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मुंशी प्रेमचंद की पहली फिल्म और मुंबई के उनके कड़वे अनुभव की कहानी

फिल्मों में किस्मत आज़माने प्रेमचंद भी कभी बंबई आए थे। बंबई पहुंचकर जो कहानी उन्होंने सबसे पहले लिखी वह ‘मिल मज़दूर’ थी। सिनेमा के लिए लिखी गई कथाकार की पहली कहानी यही थी । बंबई रुख करने का प्रश्न आर्थिक एवं रचनात्मक आश्रय से जुड़ा था। महानगर आने के समय प्रेमचंद की वित्तीय स्थिति डांवाडोल थी, कर्ज़ अदायगी के लिए पर्याप्त पूंजी पास में नहीं थी। राशि का समय पर भुगतान न होने से हालात चिंताजनक हो गए थे। एक समर्थवान लेखक के लिए फिल्मों में पर्याप्त अवसर थे। बनारस में रहते हुए इस राशि का चुकाया जाना असाध्य प्रयास ही जान पड़ता था, परिस्थितियों को देखते हुए वह मायानगरी चले आए।

प्रेमचंद को सिनेमा की ओर लाने की पहल ‘अजंता सिनेटोन’ व मोहन भवनानी ने की थी। कंपनी ने उन्हें बैनर का लेखक नियुक्त किया। इस समय में उद्योग जगत पर कथा लिखना एक नई पहल थी। समूचा विश्व आर्थिक मंदी से जूझ रहा था, आर्थिक मंदी(1929) का प्रभाव अब भी बरकरार होने की वजह से सभी लोग उद्योग जगत की ओर देख रहे थे। उद्योगों को रोज़गार सृजन का महा स्रोत माना गया। आर्थिक सुधारों के नाम पर औद्योगिक इकाइयों की स्थापना हुई। प्रेमचंद की ‘मिल मज़दूर’ तत्कालीन परिवर्तनों की पृष्ठभूमि पर लिखी जाने वाली अपने तरह की पहली कहानी थी ।

उस समय के भारतीय सिनेमा में इस मिजाज़ के कथानक नहीं लिखे जा रहे थे। आर्थिक तंगी से जूझ रहे लोगों ने कल-कारखानों की राह पकड़ी थी, बेहतर
संभावनाओं की चाहत में हुई बड़ी मात्रा के पलायन को उद्योग जगत ने रोज़गार दिया। किन्तु अनेक मामलों में कामगार कष्टदायक हालात में थे। कल-कारखानों में उनका शोषण हो रहा था। वह रोज़गार से बहुत अधिक संतुष्ट नहीं रहे, लेकिन फिर भी काम किया।

प्रेमचंद कल-कारखानों के तत्कालीन हालात से रचनाकर्म के स्तर तक आंदोलित हुए, मज़दूर अथवा मिल मज़दूर को उस पीड़ा की संवेदना तौर पर देखा जाना चाहिए। बंबई आ जाने बाद प्रेमचंद के हालात में बहुत हद तक सुधार आया। किन्तु यह परिवर्तन दीर्घकाल तक टिक ना सका। बनारस वापसी के साथ बंबई में स्वर्णिम भविष्य की संभावनाएं दुखद रूप से धाराशायी हो गई। बनारस वापसी आत्मघाती घटना रही क्योंकि वह फिर से पुराने हालात में थे। बनारस व बंबई में संतुष्टि तालाश रहे प्रेमचंद के अंतिम वर्ष दुख में बीते।

प्रस्तुत फिल्म में मुंशी प्रेमचंद ने बुर्जुआ व कामगार वर्ग के संबंधों की व्याख्या की। बुर्जुआ वर्ग की मानसिकता व कामगारों की जागृति ही किसी उद्योग इकाई की सार्थक व्याख्या कर सकती है। उद्योग जगत का संवेदनशील नज़रिया ‘शोषण तंत्र’ के स्थान पर कल्याणकारी व्यवस्था को कायम करने में सक्षम है। किन्तु नीजि स्वार्थों के प्रकाश में स्थिति में विशेष बदलाव नहीं हो पाता। पदमा जैसे संकल्प के धनी लोग जन-हितैषी वातावरण विकसित कर सकते हैं। प्रेमचंद ने मानवीय एवं शोषण नीतियों के प्रकाश में स्वामियों की मानसिकता पर टिप्पणी की थी। तत्कालीन उद्योग में कामगारों के यथार्थ की व्याख्या इस कहानी के संदर्भ में की जा सकती है।

‘मिल मज़दूर’ एक कारखाने की दास्तां बयान करती है। संवेदनशील मालिक की अगुवाई में यहां कामगारों का अच्छा दौर गुज़र रहा है। इस युग में यहां काम का एक शोषण मुक्त वातावरण है। संवेदनशील मालिक के गुज़र जाने उपरांत कारखाने का कार्यभार नई पीढ़ी को मिला। नई पीढ़ी में एक पक्ष दिवंगत पिता के उच्च आदर्शों की परंपरा पर कायम है, दूसरा केवल अधिकारों की बात करता है। पदमा(पुत्री) एवं विनोद(पुत्र) में मानवीय व्यवस्था के स्वरूप को लेकर मतभेद है। निरंकुश अधिकार का पक्षधर विनोद अधिक से अधिक लाभ अर्जित करना चाहता है। उसकी संचालन व्यवस्था दिवंगत पिता की प्रजातांत्रिक नीतियों से मेल नहीं खाती। वह मज़दूरों से बहुत बुरा व्यवहार करता है। उन्हें शोषण का पात्र रखकर कोई भी हक नहीं देता है। एक निरंकुश रणनीति के साथ मिल को संचालित कर रहा है।

भाई के बर्बर आचरण से दुखी होकर पदमा(बिब्बो) आंदोलन का मार्ग अपनाती है। जन-कल्याणकारी नीतियों के प्रकाश में वह नई व्यवस्था को स्थापित करना चाहती है। कामगारों के हक की लड़ाई में उसे कैलाश (जयराज) का सहयोग मिला। पदमा एवं कैलाश के नेतृत्व में मज़दूर काम रोक देते हैं। संगठन की एकता को तोड़ने के लिए विनोद ने ‘खलनायक’ की चालों को अपनाया, लेकिन जनता की आवाज़ कायम रही। नई व्यवस्था की स्थापना के साथ मज़दूर काम पर लौट आते हैं। मूल कहानी जब निर्माता के पास आई,तो इसमें सुहूलत के नाम पर परिवर्तन लाया गया। दरअसल माध्यम व बाज़ार के नाम पर मूल कथा के कुछ अंशो को हटा दिया गया, जिसका स्थान नई बातों ने लिया था। कह सकते हैं कि मूल संरचना प्रभावित हुई । लेकिन कथा का विचार बिंदू फिर भी किसी तरह कायम रहा ।

बहरहाल इन तत्वों के साथ दृश्यों का फिल्मांकन एक स्थानीय लोकेशन पर शुरू हुआ। विश्ववसनियता के लिए बहुत से दृश्यों को बंबई की एक कपड़ा मिल में शूट किया गया। सिनेमा तकनीक अब तक संपूर्ण विकास नहीं हो सका था,उस वक्त इसमें बहुत अधिक समय बीत जाता था। फिल्मकार को बहुत से तकनीकी उद्यम स्थापित करने की हिम्मत जुटानी होती थी। उन दिनों फिल्म निर्माण वाकई एक कठिन काम था, देश में तकनीक के नाम पर ना के बराबर सुविधा थी। बहरहाल शूटिंग पूरी होने बाद निर्माण क्रम में प्रमाणन के लिए फिल्म को सेंसर बोर्ड पास भेजा गया। बोर्ड की मर्यादित कैंची ने यूनिट के प्रयासों को व्यर्थ सा कर दिया। सेंसर के रवैये ने प्रसंगों के ऊपर नए सिरे से सोचने को विवश किया।

फाइनल रिज़ल्ट (रिलीज़) को लेकर अब भी उम्मीद बाकी थी, यूनिट ने इसके ऊपर काम शुरू किया। किन्तु फिल्म की मुसीबतें अब भी चस्पा थीं, सिनेमाघर ने मिल यूनियन एवं न्यायालय पक्ष का हवाला देते हुए प्रदर्शन से मुंह मोड़ लिया। न्यायालय को फिल्म के ‘शीर्षक’ पर कड़ा एतराज था। सभी बाधाओं को
पार यह एक वैकल्पिक शीर्षक के साथ रिलीज़ हो पाई। पूरी प्रक्रिया बाधा दौड़ में सफल होने समान थी। संकल्पना काल से लेकर मूल कथा के साथ जो कुछ हुआ, वह रचनाकार के लिए बहुत कष्टदायक था। मिल मज़दूर के घातक अनुभवों ने प्रेमचंद को अंतरतम तक हिला दिया था, कड़वे और कर्कश आपबीती के साथ वह जल्द बनारस लौट आए। साहित्य से सिनेमा में आए कलमकारों में प्रेमचंद की तक़दीर भी उर्दू अफसाना निगार ‘मंटो’ जैसी थी। अफसोस प्रेमचंद और मंटो जैसे लेखकों को बंबईया सिनेमा ने कड़वे अनुभवों की सौगात दी।

कहा जा सकता है कि सिनेमा ओजस्वी रचनाओं के लिए तैयार नहीं था। हिन्दी फिल्मों में साहित्यिक विचारधारा का मुक्त प्रवाह नहीं हो सका था।


फोटो आभार- फेसबुक पेज मुंशी प्रेमचंद

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