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महाभोज : लोकतंत्र में सिस्टम से ‘हारे हुए नायकों’ की कहानी

मन्नू भंडारी ने अपने उपन्यास ‘महाभोज’ में वर्तमान राजनीति के उस पक्ष को सामने लाकर रख दिया है, जिसकी हम आम लोगों को ज़रा भी भनक नहीं होती है। यह किताब 1979 में लिखी गई थी, लेकिन आज भी प्रासंगिक है और जब तक देश में लोकतंत्र रहेगा, तब तक प्रासंगिक रहेगी। दूसरे शब्दों में इस किताब को कालजयी रचना कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। महाभोज शब्द का अर्थ भी किताब की तरफ आकर्षित करता है। एक ऐसा आयोजन जिसमें सभी खाने के लिए आमंत्रित हों! आखिर ऐसा क्या परोसा गया होगा, जिसमें सभी शामिल होना चाहते हैं?

किसकी लाश है जिसपर राजनेता, अफसर, पत्रकार सब गिद्धों के झुण्ड की तरह टूट पड़े हैं? सही मायनों में ‘महाभोज’ की कहानी के तीन ‘हारे हुए नायक हैं’- बिंदा, लोचन बाबू, और एस.पी. सक्सेना।

पूरी कहानी बिसु नामक एक व्यक्ति की मौत के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक पढ़ा-लिखा गांव का लड़का है। वह किसान और मज़दूरों के लिए कुछ करना चाहता है, समाज के दबे-कुचले वर्ग को ऊपर उठाना चाहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो क्रांति ला देना चाहता है। लेकिन इस सड़ चुके सिस्टम से वह परेशान हो जाता है। सिस्टम से लड़ते-लड़ते ही वह एक षड्यंत्र का शिकार होता है और उसकी मौत हो जाती है।

उसकी मौत पर राजनीतिक पार्टियां अपनी-अपनी रोटियां सेकने लगती हैं, सिस्टम से लड़ना आसान नहीं होता। बिसु का मित्र है बिंदा जो बिसु की मौत के बाद उसके अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन सिस्टम द्वारा बड़ी ही चालाकी से बिंदा को ही बिसु के हत्यारे के रूप में फंसा दिया जाता है।

लोचन बाबू मंत्री हैं, राजनीति के कीचड़ में लोचन बाबू कमल के फूल की तरह हैं। राजनीति के इस नंगे खेल से परेशान लोचन बाबू, अपनी ही पार्टी से बगावत कर देते हैं, लेकिन इस सिस्टम के सामने वे भी महज़ मूकदर्शक बनकर रह जाते हैं। इस पात्र के ज़रिये ये बताने का प्रयास किया गया है कि किस तरह एक ईमानदार व्यक्ति इस बेईमान सिस्टम का हिस्सा होते हुए बस लाचार और बेबस है।

सक्सेना जी एस.पी. हैं, ईमानदार हैं। चूंकि ईमानदार हैं तो इनाम के रूप में इनका ट्रांसफर होता रहता है। बिसु की मौत की तहकीकात की ज़िम्मेदारी इन्हें ही मिली थी, लेकिन ईमानदारी महंगी पड़ गई। केस की ज़िम्मेदारी इनसे छीन ली गई और डी.आई.जी. सिन्हा ने बिंदा को अपराधी साबित करते हुए केस को रफा-दफा कर दिया। सक्सेना आहत हो जाते हैं और वंचितों के प्रतिरोध को आगे जारी रखने का संकल्प लेते हैं।

‘महाभोज’ की कहानी का सार है कि बिसु के बाद बिंदा और बिंदा के बाद सक्सेना जैसे क्रांतिकारी, एक के बाद एक क्रांति की मशाल जलाए रखेंगे। क्रांति और परिवर्तन का जज़्बा लिए अपना सब कुछ बलिदान करते रहेंगे।

लेकिन ये सिस्टम कई सालों से ऐसा ही चला आ रहा है और ऐसा ही चलता रहेगा। ये वो हीरो हैं जो बार-बार हारेंगे और हारते रहेंगे लेकिन लड़ते रहेंगे, हार नहीं मानेंगे और समाज के लोगों के बीच अपनी छाप भी बराबर छोड़ते रहेंगे।

‘महाभोज’ की कहानी के एक और पात्र हैं ‘दा साहब’। इस पात्र के ज़रिए यह बताने का प्रयास किया गया है कि कैसे हाथी के दिखाने के दांत और चबाने के दांत अलग-अलग होते हैं। दा साहब ने अपनी छवि को ऐसे मेन्टेन करके रखा हुआ है कि मानो उनसे ईमानदार नेता कोई नहीं है। थोड़ी ईमानदारी है भी, लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर वो सजग भी दिखते हैं। विरोधी पार्टी की रैलियों को भी मुख्यमंत्री होने के नाते शांतिपूर्ण तरीके से निपटाने की ज़िम्मेदारी निभाते हैं।

असल में अपनी ईमानदारी को साबित करने के लिए थोड़ी ईमानदारी दिखानी पड़ती है। कई और मौकों पर उन्होंने खुद को ईमानदार साबित किया है। लेकिन कई मौकों पर अपनी पार्टी की जीत के लिए वे साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाने से भी नहीं चूकते हैं। मशाल नामक अखबार को अपने पक्ष में खबर चलाने के लिए वे खरीद लेते हैं। बिंदा को बिसु की मौत का अपराधी साबित करने का रास्ता भी उन्हीं का दिखाया हुआ था। अपनी राजनीतिक सूझबूझ से उन्होंने एक तीर से कई निशाने लगाए।

कुल मिलाकर यह उपन्यास सियासत के उस पक्ष को हमारे सामने रखता है जिसकी आम जनता को कभी खबर ही नहीं होती। ये कहानी राजनीतिक चालों की है और उसके बचाव में चली गई दूसरी चालों की भी है। शतरंज के मोहरों की तरह अपनी जान-पहचान, अपने रसूख के इस्तेमाल की कहानी है ‘महाभोज’।

‘महाभोज’ पढ़कर आपको बेचैनी महसूस हो सकती है, इसे पढ़कर गुस्सा आ सकता है, इसे पढ़कर निराशा भी होगी। इस किताब से निकलकर एक लाचार आदमी की व्यथा आपके अंदर घुस सकती है।

जनता हमेशा वही देखती है जो उसे सरकार के द्वारा दिखाया जाता है, बिके हुए अखबारों और मीडिया के द्वारा दिखाया जाता है… लेकिन अगर आप ये जानना चाहते हैं कि पर्दे के पीछे क्या चल रहा है तो यह किताब ज़रूर पढ़ें।

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