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सार्वजनिक जगहों पर स्तनपान कराना हमारे ‘आधुनिक’ समाज में टैबू क्यों है?

माँ का दूध बच्चे के लिए वह पहला आहार है जिसे बच्चा प्राकृतिक रूप से ग्रहण करता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि बच्चे के जन्म के एक घंटे के भीतर ही यह दूध स्तन से बच्चे के लिए स्रावित होना शुरू हो जाता है। यह दूध नवजात बच्चे के लिए सभी कृत्रिम तरीके से दिए जाने वाले आहारों से बेहतर होता है। प्रकृति द्वारा बनाये गए इस अनुपम और पवित्र प्रक्रिया को सार्वजनिक रूप से करना है अथवा नहीं इसको लेकर भारत में आजकल विवाद खड़ा हो गया है। कुछ लोग सार्वजनिक रूप से स्तनपान को शर्मनाक तो कुछ लोग स्त्री की यौनिकता से इसे जोड़ रहे हैं।

सार्वजनिक रूप से स्तनपान कराने को लेकर भारतीय समाज दो तरह की मानसिकता में बंटा है। एक तरह के लोगों को इसमें कुछ भी गलत या अनैतिक नहीं लगता, बल्कि यह बच्चे के लिए हर समय या परिस्थिति में बेहद ज़रूरी लगता है। वहीं दूसरे तरह के लोगों को यह अनैतिक, गलत और अश्लील तक लगता है। इस बहस में सार्वजनिक स्तनपान कराना सही है या गलत जैसी बात की जा रही है। यदि कुछ प्रतिशत महिलाओं को छोड़ दिया जाए तो बहुसंख्य पुरुष ही हैं, जो बहस को सही-गलत या विवाद का रूप दे रहे हैं।

यह वही समाज है जिसको भारत के ग्रामीण अंचलों में प्रचलित लौंडा डांस, मेले-शादी के अवसर पर अश्लील-द्विअर्थी गीतों और शारीरिक संकेतों से सेक्स की कुंठा को सार्वजनिक रूप से जाहिर करने में कोई शर्म महसूस नहीं होता और न हीं इसमें उनकी नैतिकता और संस्कृति का खोखलापन ज़ाहिर होता है।

दरअसल हमारा समाज पितृसत्ता के अलिखित नियामकों द्वारा शासित और संचालित होता है। अगर पुरुष स्त्री को निरा भोग की निगाह से देख रहा है, तो उसमें कोई गलत बात नहीं नज़र आती, पर यदि महिला अपने जायज़ अधिकार और इच्छा का प्रदर्शन करती है, तो पुरुष समाज और उनकी संस्कृति पर गाज़ गिर जाती है। हालांकि स्तनपान को लेकर एक तरफ सरकारें जागरूकता के कार्यक्रमों और विज्ञापनों के माध्यम से भी इसे बढ़ावा देने का दिखावा तो करती है, पर वास्तव में स्तनपान पर लोगों की मानसिकता में बदलाव लाने अथवा कानून बनाकर निजी अथवा सार्वजनिक रूप से स्तनपान को अधिकार का दर्जा नहीं दिला पाई है।

कुछ तथ्य जो सरकार के विज्ञापनों से जुटाए जा सकते हैं, जैसे माँ का दूध बच्चों के लिए सर्वोत्तम आहार है, स्तनपान किये जाने वाले बच्चों की स्तनपान नहीं किये जाने वाले बच्चों की तुलना में बीमार पड़ने की सम्भावना कम होती है। माँ के दूध में एक तत्व कोलेस्ट्रोम पाया जाता है, जो बच्चे की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है और तंदुरुस्त बनाता है। कोलेस्ट्रम युक्त दूध कई प्रकार से बच्चे के विकास और निरोग होने में मदद करता है। इस तरह के कई स्लोगन और विज्ञापन प्रखण्ड के भवनों आदि में लिखे देखे जा सकते हैं।

..तो सैद्धांतिक रूप से हमारा समाज स्तनपान के खिलाफ नहीं है, बल्कि उसको डर है स्तन के दिख जाने से। इससे पुरुष सत्ता को शर्म लग जाती है। एक महिला जो ट्रेन के सामान्य डब्बे में सफ़र कर रही होती है और बच्चा भूख से रोने लगता है। ऐसे मौके पर महिला द्वारा स्तनपान कराने की दुविधा, बच्चे की रोने की आवाज़ और स्तन को घूरती बेशर्म आंखें, कभी न कभी लोगों ने ज़रूर देखी होगी। ऐसे में बच्चे की भूख को शांत करने हेतु स्तनपान कराना अश्लील है या माँ द्वारा बच्चे को स्तनपान कराते घूरती आंखे अश्लील हैं, इसपर सोचने की ज़रूरत है।

ऐसे ही बेहुदे सवाल और विवाद तब भी होते हैं, जब एक स्त्री स्कर्ट में सड़क पर जाती है और कुछ पुरुषों द्वारा उसका बलात्कार कर दिया जाता है। तब सवाल यह नहीं होता कि किसने और क्यों ऐसी आपराधिक घटना को अंजाम दिया, बल्कि बात स्त्री पर ही डाली जाती है कि आखिर स्कर्ट पहनने की ज़रूरत ही क्या है? शाम को अकेली घूमने की ज़रूरत ही क्या है? मानो स्त्री इंसान न हुई बंद कमरों में रखी जाने वाली दोयम दर्जे की वस्तु हो। पर ऐसे उदाहरण जिसमें छोटी-छोटी उम्र की बच्चियों, वृद्धा महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं, यह जाहिर करती हैं कि समस्या स्त्री के पहनावे, घूमने या आचार-व्यवहार में नहीं है, बल्कि पुरुषवादी मानसिकता में है। हम सार्वजनिक स्थानों पर स्तनपान करने को लेकर भी इससे तुलना करके वस्तु-स्थिति को समझ सकते हैं कि समस्या कहां है।

द लांसेट’ में छपी स्तनपान करने पर एक रपट के अनुसार, विश्व में पांच वर्ष से कम उम्र के अनुमानित 8 लाख 23 हज़ार बच्चों की मौतें हर साल स्तनपान कराने से रोकी जा सकती हैं।

इसपर हमारी बहस होनी चाहिए, पर बहस का केंद्र माँ को कैसे, कब और कहां स्तनपान कराना है वह है। यह मानसिकता दरअसल खतरनाक लक्षण है पितृसत्ता की, जिसमें कई और लक्षण है। यह लक्षण मानसिकता और सत्ता दोनों से ही संबंधित है।

सार्वजनिक रूप से स्तनपान को टैबू से मुक्त करने और बच्चे के पोषण के प्रति जागरूकता के लिए ही सलमा हायेक द्वारा सियरा लीओन में एक बच्चे को दूध पिलाने का बोल्ड सीन किया गया, जिसपर भी दुनियाभर में चर्चाएं चली थी।

अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई देशों में सार्वजनिक रूप से स्तनपान कराना आम बात है। हालांकि यह महिला की अपनी सुविधा, स्वतंत्रता और बच्चे की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए उस माँ की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है। इसपर पुरुष समाज को चिंतित होने की कोई ज़रूरत नहीं है।

 

वेनेज़ुएला के पूर्व राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज़ के सामने सहजता से स्तनपान करवाती एक महिला।

कुछ देश ऐसे हैं जहां कानून द्वारा सार्वजानिक रूप से स्तनपान कराना मान्य है – मोरक्को, फिलीपिंस, ताईवान, फ्रांस, इटली, स्पेन आदि। वहीं कई ऐसे देश हैं जहां सामाजिक रूप से सार्वजनिक जगहों पर बच्चों को स्तनपान करवाना सामान्य बात है। भारत में भी आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों में इसे सामाजिक मान्यता है। दिक्कत उस समाज में ज़्यादा है जहां पितृसत्ता ज़्यादा मज़बूत है और सभ्यता और संस्कृति के दिखावे ज़्यादा हैं।

वेनेजुवेला के राष्ट्रपति के सामने इस महिला द्वारा सार्वजनिक रूप से स्तनपान करने की तस्वीर भी हमारी नज़र में आई थी, पर उस महिला और राष्ट्रपति शावेज के लिए शायद यह आम बात थी, अश्लील तो कतई नहीं। अगर कोई कारण है इसको मुद्दा बनाने की, तो वह है हमारी सोच जिसे ठीक करना ज़रूरी है। ऐसे में केरल में प्रकाशित गृलक्ष्मी का कवर और उसके बाद का बहस पितृसत्ता को चुनौती तो ज़रूर दिया है। और नई पीढ़ी इसको लेकर काफी सकारात्मक रूप से सामने आया है।

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