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किसान, अर्थव्यवस्था या राजनीति, देश के युवाओं का सरोकार सभी मुद्दों से है

कल से अलग सा शोर है। संसद में बजट पर बिना किसी बातचीत या बहस के ही देश की सरकार के 99 विभागों के पैसों के आंवटन को सही मानकर पास कर दिया। साथ ही फाइनेंस बिल में राजनीतिक पार्टियों को पिछले 42 साल में मिले विदेशी पैसों को हिसाब-किताब या जांच के दायरे से बाहर कर दिया।

इस मुद्दे पर पहले ही सरकार और सरकार से बाहर बैठे दलों ने साफ कर दिया है कि जहां आम लोगों के पैसे और जीवन की बात आती है वहां कायदे-कानून का हवाला चलता भी है, पर शहंशाहों और उनके नुमाइन्दों पर कायदे नहीं चलते।

संसद के इस सत्र में भारत के कंसोलिडेटेड फण्ड से 80 हज़ार करोड़ रूपए भी सरकार ने अपने हिस्से में डाल दिए। ये काम ‘वॉइस वोट’ (voice vote) से 14 मार्च को ही संपन्न कर दिया गया।

संसद में एक पार्टी के बहुमत में होने से सब अच्छा हो जाएगा, इसी वायदे पर भाजपा ने लोगों से उन्हें लोकसभा में 300 सीट देने की अपील की थी। उनके गठजोड़ को 2014 के चुनाव में 336 सीटें मिली। जल्द ही राज्य सभा में भी इनका बहुमत होगा। फिर कौन-कौन से परिवर्तन ये करना चाहेंगे, इनके संरक्षक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कितने लोग संसद सदस्य बनेंगे और उसके बाद क्या होगा? ये सोचने-समझने का विषय है। फिर वो राष्ट्र किसकी निगरानी करेगा और किसका उपहास? ये उनके इतिहास और आजकल के बयानों से भी समझा जा सकता है।

कुछ समय पहले से ही नीरव मोदी या विजय माल्या या दूसरे उद्योगपतियों और कंपनियों द्वारा अरबों रुपये के घोटाले सामने आए। हो-हल्ला भी हर बार बहुत मचा। इसके आधार पर ही सरकार ने भगोड़ा आर्थिक अपराधी विधेयक, 2018 लाकर ये जताया कि जनता के पैसे के साथ खिलवाड़ करने वालों पर कड़ी कार्रवाही होगी।

दो-चार दिन कभी सीबीआई हरकत में आई तो अभी एन्फोर्समेंट वाले। मंत्री-संत्री सबने बयानबाज़ी कर फिर से जनता के गुस्से को फुसला दिया। टीवी पर आकर चिल्लाहट मचाने वाले पत्रकारों ने मुद्दे तो उठाए, पर मूल बातों पर चुप्पी साध गए। ‘गोदी मीडिया’ कहलाने पर भी इन्हें अफसोस नहीं होता। किस अखबार-चैनल का मालिक कौन है, यह तय करता है कि कौन सी खबरें सामने आएंगी और किन्हें जनता के सामने प्रस्तुत करने पर उन्हें अपनी नौकरी या जीवन से ही हाथ धोना पड़ जाएगा।

लेकिन इन सब में आप और हम कहा हैं? वो हज़ारो किसान-मज़दूर कहां हैं, जिन्होंने नासिक से मुंबई का सफर चलकर पूरा किया और अपनी पहले से ही गिरती आमदनी से भी 7 दिन अपने और हमारे संघर्ष को समर्पित किए?

वो लोग जिन्हें देश की आत्मा कहा गया है, वो किसान और मज़दूर जो खेती करते हैं, खुद भी खाते हैं और हमें भी खिलाते हैं। जिनके उगे बाजरे को बड़ी कंपनियां शहर में 120 रुपये किलो बेचती हैं।

वो लोग जिन पर संकट कई दशकों से बरकरार है, जिन्होंने फिर भी अपने शोषकों के खिलाफ अहिंसा और बातचीत से ही समाधान ढूंढने का प्रयास किया है। संविधान को मरोड़ने वालों के महलों में क्या इनके लिए तत्परता से कोई काम किया जाता है? कानून के चोगे में गैर-बराबरी को आगे बढ़ाने वाले संशोधनों पे प्रक्रिया देने के लिए भी समय नहीं दिया जाता।

2014 के अंत में भूमि अधिग्रहण कानून पर अध्याधेश लाए गए जिसमें ग्राम सभाओं के कानूनी हकों को ताक पर रखने का प्रयास किया गया। जब तक देशभर में विरोध बढ़ नहीं गया तब तक सरकार अड़ी रही, यह तक कहती रही कि यह ‘विकास’ के लिए है। वनभूमि पर लोगों के अधिकारों को मानना इन्हें गवारा नहीं, पर इन्हें बेलगाम खनन कंपनियों को देने में पुलिस और प्रसाशन दोनों ही कानूनों को नज़रंदाज़ करते हैं।

छत्तीसगढ़, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, महाराष्ट्र, बिहार, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, केरल- हर जगह ही लोगों के संघर्ष लगातार अपना विरोध जाता रहे हैं। मात्र कानून का सही पालन हो यह कहने पर सामाजिक कार्यकर्ता जेल भेजे जाने लगे हैं। सूचना के अधिकार को कानून में बदलकर, उनकी संस्थाओं को हल्के में लेकर और लोगों को डराकर सरकारी कार्रवाही को लोगों की निगरानी से दूर रखने का प्रयास किया जा रहा है।

पर बात सिर्फ कानून की ही क्यों हो? इनकी भाषा और व्यवस्था तो वैसे ही आम लोगों की समझ से बाहर है।

तभी तो जब देश के चार सबसे वरिष्ठ न्यायधीशों ने खुले में आकर कहा कि न्यायपालिका में सब ठीक नहीं है, तब भी लोगों ने उन्हें ही दुत्कारना बेहतर समझा। आज़ाद भारत में पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था, लेकिन कौन पड़े इन बड़े-बड़े लोगों के झगड़ों में! हमें इससे क्या लेना-देना?

इसी बहाने तो आज़ादी से लेकर आज तक गोरखधंधो को शह मिली है। समाज में बढ़ती हिंसा और उसमें ताकतवर लोगों की हिस्सेदारी बहुत छुपी सी तो नहीं है। यह वाले समूह के लोग दोषी हैं या कोई और! इसकी लड़ाई में हिंसा तो कम होती नहीं लगती। इस दौरान शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, साफ पानी, सस्ते राशन, भूमि का अधिकार, वंचित समुदायों को राज्य और नीति द्वारा प्रोत्साहन; हर किसी चीज़ को तो दरकिनार कर दिया गया है। ऐसा लगता है मानो लोगों के जीवन के सवाल ही खोखले हैं, गैर ज़रूरी हैं या ऐसा कहने या मानने से ही आप राष्ट्र या राज्य विरोधी हैं।

सार्वजनिक शिक्षा में रोष बढ़ गया है। पैसे की तंगी के नाम पर सरकार टीचर-कर्मचारियों  की तनख्वाह देने में कई महीने लगाती है। आंगनबाड़ी की सेविका और सहायिका, जिन पर ग्रामीण विकास की व्यवस्था में कई भूमिकाएं निर्भर हैं, उन्हें अक्सर प्रदर्शन करने दिल्ली तक आना पड़ता है। फिर भी हफ्तों तक उनसे कोई मिलने भी नहीं आता। सारी प्रणाली ‘एड-हॉक’ ही चल रही है।

धीरे-धीरे हर सरकारी संस्था निजी हाथो में सौंपी जा रही है फिर वो अस्पताल हो या रेल। बहाना वही पुराना-  इससे उसकी व्यवस्था बेहतर हो जाएगी।

छोटे उद्योग बिना प्रोत्साहन के मरने लगे है, खेती का संकट गहराता गया है। बेरोज़गार युवक और युवतियां सक्षम होने के बावजूद कम पैसे में काम करने को तैयार हो रहे हैं, शहरों में रहना और मुश्किल होता जा रहा है। कॉलेज-विश्वविद्यालयों में फीस कई गुना बढ़ने लगी है, स्टूडेंट्स को मिलने वाली छात्रवृत्ति कम से कम कर दी जा रही। छात्र आन्दोलन इन सवालों पर उभरने लगे हैं, बड़े शहर हों या छोटे शहर, कोई इनसे अछूता नहीं रहा।

जिस युवा के कंधे पर देश की ज़िम्मेदारी आगे बढ़नी है, उन्हें क्या इसके लिए तैयार होने के मौके मिल रहे हैं? राजनीति में बराबर का भागीदार ना बनाकर उन्हें पार्टी दफ्तरों के बाहर नेताओं के लिए नारे लगाने के लिए ही पैसा और पेट्रोल मिल रहा है। सोशल मीडिया पर गाली देना एक आकर्षक व्यवसाय बनने लगा है।

मोदी जी को ट्विटर पर फॉलो करने वालों में 60 प्रतिशत लोग फर्ज़ी हैं, यह जानकारी हाल ही में बाहर आई। इनमे से कितने वो युवा होंगे जिन्होंने अपने अच्छे भविष्य के नाते इन लोगों को सरकार बनाने में मदद की होगी। क्या वो समझ पाए हैं कि खेल शायद कुछ और ही है? शायद उन्हें ओछी राजनीति के लिए इस्तेमाल करने के अलावा नेताओं की और कोई नीयत नहीं होती।

एक प्रतिक्रियावादी सरकार ने युवाओं को भीड़ बनने के लिए प्रेरित कर दिया है। हिंसा से कुंठित ना होकर लोग उससे अपनी दबंगई मज़बूत करने में लगे हैं।

ऐसे में कई सालों से चले आ रहे राजनीति के खेल को उलट देने की ज़रूरत है। सामने आकर लोगों को इन दलों को सिरे से नकार देने की ज़रूरत है। धर्म, जाति और लिंग पर बंटे समाज में खुलकर उन पर बात करने की ज़रूरत है। उस पर समझ बनाकर व्यापकता से देखने की ज़रूरत है। हर दिन, हर घड़ी यह करते रहने की ज़रूरत है।

हम बन्दर से मनुष्य बने है, हमें मनुष्य बने रहने का प्रयत्न करते रहना है।

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