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भारतीय सिनेमा को हमेशा के लिए बदल देने वाली पहली टॉकी फिल्म थी आलमआरा

एक चलन को आने में कभी-कभी सालों का इंतज़ार करना होता है तो कभी हर वर्ष कुछ न कुछ नया देखने में आ जाता है। हरेक फिल्म भी अपना संदेश देकर कुछ अलग विचार को सींच सकती है। इसके मद्देनज़र फास्ट-फॉरवर्ड परिवर्तन का जो चलन फिल्मों में बढ़ा, उसने चौंका दिया। लेकिन यह परिवर्तन चलचित्रों की खास दुनिया तक सीमित नहीं है। विशेषकर इसे ‘आलमआरा’ के बाद की दुनिया से ही जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए।

दरअसल सिनेमा में यह बातें शुरू से ही मौजूद रहीं। साइलेंट फिल्मों का जहान चुपचाप रहकर भी मुकम्मल ‘सम्प्रेषण’ (कम्युनिकेशन) का साधन था। परिवर्तन की धारा में संवाद की अनोखी दुनिया दु:खद रूप से अदृश्य हो गई।

लेकिन पहली बोलती फिल्म अपने नाम करने की दीवानगी देखें, उस दौर का लगभग हर बड़ा निर्माता इतिहास का हिस्सा बनना चाहता था। इंपीरियल मूवीटोन के आर्देशिर ईरानी के पास भी इस प्रतिस्पर्धा को मात देने की चुनौती थी। मदान थियेटर, इंपीरियल मूवीटोन एवं कृष्णा के बीच पहली टॉकी बनाने को लेकर कड़ा संघर्ष था, लेकिन जीत का सेहरा यकीनी तौर पर ‘आलमआरा’ के सर बंधा। 14 मार्च 1931 को देश की पहली टॉकी रिलीज़ हुई। जिसकी कहानी कुछ यूं थी-

राजा की दो पत्नियों दिलबहार और नौबहार के बीच सौतन का झगड़ा है। एक फकीर की भविष्यवाणी, ‘राजा के उत्तराधिकारी को नौबहार जन्म देगी’ से दोनों पत्नियों में तल्खियां बढ जाती हैं। भविष्यवाणी पर क्रोधित दिलबहार, राजा से बदला लेने के लिए नित नई योजनाओं पर विचार करती है।

पति और सौतन को सबक सिखाने के लिए वह रियासत के खाविंद ‘आदिल’ पर मोहब्बत का मोहपाश फेंकती है, लेकिन राजा का फरमाबरदार आदिल रानी के प्रस्ताव को ठुकरा देता है। आदिल के इस रूख से मोहब्बत में नाकाम दिलबहार में प्रतिशोध की भावना अब पहले से भी ज़्यादा है। आदिल को सबक सिखाने के लिए रानी उसे काल कोठरी में डलवा देती है।

महारानी की रंजिश आदिल की बच्ची ‘आलमआरा’ तक पहुंचती है और आलमआरा को रियासत की सीमा से बाहर फेंक दिया जाता है। अनजान देश में भटक रही आलमआरा पर एक बंजारों के समूह की नज़र पड़ती है और वो बंजारों के समूह के साथ हो जाती है, उसकी आगे की परवरिश बंजारे ही करते हैं।

बंजारों के संरक्षण में पली-बढ़ी आलमआरा परंपरागत खानाबदोश करतबों में पारंगत हो जाती है। बड़ी होने पर उसे अपने इतिहास का पता चलता है जिसे जानकर वह पिता आदिल को कैदखाने से रिहा करवाने वापस लौटती है। स्वदेश में उसकी मुलाकात रियासत के राजकुमार होती है और राजकुमार पहली नज़र में ही आलमआरा को दिल दे बैठता है। आलमआरा भी राजकुमार को चाहने लगती है। फिल्म के सुखात्मक समापन में प्रेमियों का मिलन होता है, क्रूर रानी को उसके किए की सज़ा मिलने के साथ आलमआरा के पिता आदिल भी रिहा हो जाते हैं।

जोसफ डेविड ने फिल्म की कथा, मुख्य किरदार ‘आलमआरा’ नामक लड़की को ध्यान में रखकर आर्देशिर ईरानी की कंपनी ‘इम्पीरियल मूवी टोन’ के लिए लिखी। मूल कथा पारसी थियेटर से प्रेरित ‘राजकुमार और बंजारन’ नामक प्रेम कहानी पर आधारित थी। कथा-पटकथा पूरी होने बाद फिल्म के संगीत पक्ष को संभव करने में अनेक कलाकारों ने सहयोग दिया, जिनमें वज़ीर मुहम्मद खान और फिरोज़शाह मिस्त्री का नाम प्रमुख है।

बंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में प्रदर्शित ‘आलमआरा’, दादा साहब फालके की मूक फिल्म ‘राजा हरीश चन्द्र’ के करीब देढ दशक बाद आई थी।

पहली सवाक फिल्म होने के कारण ‘आलमआरा’ को भारतीय सिनेमा में आज भी याद किया जाता है। आलमआरा के निर्माण में उस समय तकरीबन चालीस हज़ार रुपये की लागत आई थी।

हिंदी सिनेमा को आवाज (ध्वनि एवं संवाद) मिलने के बाद फिल्म प्रारूप में क्रांतिकारी बदलाव आए। अब गीत-संगीत के साथ नाटकीय प्रभावों का प्रयोग संभव था। टॉकी के दशक में स्टूडियो का चलन भी शुरू हुआ। आर्देशिर ईरानी (इंपीरियल मूवीटोन), बिरेन्द्रनाथ सरकार (न्यू थियेटर्स), हिमांशु राय (बॉम्बे टाकीज), बालाजी पेंढारकर (प्रभात फिल्म कंपनी), चंदूलाल शाह (रंजीत स्टुडियो) आदि का गठन हुआ।

आलमआरा के रिलीज़ के पहले ही दिन, नए युग के स्वागत के लिए थियेटर में भारी भीड़ उमड़ी, भीड़ पर काबू पाने के लिए पुलिस को काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा।

संगीतकार फिरोज मिस्त्री की धुनों को अलग-अलग गायकों ने गाया। हिन्दी फिल्म का पहला गीत ‘दे दे खुदा के नाम पर’ को गायक व अभिनेता वजीर खान ने आवाज़ दी थी। एक अन्य गीत ‘बलमा कहीं होंगे’ को गायिका अलकनंदा देवी ने गाया था। शेष गानों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती।

आलमआरा का एक भी प्रिंट अब शेष नहीं है, सभी किसी न किसी कारण नष्ट हो चुके हैं। देश की शीर्ष फिल्म संरक्षण संस्था ‘पुणे राष्ट्रीय अभिलेखागार’ में भी आलमआरा का कोई प्रिंट नहीं मिलेगी।

आलमआरा का एकमात्र ऐतिहासिक प्रिंट को अभिलेखाकार की त्रासद आग ने स्वाहा कर दिया था। अब फिल्म के कुछ फोटोग्राफ ही स्मृति के रूप में शेष हैं।

जब पहली बार ‘हवाई जहाज’ उड़ा तो उसकी उड़ान किसी खिलौने से ज़्यादा नहीं मालूम हुई, लेकिन उसके बाद हमें हवा के जादुई सफर की चाबी मिली। आलमआरा और भारतीय सिनेमा के प्रसंग में भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है। यह आलमआरा ही थी जिसमें पहली बार ‘संवादों’ ने स्थापित किया कि भाव भंगिमाओं के साथ यदि शब्द और ध्वनि भी जुड़ जाएं तो एक नया संसार निर्मित किया जा सकता है। चलचित्र  की दुनिया में यह अगला बड़ा परिवर्तन रहा।

आलमआरा में उस समय के जाने-माने पारसी स्टेज कलाकार ‘मास्टर विटठल’ और ‘जुबेदा’ ने काम किया था। कहा जाता है कि फिल्म में काम करने के लिए विटठल पुराने स्टुडियो का करार तोड़कर आए थे। पहली बोलती फिल्म बनाने के दौरान आर्देशिर ईरानी को अनेक तकनीकी उद्यम स्थापित करने की हिम्मत जुटानी पड़ी। फिर भी समर्पण भाव से उन्होंने तमाम अड़चनों को पार कर हज़ारों फीट लम्बी फिल्म का निर्माण किया।

आलमआरा के एकाधिकार को मिटाने के लिए दूसरी फिल्म कंपनियों ने भी होड़ की, लेकिन उनमें वो दम नहीं था। इन कंपनियों ने सवाक तकनीक को गंभीरता से नहीं समझा और इस तरह वक्त की रफ्तार में पिछड़ गईं। अब सिनेमा में दो धारायें स्पष्ट  नज़र आने लगी थी, जिनमे ढांचागत फर्क था।

इंपीरियल से प्रेरणा लेते हुए दूरदर्शी निर्माताओं ने जल्द ही नई तकनीक को अपनाना शुरू किया। नए चलन की इस आंधी में मूक फिल्में भविष्य को लेकर चिंता में थीं, लेकिन सिनेमा की इस धारा की व्यथा पर फिल्मकारों ने गौर नहीं किया। नए के आकर्षण में पुराने से कट गए। बहुत से फिल्मकारों ने टॉकी तकनीक आयात कर ली। सिनेमा तकनीक अध्ययन के उददेश्य से कुछ लोगों ने विदेश का रुख भी किया।

सिनेमा की नई तकनीक से बहुत सी उपल्ब्धियां ताल्लुक रखती हैं, संवाद-गीत की बात पहली बार सुनी और अनुभव की गई थी। पार्श्व संगीत का चलन शुरू हुआ जो आगे चलकर मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा का एक प्रिय पक्ष बना। उन दिनों में फिल्म निर्माण वाकई असंभव के निकट था, जिससे संघर्ष करते हुए साइलेंट सिनेमा कायम था। लेकिन तकनीक के नाम पर देश में न के बराबर सुविधाएं थी।

अभी तक मूक फिल्में ही बनाई जा रही थी, ऐसे में सवाक प्रोजेक्ट करना चुनौतीपूर्ण व हैरत की बात थी। गानों को रिकॉर्ड करने के लिये कोई भी उपयुक्त उपकरण नहीं था।

सवाक तकनीक की सीमाओं के चलते केवल तबला, हारमोनियम और वायलिन के साज़ों पर ही गीतों को सजाया गया। फिर भी रिकॉर्डिंग का स्तर इतना खराब था कि साज़ की सही आवाज़ नहीं समझ आती थी।

कोई तत्कालिक प्रेरणा मौजूद न रहने कारण बड़ी समस्या गानों के फिल्मांकन में आई। ध्वनियों को रिकॉर्ड करने के लिए तकनीकी रूप से संपन्न कोई उपकरण नहीं था। अधिकतर गानों को सिंगल सिस्टम कैमरे की मदद से सीधे फिल्म पर रिकॉर्ड किया गया जो कि बहुत ही कठिन व चुनौतीपूर्ण था। इसमें सूक्ष्म बारीकियों के हरेक पहलू पर फोकस करना अनिवार्य था क्योंकि उच्चारण अथवा आवाज़ में थोड़ी भी कमी से समूचा गाना बेकार हो सकता था।

उस ज़माने में कोई ‘साउंड प्रूफ’ व्यवस्था नहीं थी, अर्देशिर ईरानी की दिक्कतों को स्टूडियो लोकेशन ने और बढ़ा दिया था। स्टूडियो के रेलवे लाइन के बिल्कुल करीब होने से दिन में गीत-संगीत-संवाद की रिकॉर्डिंग करना बहुत कठिन था, क्योंकि ट्रेन की आवाजाही ध्वनि के काम (साउंडवर्क) को नामुमकिन बना देती थी। दिन में कभी कोई उपयुक्त समय न रहने के कारण यूनिट ने काम के लिए अब देर रात का वक्त निर्धारित किया गया। इस समस्या से निपटने के बाद काम शुरू हुआ, तब की दृष्टि से यह एक ज़बरदस्त उपलब्धि थी। टॉकी का शुरूआती दौर होने की वजह से साउंड तकनीक परिचय अवस्था में ही थी।

आलमआरा के आस-पास संगीत का पूरा आनंद लेने के लिए अधिक उपकरण नहीं थे। टॉकी फिल्मों ने ध्वनि आधारित संयत्रों को विदेश से आयतित करने की पहल की, फिर रेडियो विकसित हुआ ओर स्वदेश में ही उन्नत संगीत तकनीक विकास का उपक्रम चला।

साउंड का परिचय दीवानगी की हद तक कमाल का था। हिंदी फिल्म जगत का पहला गीत ‘दे दे खुदा के नाम पर’ आज भी भिक्षा मांगने वालों का तकिया कलाम है। रिलीज़ होने के तुरंत बाद यह गाना देश के करोड़ों लोगों में मशहूर हो गया। कह सकते हैं कि इस फ़िल्म ने सिने संगीत के एक युग का आधार रखा। महान सफलता कई बार आगे का सफर आसान कर देती है।

आलमआरा की कामयाबी में भविष्य की सशक्त प्रेरणा उसी समय रिलीज़ हुई सवाक फिल्म ‘शीरी-फरहाद’ में भी अभिव्यक्त हुई। आलमआरा के पीछे-पीछे उस साल अलग-अलग भाषाओं की 27 सवाक फिल्में रिलीज़ हुईं। लेकिन बड़ी फिल्मों का आना मदान थियेटर्स की ‘शीरी-फरहाद’ से शुरु हुआ। जहांआरा कज्जन की आवाज़ और मास्टर निसार की मौजूदगी ने दर्शकों को आकर्षित किया। यह हिंदी फिल्म संगीत की पहली पीढ़ी थी।

समाचार-पत्र ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ के एक अंक में ‘आलमआरा’ की समीक्षा प्रकाशित हुई। समीक्षा में आलमआरा को किसी तकनीकी अचंभे की तरह देखा गया। फिर सवाक तकनीक की ढेरों प्रशंसा में सफलता का श्रेय ध्वनि के अपेक्षित आरोह-अवरोह (rise & fall) और विविधता को मिला। मूक फिल्मों के दौर से गुज़र रहे सिनेमा में यह कार्य किसी अजूबे जैसा था।

कहा जाता है कि मोहब्बत में जीने-मरने का फर्क नहीं होता। सिनेमा के जादू में विडम्बनाओं को भूल जाने की एक बड़ी वजह आलमआरा के ज़रिये निर्माण तकनीक में परिवर्तन आना था जिसका वक्त ने स्वागत किया। लेकिन विडम्बना देखें, जिस वक्त साउंड का जश्न मनाया जा रहा था, चलचित्रों की एक अलग दुनिया (मूक फिल्में) हाशिए के कगार पर थी।

भारतीय सिनेमा में मूक फिल्मों का आदिकाल देश में संचार के नए युग का बीजारोपण था। चलती तस्वीरों की जादूगरी से वाकिफ लोग हाव-भाव व निर्देशन को पढ़कर कहानी को समझते थे। उस दौर ने हमें बताया की मूक चलचित्र अनुभव की दुनिया है, यह सिनेमा फिल्मकार व दर्शक दोनों से बहुत उम्मीद रखता था।

उस दौर ने बताया की चलचित्र संवाद के सशक्त माध्यमों में एक है, मूक चलचित्र ने दो दशक से भी अधिक समय तक दर्शकों को बांधे रखा था। सवाक युग की तुलना में यह दौर अधूरा मालूम हो, लेकिन यह अपने आप में एक मुकम्मल जहान था।

सखाराम भाटवाडेकर उर्फ सवे दादा ने लघु चलचित्रों की पहल की, फिर पुंडलिक और राजा हरिश्चंद्र के बाद मूक फिल्मों की लम्बी  लिस्ट, भारत में सिनेमा की आदत बन गई।

इस युग को चैपलिन की फिल्मों से जोड़कर देखा जा सकता है। उनकी मूक फिल्में विश्व सिनेमा की यादगार विरासत हैं। पहली सवाक फिल्म पर लिखते हुए उनका सिनेमा याद आता है। याद आता है हमारा शुरूआती सिनेमा, जो साइलेंट होकर भी अजब-गजब बातें करता था।

परिवर्तन दो-तरफा घटित होता है। वह केवल बेहतरी के लिए नहीं होता, उसके  साथ एक विडम्बना भी सामानांतर होती है। विकास का सुख दरअसल कुछ दु:खों को नज़रअंदाज़ करने पर मिलता है। मूक फिल्मों की यात्रा का समापन, सिनेमा के एक प्रारूप का अंत था। समय ने कठोर निर्णय लेने को बाध्य किया और सवाक युग ने मूक सिनेमा को चलन से बाहर कर दिया। सिनेमा की नई तकनीक का उपयोग करने में ‘आलमआरा’ सफल रही।

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