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LGBTQ+ कम्युनिटी को सामाजिक स्वीकृति कब मिलेगी?

वैकल्पिक यौनिकता (Alternative Sexual Identities) वाले समुदाय को क्वीयर भी कहा जाता है। क्वीयर एक जातिवाचक शब्द है, जिसके अंतर्गत ट्रांसजेंडर, समलैंगिक (गे, लेस्बियन), बायसेक्शुअल, अन्तः लिंगी (intersexual), पैनसेक्शुअल, अलिंगी (asexual) आदि यौनिकता वाले समुदाय आते हैं। हिन्दी साहित्य में वैकल्पिक यौनिकता के समुदाय का साहित्यिक इतिहास पाया जाता है, परन्तु यह इतिहास भी हाशिए पर ही रहा है।

हिंदी में समलैंगिक प्रेम काव्य की शुरुआत अमीर खुसरो ने की थी। हिंदी साहित्य के इतिहास में वैकल्पिक यौनिकता पर लिखी गयी पहली कहानी ‘चॉकलेट’ है, जिसके रचनाकार पांडेय बेचन शर्मा हैं। सन 1924 में यह कहानी ‘मतवाला’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।

पांडेय बेचन शर्मा को हिंदी में वैकल्पिक यौनिकता के कथा साहित्य का अग्रदूत माना जा सकता है। वे वैकल्पिक यौनिकता के समर्थक थे, इसी वहज से उनके साहित्य को अश्लील या घटिया साहित्य करार दिया गया था।

‘चॉकलेट’ कहानी के माध्यम से पांडेय बेचन शर्मा ने समलैंगिक प्रेम को दर्शाया है, साथ ही समाज में इसके प्रति अस्वीकृति को भी ज़ाहिर किया है। कहानी के पात्र दिनकर को उसके दोस्त यह बताते हैं कि समलैंगिकता अप्राकृतिक है, परन्तु दिनकर उन्हें बताता है कि ऑस्कर वाइल्ड और सुकरात जैसे महान लोग भी समलैंगिक थे।

हिंदी साहित्य में समलैंगिकता पर आई दूसरी रचना सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ‘कुल्ली भाट’ है, जो सन 1939 में प्रकाशित हुई थी। ‘कुल्ली भाट’ के माध्यम से समलैंगिकों के प्रति किस प्रकार की संकीर्ण मानसिकता समाज में व्याप्त है, इसे प्रस्तुत करने का साहस निराला जी ने किया है। राजेंद्र यादव द्वारा लिखित कहानी ‘प्रतीक्षा’ (1962) में भी सलैंगिक प्रेम झलकता है।

21वीं सदी के हिंदी साहित्य में सभी विधाओं में वैकल्पिक यौनिकता का अस्तित्व प्रस्तुत हुआ है। प्रदीप सौरभ द्वारा लिखा गया उपन्यास ‘तीसरी ताली’ (2012) मात्र हिजड़ा समुदाय की ही नहीं बल्कि सभी प्रकार की वैकल्पिक यौनिकताओं की वास्तविकता को प्रस्तुत करता है। महेन्द्र भीष्म द्वारा लिखित ‘मैं पायल’ मात्र एक उपन्यास ही नहीं है, बल्कि पायल के जीवन का आत्मकथात्मक उपन्यास भी है।

पूरी दुनिया में वैकल्पिक यौनिकताओं के समुदाय का शोषण होता आया है। समाज की द्विलिंगी मानसिकता के कारण पूरे विश्व में यह समुदाय प्रताड़ित किया जाता रहा है।

धार्मिक रुढ़िवादी वैज्ञानिकों ने प्राणी जगत को मात्र द्विलिंगी माना था। सन् 1970 के बाद इस विचार को बल मिला कि प्राणी जगत मात्र द्विलिंगी नहीं है, बल्कि इसमें कई प्रकार की लैंगिकताएं और यौनिकताएं मौजूद हैं। इसे केवल दो या तीन के खांचों में बांटा नहीं जा सकता है।

लैंगिक विविधता और यौनिकता कुदरती चीज़ है, यह किसी विशेष समुदाय या क्षेत्र की प्रवृत्ति नहीं है। एलजीबीटी+ (LGBTIQA+) समुदाय की यौनिकता स्ट्रेट स्त्री और पुरुष से भिन्न होती है, इसीलिए इस समुदाय को सामाजिक स्वीकृति नहीं दी जाती है। इस समुदाय के लोगों के साथ होने वाले भेदभाव और हिंसक व्यवहार के चलते पूरी दुनिया में यह समुदाय दमित है। समलैंगिक भय (Homophobia) तथा रुढ़िवादी द्विलिंगी मानसिकता ने समाज में हिंसा की क्रूर प्रवृत्ति को जन्म दिया है।

द्विलिंगी मानसिकता वाले हमारे समाज में स्ट्रेट स्त्री एवं पुरुष को ही यौन सम्बन्ध बनाने का अधिकार है, क्वीयर समुदाय के लोगों को इस अधिकार से वंचित रखा गया है। इस समुदाय के लोगों का सेक्स सम्बन्ध बनाना कानूनी अपराध है, जिसके लिए अधिकतम आजीवन कारावास तक की सज़ा निर्धारित की गई है।

ब्रिटिश सरकार ने यह कानून अपने सभी उपनिवेशों (गुलाम देशों) में लागू किया था। भारत में यह कानून सन् 1861 में लागू किया गया था, इस कानून के तहत भारतीय दण्ड संहिता (IPC) में धारा 377 का प्रावधान था। धारा 377 के तहत समलैंगिक सम्बन्ध को अपराध घोषित किया गया था। बलात्कार के अभियुक्त के लिए भी इतनी कठोर सज़ा भारतीय कनून में नहीं थी।

गौरतलब है कि सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा कि समलैंगिकता अपराध नहीं है। करीब 55 मिनट में सुनाए इस फैसले में धारा 377 को रद्द कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को अतार्किक और मनमानी बताते हुए कहा कि LGBT समुदाय को भी समान अधिकार है।

अपराध किए जाने पर अपराधी को सज़ा होनी भी चाहिए, यह तो लोकतंत्र का नियम है लेकिन समलैंगिक जोड़े में रज़ामंदी से किये जाने वाले संभोग में, दोनों व्यक्तियों में न कोई पीड़ित है और न ही कोई अपराधी, न किसी प्रकार का अपराध हुआ है, फिर भी इन्हें सज़ा दी जाती है। इस प्रकार की प्रताड़ना से समलैंगिक लोगों के मानव अधिकारों का हनन होता है और भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ऐसा होना संविधान का उल्लंघन करने के सामान ही है।

धारा 377 का भय दिखाकर पुलिस समलैंगिक और क्वीयर समुदाय के लोगों को किस तरह ठगती और प्रताड़ित करती थी, इसका उदाहरण ए.रेवती स्वयं हैं। रेवती द्वारा तमिल में लिखी गई ‘द ट्रुथ अबाउट मी’ भारत की दूसरी हिजड़ा आत्मकथा है।

रेवती जो हिजड़ा समुदाय से हैं, अपने जीवन-यापन के लिए सेक्स वर्कर का काम करती थी। हिजड़ा समुदाय संगठित रूप से सेक्स वर्क नहीं करता है, इस समुदाय के लोगों का यह वैयक्तिक कार्य है, इसलिए अक्सर पुलिस इनका शोषण करती है।

रेवती को भी ‘धंधा’ करते हुए पकड़ा गया था और पकड़े जाने के बाद पुलिस ने उनका थाने में बलात्कार किया था। इस कानून के ज़रिये हिजड़ा समुदाय के लोगो को नारकीय यातनाएं दी जा रही हैं। रुढ़िवादी द्विलिंगी मानसिकता के कारण ही समाज में यह अपराध हो रहा है, जिसकी जानकारी लोगों तक पहुंच भी नहीं पाती। समाज भी इसी मानसिकता के चलते इस अमानवीयता पर चुप्पी साधे बैठा है।

भारत सहित दुनिया के कई देशों में ब्रिटिश सरकार ने इस कानून को लागू किया था। इसी कानून के तहत सन 1952 में प्रसिद्ध कंप्यूटर वैज्ञानिक एलन टूरिंग पर समलैंगिकता के अपराध में मुकदमा चलाया गया था। अपराध की सज़ा के रूप में उन्हें ‘समलैंगिकता के इलाज’ के रूप में हार्मोनल थैरेपी दी गई जिसके कारण वो बाद में नपुंसक हो गए। इस अमानवीयता के कारण उन्होंने केवल 42 साल की उम्र में आत्महत्या कर ली थी।

सन 1963 में ब्रिटिश सरकार ने समलैंगिकता को अपराध घोषित करने वाली धारा 377 को अपराध की श्रेणी से निकाल दिया। सन् 2009 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने एलन टूरिंग से मृत्यु उपरांत माफी मांगी थी।

समलैंगिक संबंध के जुर्म में इन्हें दोषी करार दिया गया और उन्हें बहुत प्रताड़ित किया गया। उनकी मृत्यु का कारण पता नहीं चल सका लेकिन माना जाता है कि समलैंगिक होने कारण उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी थी।

वैकल्पिक यौनिकता का समुदाय भारत में लगातार शोषण का शिकार बनता जा रहा है। कामसूत्र के देश भारत में कभी हर तरह की यौनिकता का आदर हुआ करता था, लेकिन आज हमारा देश पाश्चात्य रुढ़िवादी द्विलिंगी मानसिकता का कूड़ादान बन चुका है।

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