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दर्शकों को भारी अधूरेपन और कसक में छोड़ गए अभिनेता नरेन्द्र झा

अभिनेता नरेंद्र झा के निधन की खबर स्तब्ध करने वाली है। तंदुरुस्ती, उत्साह, उर्जा और सकारात्मकता से भरे एक व्यक्ति का अचानक इस दुनिया को विदा कह देना बहुत खलने वाला होता है। नरेंद्र की अभिनय क्षमता के विविध आयामों से अभी लोगों का परिचय होना शुरू ही हुआ था, कि उनकी जगह उनकी अनुपस्थिति ने ले ली। वे महज़ 55 साल के थे और कल बुधवार की सुबह कार्डियक अरेस्ट (दिल के दौरे) की वजह से उनकी मौत हो गई।

नरेंद्र झा की यात्रा बिहार के मधुबनी ज़िले के कोइलख गांव से शुरू होती है। ऐसा माना जाता है कि मिथिला की कला और सांस्कृतिक विरासत को संजोकर रखने वाले कुछ एक गांवों में कोइलख भी शामिल है।

नरेंद्र गांव में होने वाले नाटकों को बचपन से ही देखा करते थे और अवसर मिलने पर छोटी-मोटी भूमिकाएं भी किया करते थे। कुछ और नहीं तो दो दृश्यों के बीच में गीत गा लेने का अवसर मिलने पर भी उन्हें बहुत संतोष होता था।

नरेन्द्र, अपने भीतर रंगमंच से प्रेम और अभिनय संस्कार का बीज बोने का श्रेय, गांव के इन्हीं नाटकों को देते थे।

दसवीं तक की पढ़ाई गांव में करने के बाद, इंटर की पढ़ाई के लिए वे दरभंगा गए। फिर पटना से ग्रेजुएशन की डिग्री लेकर पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय आए, लेकिन एक साल बाद ही उन्होंने डीयू छोड़कर जेएनयू में दाखिला ले लिया और वहीं से अपना पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा किया। परिजनों की अपेक्षा के अनुरूप उन्होंने सिविल सर्विसेज़ की तैयारी भी शुरू की, लेकिन उनका मन इस ओर नहीं रम सका। उनके मन को तो अभिनय की दुनिया में रमना था!

अपनी नई मंजिल निर्धारित कर लेने के बाद उन्होंने श्रीराम सेंटर, दिल्ली से एक्टिंग में डिप्लोंमा किया और फिर मुंबई आ गए। अच्छी कद-काठी और चेहरे-मोहरे के कारण उन्हें शुरू में ही मॉडलिंग असाइनमेंट मिलने लगे। नरेंद्र के मुताबिक इससे होने वाली आमदनी से उनमें मुम्बई में ठहर कर संघर्ष करने का हौसला बना रहा। इसी बीच उन्हें टीवी धारावाहिकों में काम मिलने लगा और उन्होंने मॉडलिंग छोड़कर इस तरफ अपना ध्यान लगाना शुरू कर दिया। शुरूआती दौर में ‘शान्ति’ जैसे लोकप्रिय धारवाहिक ने उन्हें प्रशंसा दिलाई। उन्होंने बीस से भी अधिक टीवी धारवाहिकों में काम किया है, जिनमें ‘जय हनुमान’, ‘क्यूंकि सास भी कभी बहु थी’, ‘आम्रपाली’, ‘रावण’ और ‘संविधान’ आदि शामिल हैं।

2004 में धारावाहिक ‘रावण’ में निभाई गई उनकी मुख्य भूमिका की बहुत अधिक तारीफ हुई। राज्यसभा टीवी के लिए श्याम बेनेगल के निर्देशन में संविधान निर्माण पर केन्द्रित धारवाहिक में नरेंद्र ने ‘मोहम्मद अली जिन्नाह’ की भूमिका निभाई, इसमें भी उनके अभिनय ने लोगों को बहुत प्रभावित किया।

टीवी पर काम करते हुए ही उन्हें बॉलीवुड में भी काम मिलने लगा था। 2003 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘फनटूश’ से उन्होंने बड़े परदे पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। 2004 में आई नेताजी सुभाष चन्द्र बोस में कैप्टन ‘हबीब’ की निभाई, उनकी इस भूमिका से निर्देशक श्याम बेनेगल इतने प्रभावित हुए कि इसके बाद से वे नरेंद्र को हबीब के नाम से ही बुलाने लगे। धीरे-धीरे नरेंद्र को बड़े बजट की फिल्मों में भी काम मिलना शुरू हो गया था। इनमें ‘हैदर’, ‘हमारी अधूरी कहानी’, ‘घायल वन्स अगेन’, ‘मोहनजोदाड़ो’, ‘फ़ोर्स-2’, ‘रईस’ और ‘काबिल’ जैसी फिल्में शामिल हैं।

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बड़े परदे पर उन्हें अक्सर छोटी भूमिकाएं ही मिलीं, लेकिन अपनी उन भूमिकाओं से भी वे छाप छोड़ पाने में कामयाब होते रहे। एक मैथिली पत्रकार के द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या कारण है कि फिल्मों में आपकी छोटी भूमिकाएं भी लोगों को याद रह जाती हैं? इसका विनम्रतापूर्वक जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि इस बात का अधिकांश श्रेय उनके हिस्से में आई भूमिका के लिए लिखी स्क्रिप्ट को जाता है, जिसमें खुद इतनी संभावना होती है कि अगर कोई ठीक-ठाक एक्टिंग कर लें तो उसकी छाप दर्शकों के मन पर रह जाती है।

फिल्म ‘हैदर’ में डॉ. हिलाल मीर की भूमिका को उन्होंने इतनी शिद्दत से निभाया है कि उनके बेहतरीन अभिनय के उदाहरण के रूप में इसका ज़िक्र किया जा सकता है। इस फिल्म में उनकी बॉडी लैंग्वेज, एक्सप्रेशंस और संवाद अदायगी के मेल ने जो प्रभाव पैदा किया है, वह लम्बे समय तक ज़हन में रह जाता है।

नरेंद्र के पास फिलहाल कई फिल्म असाइनमेंट्स थे। उन्होंने दक्षिण भारतीय फिल्मों में भी काम किया है। अपनी मातृभाषा मैथिली की फिल्मों में भी वे काम करना चाहते थे, लेकिन इसके लिए वे बेहतर स्क्रिप्ट का इंतज़ार कर रहे थे। सिनेमा में काम करने के साथ-साथ वे लगातार टीवी पर भी सक्रिय रहे।

वे बताया करते थे कि उनका पहला आकर्षण सिनेमा नहीं, टीवी ही था और शुरुआत में वे खुद की कल्पना एक टीवी स्टार के बतौर ही किया करते थे।

एकाध फिल्मों में नरेंद्र मुख्य किरदार में भी रहे, लेकिन इन फिल्मों की स्क्रिप्ट और निर्देशन का पक्ष बहुत मजबूत नहीं था, इसलिए ये फिल्में पसंद नहीं की गई। वास्तव में नरेंद्र की अभिनय क्षमता का इस्तेमाल करना हिंदी सिनेमा ने अभी ठीक से शुरू भी नहीं किया था। नरेंद्र में यह संभावना थी कि वह कई चुनौतीपूर्ण किरदारों को बहुत ही खूबसूरती से परदे पर उतार सकते थे। शायद आने वाले दिन उनकी निभाई जा रही बहुत सारी यादगार भूमिकाओं के होते! लेकिन ऐसा होना नियति को मंज़ूर नहीं था। एक अच्छा अभिनेता जब असमय इस दुनिया को विदा कह देता है, तो दरअसल वह अपने दर्शकों को भारी अधूरेपन में छोड़ जाता है, एक ऐसा अधूरापन जो कभी नहीं भरता।

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