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मैं खुलकर लिखता हूं ताकि अपने आदिवासी समुदाय के बारे में आपसब का भ्रम तोड़ सकूं

इम्पैक्ट: YKA यूज़र राजू मुर्मू लगातार आदिवासी मुद्दों पर लिखते आ रहे हैं। राजू के लेखों से प्रभावित होकर युवा आदिवासी भी बेझिझक होकर अपनी आवाज़ उठाने लगे और आदिवासी मुद्दों पर हो रही चर्चाओं को एक नई दिशा मिली।

मैं ‘Youth Ki Awaaz’ की पूरी टीम को विशेष कर अंशुल जी, प्रशांत जी को धन्यवाद देना चाहूंगा की उन्होंने मुझे भी इस प्लेटफार्म का हिस्सा बनाया। साथ ही साथ मैं ‘Youth Ki Awaaz’ को 31 मार्च 2018 को दस वर्ष पूरे करने के लिए पूरे टीम को बधाई देता हूँ।

17 अप्रैल 2017 को YKA ने सर्वप्रथम मेरे एक लेख को जिसका शीर्षक है आदिवासियों को कब शामिल किया जाएगा न्यू इंडिया की तस्वीर में? को स्थान दिया। यह मेरे लिए एक बड़ा सुखद अनुभव था।

मैं अपने आप को कोई ‘प्रोफेशनल राइटर’ नहीं मानता लेकिन ‘YKA’ ने मुझे आज अपने ‘आदिवासी समाज’ की आवाज़ बन कर लोगों तक पहुंचने में एक अहम किरदार अदा किया है, इसके लिए मैं सदा कृतज्ञ रहूंगा।

बचपन से देखता और सुनता आ रहा हूं और अपने ‘आदिवासी समाज’ की वेदना को समझता हूं। थोड़े से साधनों में भी खुश रहने वाला अगर कोई समाज है तो वह भारत का ‘आदिवासी समाज’ है।

भारत की प्रारंभिक सभ्यता, संस्कृति भाषा एवं दर्शन को अपने सामाजिक जीवन में एवम् मौखिक रूप से भारत के विशिष्ट इतिहास को आज तक सहेज कर रखने वाला अगर कोई समुदाय है तो वह है भारत का आदिवासी समुदाय। लेकिन अफसोस की आज भारत का सभ्य और विकसित एवम् पढ़े-लिखे समाज के ज़हन में आज भी ‘आदिवासी’ शब्द का अर्थ जंगली, असभ्य और जंगलों में रहने वाला ही है।

नए भारत में अदिवासियों की क्या स्थिति है और ‘आदिवासी समाज’ अन्य समाज से इतना अलग थलग क्यों है ? यह बताने के लिए भारत का कोई भी राष्ट्रीय स्तर का कोई भी मीडिया या अखबार आगे नहीं आता है जो बहुत दुखद और खेदजनक है।

मैंने कई लेखक एवम् लेखिका जैसे महाश्वेता देवी,रमणिका गुप्ता, संजीव, राकेश कुमार सिंह, महुआ माजी, बजरंग तिवारी, गणेश देवी जैसे हिंदी के मशहूर साहित्यकारों  को  पढ़ा है जो आदिवासी नहीं है  फिर भी उन्होंने ‘आदिवासी समाज’ को केंद्र में रखते हुए कई किताबें और साहित्य लिखें। मैं उन सभी गैर आदिवासी साहित्यकारों को संपूर्ण ‘आदिवासी समाज’ की ओर से दिल से धन्यवाद दूंगा ।

लेकिन साथ-साथ मैं यह भी कहना चाहूंगा कि साहित्य रचना के सम्बन्ध में ‘आदिवासी समाज’ के पढ़े-लिखे शिक्षित वर्ग कम दोषी नहीं है।क्योंकि उन्होंने अपने ‘आदिवासी समाज’ के बारे में भारत के अन्य समाज के बीच अपनी बात रखने में कभी पहल ही नहीं की।

इन सौ वर्षों में ‘आदिवासी साहित्य’ कोई मुकाम हासिल नहीं कर पाया क्योंकि वे लोग अपने ही क्षेत्रों में सिमट कर रह गएं। लेकिन मैं देख रहा हूं कि अब कई आदिवासी बुद्धिजीवी वर्ग लेखक-लेखिका कवि-कवित्री आदि साहित्यकार उभर कर आ रहे हैं। उनकी भी लिखी हुई कई किताबों को पढ़ने का मौका मिल रहा है जो कि एक अच्छी बात है। गोंड, मुंडा, संताल, उरांव, खड़िया, भील, मीणा आदि जैसे कई आदिवासी समुदाय के साहित्यकार अब ‘आदिवासी साहित्य’ के लिए लिख रहे हैं और उनके सेमीनार और संगोष्टी आदि बड़ी संख्या में होने शुरू हो गए हैं।

आज विभिन्न समाज का अपना-अपना ‘साहित्य’ है। ‘साहित्य’ किसी समाज को आने वाले पीढ़ियों को बहुत कुछ सिखाता है। लेकिन ‘आदिवासी साहित्य’ की बात करें तो ‘आदिवासी समाज’ में ऐसे बहुत थोड़े लेखक और साहित्यकार हैं जो भारतीय समाज में अपना विशिष्ट स्थान हासिल कर पाए हैं। मैं अपनी नई पीढ़ी के आदिवासी युवाओं को प्रेरित करूंगा कि अब इस विषय में आगे बढ़कर पहल कर अन्य भारतीय समाज के साथ कंधे से कंधे मिलाकर चलें।

‘लिपि’ और ‘भाषा’ लेखन द्वारा ही हम अपने ‘आदिवासी समाज’ को आगे ला सकते हैं। मैं अपने युवा आदिवासी साथियों से आग्रह करना चाहता हूं कि आप सक्षम हैं और आप अपनी बात लिखने के लिए स्वतंत्र हैं। खुलकर अपनी समाज की बात लिखें और बेहतर तरीके से लिखें।

आदिवासी जीवन दर्शन में कई विभिन्न आयाम या विशेषताएं हैं जिसका कोई अंत ही नहीं, क्योंकि जब आप इस पृथ्वी को अपने में समेटने की कोशिश करते हैं तो उसके भी कई आयाम आपको देखने को मिलेंगे। वैसे ही आदिवासी दर्शन की विशालता और गहराई है। आदिवासी दर्शन का केंद्रबिंदु ही ‘प्रकृति ‘है जैसे आदिवासी गीतों के लय और ताल में नदी-नाला, पहाड़- मैदान, जंगल आदि की मूल झलक दिखती है। मैंने  अमेरिका के रेड इंडियन आदिवासियों के संगीत को सुना है उसमें प्रयोग किये जाने वाले वाद्य यंत्रो में बांसुरी और शैल से बने गुच्छों से झरने की कल कल आवाज़ और पंछियो के चहचाहने की ध्वनि सुनकर आप किसी अलौकिक दुनिया में स्वतः चले जाते हैं।

विश्व का कोई भी आदिवासी समुदाय हो, उनकी समरूपता मुख्यतः एक जैसी ही है। और यह समरूपता उनके पूर्वजों या पुरखाओं के द्वारा  दिए गए ज्ञान-विज्ञानं, कला-कौशल और प्रकृति से सामंजस्य पर आधारित है। अगर प्रकृति के संरक्षक कोई हैं तो यह सिर्फ विश्व के आदिवासी समुदाय ही हैं। प्रत्येक कुनबा या कबीला के अपने टोटम यानी जीवो एवं वनस्पतियो को संरक्षण देने के लिए अलग-अलग टाइटल होते हैं जो मुख्यतः किसी भी गैर आदिवासी समाज में नहीं रखे जाते।

इससे यह स्पष्ट होता है कि आदिवासी समुदाय प्रकृति को सिर्फ संसाधन ही नहीं बल्कि प्रकृति को अपनी मां मानकर उसकी रक्षा हज़ारों वर्षों से करते आ रहे हैं। आदिवासी समाज, धन लोलुपता और बाज़ारवाद की हिंसा से कोसों दूर है। आदिवासी समुदाय में किसी भी प्रकार का रंग भेद , नश्ल ,लिंग ,धर्म आदि को लेकर कट्टरपंथ नहीं पाया जाता। नृत्य और गीत इनके जीवन शैली का हिस्सा है। मांदल , ढोल नगाड़ा , बांसुरी, हाथ के बने विभिन्न प्रकार के तार वाले वाद्ययंत्र आदि इनके जीवन में आनंद का संचार करता है।

आदिवासी समाज पर रिसर्च करने की ज़रुरत है क्योंकि यह विश्व के सबसे बड़े समुदायों में माना जाता है। अमूमन विश्व के सभी आदिवासियों की जीवनशैली में एक समानता इस समुदाय को और विशिष्ट बनाता है। और सभी आदिवासी की एक बड़ी विशेषता है कि कहीं ना कहीं वे प्रकृति के विभिन्न जीव वनस्पति के संरक्षक थे और अभी भी अपनी विशिष्ट जीवन शैली द्वारा जल जंगल और ज़मीन को बचाने के लिए संघर्षरत हैं। सभ्य शिक्षित समाज को आदिवासियों से बहुत कुछ सीखना अभी बाकी है।

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