा आग’
लोकतंत्र का चुनावी नशा आजकल राजनैतिक दलो को ज्यादा रहता है जो जीत कि बाद उन्माद में बदल जाता है . भारतीय लोकतंत्र अब एक अराजकता की ओर बढ़ चला है जंहा हिंसा, अस्तित्व को मिटा देने की कोशिश औऱ तोड़फोड़ दंगा ये सब एक चुनावी रिवाज़ हो चुके हैं. अगर मैं ये कंहू कि हम लोकतंत्र कि आखिरी दौर में जी रहें हैं तो कोई अतिश्योक्ति न होगी . जिस तरह से जीतने का उन्माद भारतीय जनता पार्टी में त्रिपुरा में देखने को मिला ,एक चिंता पैदा करता है सिर्फ इस बात कि लिए नहीं कि भारतीय जनता पार्टी जीती है बल्कि इस बात के लिए भी कि जनता को क्या हिंसा पसंद है ? क्या हिंसा अभिव्यक्ति का एक सरल साधन बन चुकी है ? और चुनाव एक युद्ध बन चुके हैं? आज त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति तोड़ी है , कल फिर सत्ता परिवर्तन होगा तो पंडित दीनदयाल की मूर्ति भी तोड़ी जा सकती है. सत्ता में आने के बाद एक जिम्मेदारी आती है औऱ जीत विनम्रता भी लाती है पर जिसतरह की हिंसा त्रिपुरा में हुई है वंहा तो लगता है हमारा लोकतंत्र भी अब चरमपंथ के प्रतिक्रियावादी दौर में जा चुका है औऱ चुनाव महज़ हिंसा कि आगाज़ बनते जा रहे हैं. आज राजनैतिक दल नक्सलवादी संगठनों से भी ज्यादा लोकतंत्र विरोधी हो चुके हैं औऱ जो हिंसा चुनाव कि बाद भड़की है वो यही दिखाता है कि कानून, पुलिस औऱ न्यायालय सिर्फ आम लोगो पर लगाम कसने कि लिए हैं औऱ नेता औऱ उनकी शक्ति असीमित है. भारतीय जनता पार्टी ने लेनिन की मूर्ति तोड़ कर सामंतवाद, राजशाही औऱ किसानविरोधी लोकतांत्रिक साम्राज्य के आने का आगाज़ किया है. ऐसा लगता है चुनाव सिर्फ ‘अधिनायकवाद’ तक पहुँचने का रास्ता बन चुका है , भारत का लोकतांत्रिक भविष्य एक गंभीर चुनौती की तरफ जा रहा है , जंहा सरकार उन्मादीओ को पालती है , न्यायिक व्यवस्था खुद टकराव की तरफ बढ़ चली है औऱ जनता के हिस्से में है हिंसा , वो हिंसा वाली भीड़ भी है ओर हिंसा सहने वाला समुदाय भी . श्री श्री रविशंकर कहते राम मंदिर मुद्दे पर कहते हैं कि ‘अगर फैसला बहुसंख्यक समुदाय की भावना के खिलाफ आया तो भारत सीरिया बन जायेगा’. इसका मतलब है अब देश में न्यायपालिका का औऱ कानून का अनुशासन ढीला पढ़ चुका है औऱ सभी की चुप्पी इस बात का सबूत है. आज हम उनलोगो कि सपनो को साकार करने की दिशा में बढ़ चुके हैं जो कई सालो से भारत को ,भारतीय लोकतंत्र को बर्बाद होते हुए देखना चाहते थे औऱ अराजकवाद की भावना में बहने वाली जनता आने वाली पीढ़ी को जवाब देने के काबिल नहीं रहेगी. मुझे लगता है अब लोकतंत्र को आखिरी खत लिखने का समय आ चुका है .
विवेक राय लेखक टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान के विद्यार्थी रहे हैं.