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महिलायें आत्मविश्वासी ना हो जायें इसलिए समाज उन्हें फैसले नहीं लेने देता

I’m a modern woman with a progressive outlook. I’ve travelled extensively and practiced medicine in different parts of the globe

“तन के भूगोल से परे,एक स्त्री के मन की गांठें खोलकर
कभी पढ़ा है तुमने, उसके भीतर का खौलता इतिहास?
पढ़ा है उसकी चुप्पी की दहलीज़ पर बैठे, शब्दों की प्रतीक्षा में उसके चेहरे को?
अगर नहीं तो क्या जानते हो तुम, रसोई और बिस्तर के गणित से परे, एक स्त्री के बारे में?”- निर्मला पुतुल 

कोई भी विचार निर्वात में पैदा नहीं होता है बल्कि वह उन परिस्थितियों के गर्भ से जन्म लेता है, जिसके मूल में जड़ हो चुके समाज की रूढ़ दीवारों को गिराकर परिवर्तन को आत्मसात करना होता है।

निश्चित ही यह बदलाव तय मानकों और भूमिकाओं को बदलकर नए मानक गढ़ने और नई भूमिका तलाशने की कवायद होती है। जहां त्याग, शर्म, सहनशीलता स्त्रियों के ‘नैसर्गिक गुण’ बताए गए हैं और वीरता, विजय, प्रतिरोध को पुरुषत्व का पर्याय। जहां स्त्रियों की उड़ान घर की चौखट तक सीमित कर दी गई है, जहां स्त्री एक वस्तु है, जहां स्त्री का परम ध्येय पुरूष को ‘सम्पूर्णता’ प्रदान करना है।

इससे आगे बढ़कर कहें तो यह अधिकारों की लड़ाई है। अब सवाल यह है कि लड़ाई किससे है? इसकी शुरूआत कब हुई? क्या इसका चरित्र सभी जगह एक रूप से समान रहा है या समय और जगह के हिसाब से इसमें बदलाव आया है? अधिकारों की यह लड़ाई कहां तक पहुंची? ऐसे कई सवाल हैं, जिनसे जूझकर हम ये जान पाएंगे कि स्त्रियों की दशा और दिशा किस प्रकार की है।

अगर पहले सवाल पर विचार करें कि आखिर यह लड़ाई किसके खिलाफ है, तो इसके कम-से-कम इसके दो उत्तर दिए जा सकते हैं। यह लड़ाई एक तरफ उस ‘सोच’ से है, जो स्त्रियों को पुरुषों से कमतर समझते हुए उसे दूसरे दर्ज़े का इंसान मानती है, तो दूसरी लड़ाई इस सोच से उपजी उस ‘व्यवस्था’ से है जहां उत्पादन से लेकर निर्णय लेने की प्रक्रिया तक में महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है। इस दोहरी शोषणकारी व्यवस्था को बहुधा पितृसत्ता का नाम भी दिया जाता है।

19वीं सदी में महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए व्यापक प्रयास किए गए, उसके बाद से महिलाओं की स्थिति में लगातार सुधार हुआ है।

गैरबराबरी को लेकर मूलभूत प्रश्न उठाए गए, समान वेतन, चिकित्सा सुविधा, गर्भपात के कानूनी अधिकार, कार्य स्थल पर सुरक्षा आदि के लिए समाज व राज्य की ओर से प्रयास किए गए। आगे चलकर 2001 को ‘महिला सशक्तिकरण वर्ष’ के रूप में घोषित किया गया।

आज सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी दृष्टिकोण से महिलाओं का स्थिति में सकारात्मक बदलाव देखने को मिल रहे हैं, लेकिन यह बदलाव गुणात्मक (qualitative) से ज्यादा गणात्मक (quantitative) है। अर्थात आंकड़ों के अनुसार महिलाएं साक्षर हैं, हरेक क्षेत्र में उनकी भागीदारी भी है लेकिन आज भी वो पूरे तरह आत्मनिर्भर नहीं है। देश का संविधान हो या कानून, ये महिलाओं को सशक्त बनाने में सहयोगी तो रहा है लेकिन आज भी महिलाएं पितृसत्ता की बेड़ियों से पूरी तरह आज़ाद नहीं है।

हर रोज़ महिला के खिलाफ बढ़ते अपराध, गिरता सेक्स रेशियो से लेकर महिल स्वास्थ्य में गिरावट इस ओर इशारा करती है कि महिला दिवस पर कितना भी स्त्री-शक्ति का गुणगान कर लिया जाए, सच यही है कि आधी आबादी के बड़े हिस्से के लिए ‘डिसीजन-मेकिंग’ अभी भी पहुँच से बहुत दूर है। क्या पढ़ेगी, कितना पढ़ेगी, कहां पढ़ेगी से लेकर क्या पहनना है तक का निर्णय बालिग हो चुकी लड़कियां स्वयं ले पाती हैं। यहां तक कि उनके द्वारा अर्जित धन को खर्च कैसे करना है और शादी किससे होगी जैसे फैसले भी मुख्यतः घर के पुरूष ही लेते रहे हैं।

सशक्तिकरण के इस दौर में महिलाओं की स्थिति, दोहरी भूमिका में कहीं उलझ सी गई है अर्थात बाहर भी संभालो और घर भी संभालो।

इसके बावजूद हम सशक्तिकरण के वजूद को नकार नहीं सकते हैं। अब भी पुरूष और महिला के बीच पितृसत्ता की खाई को भरने के लिए ‘जेंडर संवेदनशीलता’ की सख्त ज़रूरत है, जो दंभी पुरूष वर्ग को यह एहसास करवा पाए- ‘तन के भूगोल से परे एक स्त्री की भी अपनी ज़िंदगी होती है, जिसे स्वतंत्रता और समानता चाहिए।’

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