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लेनिन की मूर्ति तोड़ने या पटेल की मूर्ति बनाने से नहीं हल होंगी समस्याएं

खबर है त्रिपुरा के बेलोनिया में बुलडोज़र की मदद से रूसी क्रांति के नायक व्लादिमीर लेनिन की मूर्ति को गिरा दिया गया। त्रिपुरा के एसपी कमल चक्रवर्ती के मुताबिक सोमवार को दोपहर 3:30 बजे के करीब बीजेपी समर्थकों ने इसे अंजाम दिया।

कहीं लेनिन की मूर्ति सोशल मीडिया के खूंटे से बंधे कुछ लोगों के लिए वो चारा तो नहीं, जिसे कई दिनों तक खाया जा सके?

मुझे लगता है कि लेनिन सिर्फ प्रतिमाओं तक सीमित नहीं है, वो एक विचारधारा है जो मस्तिष्क में सुरक्षित रहती है और जिसे सोमवार को फिर से ज़िंदा कर दिया गया।

शायद ऐतिहासिक प्रतीकों को गिराना या बनाना दोनों ही इंसान की सोच में आए बदलाव के प्रतीक है, पर विश्व में पटेल की सबसे ऊंची प्रतिमा बनाने वाले, शिवाजी और राम की मूर्ति गढ़ने वाले, लेनिन की मूर्ति से क्यों डर गए? मुझे नहीं पता इसके पीछे क्या कारण रहे होंगे, पर इतना सवाल ज़रूर है कि क्या नवीनतम चुनी हुई सरकार बस एक पुतले से डर गई या एक विचारधारा से? साथ ही क्या ऐसा संभव है कि 125 करोड़ जनता की आस्था सिर्फ वर्तमान सरकार और नागपुर संघ के कार्यालय के प्रति ही जागे?

सरकार तो वहां भी होती है जहां तानाशाही होती है और सरकार वहां भी होती है जहां राजतंत्र होता है। बस लोकतंत्र में महत्वपूर्ण चीज़ यह होती है कि वहां विपक्ष भी होता है। मतलब जहां अनेक विचारधाराओं को सामान अवसर मिले, उसे लोकतंत्र कहा जाता है। लेकिन जिस तरह लेनिन की मूर्ति गिराई गई, इससे तो लगता है कि सरकार की नज़र में विपक्ष के लिए कोई स्पेस है ही नहीं। यदि मैं सही हूं तो बुलडोज़र लेनिन की मूर्ति पर नहीं बल्कि लोकतंत्र पर चला है। इस कराहते हुए लोकतंत्र की आवाज़ तभी तो पूरे देश में गूंज रही है।

मूर्तियां या पुतले गिराने का वैश्विक इतिहास पुराना रहा है, कहा जाता है कि सन् 1357 में इटली के सिएना शहर में चौराहे पर लगी वीनस की मूर्ति को लोगों ने गिरा दिया था। वीनस रोम के लोगों की देवी थी, उसे खूबसूरती और सेक्स की देवी मानकर पूजा जाता था। इसके बाद मध्यकाल में भारत में भी इस्लाम के आगमन के बाद काफी तोड़-फोड़ का इतिहास रहा है। लेकिन समय के साथ तस्वीरें धुंधली हो जाती हैं।

शायद यही इन मूर्तियों को तोड़ने का उद्देश्य भी होता होगा कि पहले के दौर की सोच को मिटा दिया जाए और उस दौर के प्रतीकों का खात्मा कर दिया जाए।

अमेरिकन कवि और इतिहासकर केली ग्रोविअर कहते हैं, “अगर आप किसी देश को समझना चाहते हैं, तो यह मत देखिए कि उन्होंने कौन से प्रतीक लगाए हैं, यह देखिए कि उन्होंने कौन से प्रतीक मिटाए हैं।” कितना दिलचस्प है ना कि हम कुछ बातों, कुछ सिद्धांतों को हमेशा याद रखने के लिए कुछ बुत लगाते हैं या कुछ प्रतीक बनाते हैं।

अफगानिस्तान के बामियान में बुद्ध की विशाल प्रतिमा तालिबान ने खंडित की थी, शायद सबको याद होगा। इराक में लोगों ने सद्दाम हुसैन के विशालकाय बुत रस्सियों से खींचकर गिराए थे। 2011 में लीबिया के लोगों ने कर्नल गद्दाफी के बुतों को ढहा दिया था। ताज़ा मामला देखें तो तमिलनाडु के वेल्लूर जिले में पेरियार की मूर्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोप में दो लोगों को गिरफ्तार किया है।

आखिर इसे हम क्या कहेंगे? दूसरी विचारधारा के प्रति सहनशीलता की कमी या सच को बर्दाश्त कर पाने की हिम्मत की कमी या फिर जो नागपुर चाहता है कि वही सब अब इस देश में होगा? क्या इसके बाद महात्मा बुद्ध के अनुयाई सम्राट अशोक की लाट गिराकर भी हिंदुत्व का संदेश दिया जाएगा?

आज देश में असंख्य विचारधाराओं को समागम है, शायद यही इस देश के लोकतंत्र की खूबसूरती है।

समस्याओं का हल लेनिन की मूर्ति गिराकर या शिवाजी, पटेल की प्रतिमा बनाकर तो होने से रहा। क्यों न देश में ऐसा माहौल तैयार किया जाए कि लोगों को इन प्रतिमाओं की ज़रूरत ही न पड़े।

वर्तमान सरकार में अलग-अलग धड़े हैं। इसमें पहला है ऊपरी धड़ा, जिसमें खुद माननीय प्रधानमंत्री भी शामिल है। ये वो हैं जो विदेशों में या देश में अक्सर यह कहते नज़र आते हैं कि यह देश बुद्ध और गांधी के सिद्धांतों से चलेगा। दूसरा धड़ा वो है जो सोशल मीडिया पर सक्रिय है, जिसे रामराज्य चाहिए, उसे बुद्ध और गांधी से कोई लेना-देना नहीं है।

पार्टी का एक निचला तबका भी है जो सरकार में विधायक और सांसद के रूप में हिस्सेदार है और उसे सिर्फ पंडित दीनदयाल चाहिए। बेशक पंडित दीनदयाल या अन्य किसी धार्मिक या राजनीतिक दर्शन से जुड़े लोगों को ले आइये, लेकिन उन्हें प्राथमिकता दीजिये जिन्होंने आमजन के लिए गांधी और लेनिन से बड़ा कोई आन्दोलन खड़ा किया हो। लेनिन कोई धर्म गुरु नहीं था, वो बस रूस में तानाशाही से जूझते जन समुदाय के लिए आशा की एक किरण था। शायद तभी उसे एशिया के जागरण का पुरोधा कहा गया होगा।

लेनिन के कारण चीन की राजनीति में उफान आया, तुर्की, फारस समेत ब्रिटिश हिंदुस्तान में भी अंग्रेज़ों के खिलाफ बैचेनी आई। करोड़ों दबे कुचले हुए मध्ययुगीन गतिहीनता का शिकार बने लोग, नया जीवन हासिल करने तथा मूल मानवीय अधिकारों एवं जनवाद के लिए संघर्ष करने के लिए जाग उठे। लेनिन के कारण रूस के मज़दूर जब जागे तो तानाशाहों का प्रतिक्रियावाद, सैन्यवाद, सामंतवाद और पुरोहितवाद अंधकार की बांहों में पहुंचा। जीते जी नरक की ज़िंदगी जी रहे लोगों में आशा की किरण जागी।

मैं लेनिनवादी नहीं हूं, लेकिन किसी भी काल में जिसने भी लोगों को जगाया, वो हर इंसान वंदनीय है। चाहे वो लेनिन हो, गांधी हो, राजा राम मोहन राय हो या महर्षि दयानंद सरस्वती।

त्रिपुरा के बेलोनिया क्षेत्र से निर्वाचित भाजपा विधायक अरुण चंद्र भौमिक कह रहे हैं कि लेनिन, स्टालिन, मार्क्स सबको जाना होगा। मूर्तिंयां खत्म और अब उनके नाम वाली रोड भी खत्म होंगी। बेशक इन्हें हटा दीजिये, बल्कि इतिहास को भारतीय संस्कृति के शुद्ध वाशिंग पाउडर से धो डालिए। लेकिन जब नया इतिहास लिखो तो फिर उसमें उनका नाम लिखना जिन्होंने गरीब, मज़दूर, जातिवाद और छुआछुत मिटाकर हज़ारों सालों से दबे-कुचले वंचित वर्ग को समानता का अधिकार दिलाया हो।

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