Site icon Youth Ki Awaaz

सरकारी शिक्षा के विरोध में झारखंड के आदिवासी चला रहे हैं अपना स्कूल

झारखंड के स्थानीय मीडिया में एक खबर चल रही है जो राष्ट्रीय महत्व का होते हुए भी टीवी की सनसनी पत्रकारिता में खो गई है।

दरअसल झारखण्ड की राजधानी रांची से सटा है खूंटी। यह एक आदिवासी बहुल ज़िला है, यहां हाल ही में कई ग्रामसभा ने फैसला लिया है कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं भेजेंगे। फिलहाल खूंटी प्रखंड के चमड़ी, बरबन्दा, भंडरा, कुदतोली, और बुंडू प्रखंड के बेड़ा, पंसकाप, हजेंद गांव में पारम्परिक ग्रामसभा ने यह फैसला लिया है। सैकड़ों आदिवासियों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजना बंद कर दिया है। हालांकि इन बच्चों के लिए ग्रामसभा ने गांव के ही कुछ शिक्षित नवयुवकों को चुना है जो पेड़ के नीचे बच्चों की क्लास ले रहे हैं।

पेड़ के नीचे बच्चों की चलती क्लास, फोटो क्रेडिट- अजय शर्मा

स्थानीय अखबार की माने तो गांव के लोगों ने सरकारी व्यवस्था और शिक्षा की बदहाली से तंग आकर यह फैसला लिया है। ग्रामीण बहुत सालों से सरकारी स्कूल भवन ठीक करने, शिक्षकों की बहाली और दूसरी सुविधाओं की मांग कर रहे थे, लेकिन आदिवासियों की इन मांगों को अनसुना कर दिया गया, जिसका नतीजा है कि उन्होंने यह फैसला लिया है।

एक सच यह भी है कि आदिवासियों को कथित मुख्यधारा से जोड़ने के लिए एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था उनपर थोपी जा रही है, जो ना तो उनकी भाषा से मेल खाता है और ना ही उनके वतन संस्कृति से उसका कोई नाता है।

ऐसे में जो आदिवासी बच्चे प्रारम्भिक शिक्षा भर ले पाते हैं उनकी ज़िंदगी मे उस शिक्षा का कोई महत्व नहीं रह पाता है।

कई आदिवासी नेताओं का मानना है कि आदिवासी समाज ने सदियों से एक खास परंपरागत शिक्षा देने की व्यवस्था रही है जो उनके जंगल ज़मीन और नदी से जुड़ी हुई है। लेकिन आधुनिक शिक्षा व्यवस्था उन्हें अपनी संस्कृति से कहीं दूर पहुंचा देती है।

यही वजह है कि आदिवासी बहुल ग्रामसभा ने अपने हिसाब से बच्चों को पढ़ाने के लिए पाठ्यक्रम भी बनाया है। इस पाठ्यक्रम में बताया जा रहा है- क से कानून, ख से खनिज। यानी खनिज संपदा आदिवासियों की है और आदिवासी का अपना कानून है। हालांकि इसमें कुछ विवादास्पद चीज़ें भी पढ़ाई जा रही हैं- मसलन च से चोर, चाचा नेहरू चोरों के प्रधानमंत्री थे। कई दूसरी जातियों को दिकू बताया गया है।

https://www.youtube.com/watch?v=Qj3Zuq23Je0&feature=youtu.be

आदिवासी कर रहे हैं पत्थलगड़ी

दरअसल इसकी एक वजह पत्थलगड़ी का होना भी बताया जा रहा है। खूंटी के आसपास कई गांवों में अखिल भारतीय आदिवासी महासभा द्वारा पत्थलगड़ी की जा रही है।

पत्थलगड़ी, आदिवासियों की पुरानी परंपरा है, जिसमें वे प्राकृतिक कानून के हिसाब से गांव पर शासन करते है या गांव का सीमांकन आदि करते हैं।

अभी खूंटी और आसपास के इलाके में पत्थ   लगड़ी किया जा रहा है। इसमें भारतीय संविधान पत्थर पर लिखकर ग्राम सभा स्वतन्त्रता, बाहरी लोगों का निषेध, पांचवी अनुसूचित क्षेत्रों में पेसा कानून लागू करने आदि की घोषणा की जाती है। इन पत्थरों को गांव के बाहर लगाया जाता है।

आदिवासी महासभा का कहना है कि आदिवासियों को उनका अधिकार दिया जाए, क्षेत्र में प्राकृतिक कानून लागू हो और इलाके में सभी पदों पर आदिवासियों को पूर्ण आरक्षण दिया जाए।

हालांकि यह नया मामला नहीं है। दैनिक अखबार हिंदुस्तान के खूंटी संस्करण में लगातार वहां के स्थानीय पत्रकार अजय शर्मा इसपर लिखते रहे हैं। इसी अखबार की एक खबर के अनुसार पिछले एक साल से खूंटी के 100 से ज्यादा गांवों में पत्थलगड़ी किया गया है। इन गांवों में सरकारी योजनाओं का भी बहिष्कार हुआ है।

अभी पिछले साल अगस्त में ही बड़े पुलिस अधिकारियों सहित 150 पुलिसकर्मियो को ग्रामीणों द्वारा बंधक बनाने की खबर भी आई थी। पुलिस ने आदिवासी महासभा के राष्ट्रीय सचिव कृष्णा हांसदा सहित 20 लोगों पर राजद्रोह आदि मुकदमा करके गिरफ्तार भी किया था।

पत्थलगड़ी के तहत, पत्थर पर लिखे भारतीय संविधान के अंश, फोटो क्रेडिट- अजय शर्मा

अगर थोड़ा ज़ूम आउट करके देखें तो यह घटना सिर्फ अकेले झारखंड की नहीं है। बल्कि छत्तीसगढ़, ओडिसा, मध्यप्रदेश जैसे सेंट्रल इंडिया के लगभग सारे आदिवासी इलाके सुलग रहे हैं। आज़ादी के बाद से ही प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए आदिवासियों को विस्थापित किया जाता रहा है। अब तक डेवलपमेन्ट प्रोजेक्ट से विस्थापित लोगों में 58% आदिवासी हैं। न तो उन्हें रोज़गार, शिक्षा या हेल्थ की सुविधा दी गई उलटे उनके जंगल ज़मीन और जीविका को खत्म कर दिया।

अब यह रुककर सरकार को सोचने की ज़रूरत है कि जिनके संसाधनों पर बड़े-बड़े शहर बनाये गए हैं उनके असली हकदार को न्याय देने का यही सही वक्त है नहीं तो देर हो जाएगी।

Exit mobile version