Site icon Youth Ki Awaaz

एक महिला को पेड़ पर लटकाकर पीटने से समाज की इज्ज़त बचती है, तो इस समाज पर शर्म है

आठ मार्च यानी महिला दिवस को पूरा देश महिला सशक्तिकरण के रूप में मना रहा था, लेकिन दो दिन बाद ही यानि दस मार्च को उत्तर प्रदेश में ज़िला बुलंदशहर के गांव लौगा में एक महिला को पूरे गांव के सामने पेड़ से लटकाकर पीटा  गया। पेड़ से लटकी  वो महिला दर्द से चिल्लाती रही और फिर बेहोश हो गई। परन्तु गांव के लोग चुपचाप देखते रहें।

इस घटना का वीडियो अब नवरात्री के समय सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद प्रशासन तक जा पहुंचा। अब कहा जा रहा कि ये महिला अपने घर से चली गई थी और जब एक हफ्ते बाद वह लौटी तो गांव और परिवार ने उसे सज़ा दी।

दरअसल, इस महिला के पति और परिवार को उसके चरित्र पर शक था। इसलिए उसके पति ने उसे सबके सामने पीटा। ‘चरित्र’ तो जानते होंगे ना आप सब? दरअसल, मुझे लिखने में शर्म आ रही है। शायद आपको पढ़ने में भी शर्म आये, लेकिन अभी तक लोगों के ज़हन में चरित्र का मतलब एक महिला की टांगों के बीच का एक निर्धारित स्थान होता है, अधिकांश लोग जिसे इज्ज़त भी कहते हैं।

अच्छा जब चरित्र महिला की टांगों के बीच के संवेदनशील हिस्से को समझा ही जाता है तो फिर चरित्र प्रमाणपत्र इस तरह की तहसील में क्यों बनाया जाता है, इसे अस्पताल में क्यों नहीं बनाया जाता? जब चरित्र को एक अंग से जोड़कर ही देखा जाता है तो तहसील वाले क्या जाने किसका अंग कैसा है।

शायद उन लोगों के स्वभाव में ही चरित्र का झूठा चोगा हो या खुद पर ज़रूरत से ज़्यादा मर्दानगी का गुरूर. मुझे नहीं पता, पर इतना जानता हूं कि मैंने इसी माह आठ मार्च को पता नहीं कितने लोगों की पोस्ट पर पढ़ा था. “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया.” ये अथर्वेद का मन्त्र है जिसमें नारी को महिमा मंडित किया गया है। परन्तु ये 10 मार्च की वीडियो है जिसमें नारी को दण्डित किया गया है।

नेशनल क्राइम ब्यूरो के रिकॉर्ड बताते हैं कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में उत्तर प्रदेश 2015 और 2016 में सबसे ऊपर था। 2015 में पति और रिश्तेदारों की क्रूरता के मामले 8,660 मामले दर्ज हुए थे। 2016 में 11,166 ऐसे मामले दर्ज हुए थे। अब कुछ दिन बाद 2017 के आंकड़े भी आ जायेंगे शायद ही ऐसे मामलों मुश्किल ही गिरावट देखने को मिले।

दरअसल आंकडें कुछ यूं दिए जाते हैं ताकि इन्हें देखकर लोगों के अन्दर संवेदना जागे, वो संजीदा हो, स्वयं जागरूक हो और दूसरों को भी जागरूक करें। किन्तु इन आंकड़ों से किन लोगों की संवेदनाएं जगाने की बात की जाये? उन लोगों की जिनका ज़मीर पेड़ से बंधी एक बेबस लाचार महिला पर बेल्ट से पिटे जाने पर नहीं जागा। या उनके जो उस मार खाती दर्द से चिल्लाती, अंत में बेहोश जाती महिला को ससुरी तक कह रहे थे।

हो सकता है आज मेरे शब्द आपको पीड़ित करें, किसी महिला को बुरा लगे, कोई कहे की ये क्या लिखने का तरीका है। शब्दों को मर्यादा की चासनी में लपेटना चाहिए। ताकि गरिमा बची रहे और लोगों की याद्दाश्त में एक महिला भी सीता माता की तरह ही बलिदानी, आज्ञाकारी और पतिव्रता होने के लिए आदर्श बनी रहे।

लेकिन ये आज की सीता इन सबसे जकड़ी नहीं जाना चाहती। वो उन्मुक्ता चाहती है, वो स्वयं का स्वयं पर अधिकार चाहती है, वो खुद को छूना चाहती है,  वो अधिकार चाहती है अपनी भावनाओं के बाँटने का,  वो नहीं चाहती कि किसी स्वंयवर में कोई तीर या धनुष तोड़कर उसे चुना जाए, उसे हमेशा उसके पीछे चलना पड़े और अपने किये का भी उसे ही भुगतना पड़े और पति के किये का भी। शायद वो अब थक चुकी हैं इस चरित्र की अग्नि परीक्षा देते-देते।

घटना के बाद कहा जा रहा है कि इस क्रूरता का फैसला सामूहिक रूप से गाँव की पंचायत में लिया गया था। अब अगर इक्कीसवीं सदी की पंचायत भी न्यायालय को नज़रअंदाज कर लोगों की सामूहिक अंतरात्मा को संतुष्ट करने में रुचि ले रही हैं तो फिर मध्यकाल में चर्च की धार्मिक पंचायतों  ने यूरोप में लाखों महिलाओं को चुड़ैल और बदचलन बताकर जीवित जला दिया उन्हें क्या बोलें, वह पंचायतें  भी समाज की  सामूहिक अंतरात्मा ही संतुष्ट कर रही होगी?

कबीले गये, मध्यकाल गया, राजा और रजवाड़े गये समाज में भी समय के साथ बदलाव आया पर महिलाओं से उम्मीद के पैमाने नहीं बदले। उनके चरित्र का स्थान नहीं बदला। यह सब अभी भी इस राष्ट्र के बर्दाश्त से बाहर है जो अभी स्वतंत्र और सशक्त महिलाओं को लेकर सहज नहीं है। उसका प्रेम झूठा, उसका सतीत्व झूठा, उसकी साधना झूठी, उसका त्याग उसकी ममता सब कुछ झूठी। वो किसी के साथ हंस ले, बोल ले, मुस्कुरा ले, तो चरित्रहीन? और  लाखों की संख्या में स्टेज पर नाचती महिला को देखकर टांगों के बीच हाथ भींचकर बैठने वाले सदाचारी? यदि हाँ तो फिर ये मेरा ब्लॉग भी चरित्रहीन ही कहा जाये ना?

Exit mobile version