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न कोई जंतर मंतर न कोई मोमबत्ती जलेगी

गोओगले

न इनके लिए कोई जंतर मंतर पे मोमबत्ती जलायेगा; न इण्डिया गेट पे कोई शांति मार्च होगा..

जंगल में इनको ऑपरेशन करने के लिए हेलीकाप्टर भले न मिले, पर इनकी लाशों को हेलीकाप्टर जरूर नसीब हो जाएगा.. कोई अभिनेत्री मरती है तो तीन दिन तक राष्ट्रीय शोक फ़ैल जाता है.. किसी महानायक की तबियत नासाज हो जाए तो देश का ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है.

देश के हर मुद्दे जहाँ रेड कारपेट लोगों के ट्वीट और नेताओं के बयान तय करते हों वहाँ इन गरीब किसान और मजदूर के बच्चों की मौत से किसको फर्क पड़ेगा.. गुरिल्ला वारफेयर को कन्वेंशनल तरीके से कभी नहीं जीता जा सकता है . मानवाधिकार की आड़ में सुरक्षा बलों के हाथ पहले ही बंधे हुए हैं, ऊपर से दुश्मन का कभी भी सामने न आना और जनसँख्या के साथ मिल कर रहना बहुत ही चुनौतीपूर्ण हो जाता है.

फिर अनहोनी होती है, एक डिपार्टमेंटल इन्क्वायरी होगी, फॉर्मल एफआईआर लॉज होगी, कुछ काले पन्ने सीआरपीएफ के बल मुख्यालय द्वारा गृह मंत्रालय के किसी बाबू की मेज तक भेज दिए जाएँगे.

और गलती कहीं न कहीं संक्रियात्मक या प्रशिक्षणात्मक बताकर नयी एसओपी बना के सभी अपना अपना पल्ला झाड़ लेंगे. दुसरे  तरफ़ कोई सुरक्षाबलों की ग्राउंड कमांड और लीडरशिप पे सवाल खड़े करेगा.. तीसरी तरफ़ कोई ऐसा व्यक्ति जिसने कभी नक्सलवाद को ग्राउंड पे देखा ही नहीं, किसी टीवी स्टूडियो में टैक्टिस और इंटेलिजेंस गेदरिंग फेलियर का एक्सपर्ट ओपिनियन देगा.. पर असली सवाल वहीँ का वहीँ रहेगा..

कई सवाल अधूरे हैं.. बिना रीढ़ और स्नायु की सरकारें चेत जाएँ वरना जवाब समय देगा..

नक्सलवाद का सही इलाज विकास और नक्सलियों का तुष्टिकरण नहीं, ड्रोन रेकी और एयरबॉर्न ऑपरेशन्स हैं.

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