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पहाड़ी गांव की विषमताओं के बीच प्रेम की खट्टी-मीठी कहानी है गुलज़ार की ‘नमकीन’

बॉलीवुड की फिल्मों में आमतौर पर ऊंची-नीची पहाड़ी और वहां की हरी-भरी वादियों में प्रेमी जोड़ों के रोमांस को फिल्माने का चलन रहा है। ऐसे में इन्ही वादियों के किसी पहाड़ी गांव में तमाम विषमताओं के बीच भेंड़-बकरियां चराने में मस्त लोग, सिर पर लकड़ियों के गट्ठर और उपले लादे दौड़ती महिलाओं, इन निश्छल और सीधे-साधे लोगों के जीवन के प्रेम को फिल्मी पर्दे पर लाना महज़ फिल्म बनाना नहीं है, बल्कि इनके जीवन में प्रेम को बसाने जैसा है।

1982 में बनी गुलज़ार निर्देशित फिल्म ‘नमकीन’, एक पहाड़ी पर पत्थरों के एक पुराने घर में तीन जवान बेटियों (निमकी, मिट्ठू और चिनकी) के साथ रह रही एक माँ (ज्योति अम्मा) और उसके यहां आए एक किरायेदार ट्रक चालक (गेरूलाल) की कहानी है।

हंसाते-गुदगुदाते एक दृश्य के साथ फिल्म की शुरूआत होती है, जिसमें धनीराम (टी.पी. जैन) की गेरूलाल(संजीव कुमार) को किराये पर एक अच्छा कमरा दिखाने की तलाश में जाते हुए साइकिल से एक टक्कर का दृश्य शमिल है। अगर आपको इस दृश्य पर हंसी न आये तो समझियेगा कि आजकल की फिल्मों में दिखाये जाने वाले फूहड़ और अश्लील दृश्य-संवादों पर आपको हंसने की आदत पड़ चुकी है।

इसी दृश्य में आगे धनी, गेरू को समझाते हुए कहता है, “कौन सा तुम शादी के लिए घर देखने जा रहे हो, चार दीवार खड़ी कर उस पर छत डालो, हो गया मकान तैयार।” धनीराम ज्योति के घर की परिस्थिति से अच्छी तरह वाकिफ है, वह कैसे भी कर के गेरू को उस घर में ठहराना चाहता है ताकि उस घर की दाल-रोटी चलती रहे, जबकि धनी को भी खाने की गुणवत्ता को लेकर ज्योति अम्मा की दो-चार सुननी पड़ती है। दरअसल धनी उसी गांव में एक छोटा ढाबा चलाता है और ईमान से बड़ी ही सज्जन प्रवृत्ति का है। जहां आस-पास के लोग ज्योति अम्मा के परिवार पर फब्तियां कसते नहीं थकते, वहीं धनी एक ऐसा शख्स है जो उस घर की परवाह करता है।

शुरूआत में उस घर में गेरू को कभी चिनकी (किरन वैराले) और मिट्ठू (शबाना आज़मी) की चंचलता तो कभी ज्योति अम्मा (वहीदा रहमान) के तीखे बोल के चलते परेशानी ज़रूर हुई, पर बाद में पता चल गया कि इस घर में निमकी (शर्मिला टैगोर) जैसी ज़िम्मेदार, सुशील और गंभीर लड़की भी है और मां तो बस नाम की तीखी हैं। निमकी उस घर में दूसरी मां की तरह है, मां और दो छोटी बहनों के लिए वो अपना सब कुछ त्याग चुकी है। गेरूलाल भी स्वभाव से बहुत ही सज्जन, उस घर की परिस्थिति के देखते हुए खुद की ज़िम्मेदारी समझने लगता है और घर के छोटे-मोटे काम जैसे- बज़ार से कुछ सामान लाना इत्यादि कर दिया करता है। इसके चलते कई बार उसको आते-जाते लोगों से बहुत कुछ सुनना पड़ता है।

घर की गरीबी और और घर में ‘मर्द’ न होने की मजबूरी से संबंधित दृश्यों से ये साफ पता चल जाता है कि घर में तीन बिन ब्याही लड़कियां हैं जिसकी चिंता मां के चेहरे पर साफ-साफ दिखायी देती हैं। एक रात जब सब सो रहे थे तभी दरवाजे पर किसी के खांसने की आवाज़ आई, गेरू वहां पहुंचा तो वो बोला जुगनी यहां रहती है… जुगनी यहां रहती है। गेरू उसे यह कहते हुए भगा देता है कि यहां जुगनी नहीं, मैं रहता हूं। तब तक वहां पर निमकी और बाद में ज्योति अम्मा भी आ जाती हैं। सब कुछ जानने के बाद डरी-सहमी मां गेरू से बोल पड़ती है, “क्या रे, तुम्हें निमकी नहीं पसंद क्या।” यह वाक्य मां की सारी चिंता ज़ाहिर कर देता है।

सच्चाई यह है कि यह चिंता बस फिल्मों तक ही सीमित नहीं है, यह आज भी हमारे समाज का हिस्सा है। कई मीठी नोक-झोक फिल्म नमकीन के कामयाब दृश्य हैं, जो आपको भीतर ही भीतर गुदगुदाते हैं। निमकी से गेरू को पता चलता है कि मिट्ठू बोल नहीं पाती पर कविता बहुत अच्छी लिख लेती है।

गेरू और मिट्ठू के संवाद के बीच गीत, फिर से अइयो बदरा विदेशी, तेरे पंख में मोती जड़ूंगी… आपको किसी अपने की याद में तन्हा महसूस करवाने में सफल होता है।

एक दिन किसी नाट्य मंडली को आते देख ज्योति अम्मा घबरा जाती है और इसी बहाने कहानी गेरू के सामने आती है कि मां भी कभी नाचा करती थी, तब उसका नाम जुगनी था और उसके पति का नाम किशनलाल (राम मोहन) था जो सारंगी बजाता था। मां उसके सारंगी वादन शैली की दिवानी थी। एक दिन मां ने अब नाचना बंद कर  गृहिणी बनने की इच्छा जाहिर की, पर वह न माना, मां अलग रहने लगी और नहीं चाहती थी कि उसकी तीन बेटियां भी यही काम करें।

किशनलाल कई बार आता और मारता पीटता, एक बार वो मिट्ठू को ले गया और उसे बहुत मारा, जिसके चलते उसकी आवाज़ चली गई। गेरू ने उस रात का सारा किस्सा बताया कि वो वही था मां और अब वह यहां नहीं आएगा। इसी बीच एक गीत, जली कितनी रतिया, बड़ी देर से मेघा बरसे… ज्योति अम्मा के हालात को बयां करता है।

एकदिन अचानक पता चलता है कि अब गेरू को कहीं और काम करने जाना है और आज रात तक वहां पहुंचना है। वह मन ही मन सोच चुका था कि वह निमकी से ब्याह कर लेगा। निमकी शिवमंदिर जाना चाहती थी गेरू के साथ, पर नहीं गई और वह पूछ बैठी कि क्यी तुम मिट्ठू से शादी कर लोगे? गेरू ऐसा करने में असमर्थ रहा, क्योंकि वह मिट्ठू के लिए ऐसा पहले कभी नहीं सोचा था। निमकी से शादी करने की शर्त पर वापस लौट आने के लिए कहकर वह चला गया।

ट्रक चलाने से हुई थकान से वह एक रात कहीं पर रुका, वहां एक नाच मंडली में वह चिनकी और किशनलाल से मिला। चिनकी घर छोड़कर भाग आई थी। गेरू उसी रात निमकी से मिलने चल देता है, वहां पहुंचकर पता चलता है कि मिट्ठू पागल होकर पहाड़ से गिरकर मर गई और कुछ दिनों पहले मां भी, चिनकी से मिलकर तो वह आया ही था।

फिल्म बनाने के दृष्टिकोण से देखें तो फिल्म नमकीन अपने समय से बहुत आगे की लगती है। फिल्म  की वास्तविक इसकी खूबसूरत बुनावट में है, जहां महज पांच सक्रिय कलाकार पूरी कहानी कहने में कामयाब हैं। फिल्म ‘नमकीन’ के संवाद, पटकथा को मूर्तरूप देते हैं। संवाद और पटकथा में तनिक भी विचलन प्रतीत नहीं होता है। बात कलाकारों की हो तो निमकी के किरदार में शर्मिला टैगोर सभी कलाकारों से अव्वल रहीं।

फिल्म में निमकी एक ऐसा चरित्र है जिस पर बड़ी बहन जैसी समझदारी और मां जैसी ज़िम्मेदारी सौंपी गई है, जिसको शर्मिला ने बखूबी निभाया है।

संजीव कुमार को कमतर आंकने का तो सवाल ही नहीं है, घबराहट में कहे गए उनके संवाद, उनके अभिनय की पराकाष्ठा है। मिट्ठू के मीठेपन को शबाना आज़मी अंत तक बरकरार रखी हैं और चिनकी की चंचलता को किरन वैराले संभाले रखी। गेरू के संग अपने अंतिम संवाद में अचानक चिनकी में जो परिपक्वता व तेज़ी नज़र आई वह उनकी बेहतरीन अभिनय शली को दर्शाता है। मां के क़िरदार में वहीदा रहमान अपने अभिनय से आश्चर्यचकित कर देती है, पर सच्चाई तो यह है कि शर्मिला टैगोर ही बीस साबित होती हैं। गुलज़ार साहब पटकथा, संवाद और गीत तीनों के कृतिकार हैं और फिल्म के निर्देशक भी। उनके लिए कुछ कह देना उनको कमतर आंकना ही होगा।

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