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क्या अखिलेश और मायावती का साथ आना बीजेपी को चुनौती दे पाएगा?

पूर्वोत्तर के चुनाव परिणामों से अगर गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश के उप-चुनावों के नतीजों से चिंतित भाजपा में उत्साह की नई लहर आई है तो विपक्ष पर इसका असर सबसे पहले उत्तर प्रदेश में दिखा है। 23 साल बाद बसपा और समाजवादी पार्टी के साथ आने के संकेत दिख रहे हैं।

बसपा नेता मायावती ने गोरखपुर और फूलपुर उप-चुनाव में सपा उम्मीदवारों को समर्थन देने के साथ राज्यसभा और विधान परिषद चुनाव में एक-दूसरे के उम्मीदवारों की मदद की घोषणा की है।

बसपा अभी तक उप-चुनाव नहीं लड़ती थी, पर न लड़ने और घोषित समर्थन में बहुत फर्क है। इसीलिए मायावती के गठबंधन न करने की घोषणा के बावजूद इस परिदृश्य को राजनीतिक विश्लेषक बहुत महत्व दे रहे हैं। पिछली बार जब सपा और बसपा ने साथ चुनाव लड़ा था तो बाबरी ध्वंस के बाद ताकतवर दिख रही भाजपा बुरी तरह हारी थी।

उत्तर प्रदेश की फूलपुर और गोरखपुर सीटों पर होने वाले लोकसभा के उपचुनाव अब काफी दिलचस्प हो गए हैं। बहुजन समाज पार्टी ने इन दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवार नहीं खड़े किए थे, लेकिन रविवार को पार्टी ने इन दोनों ही सीटों पर धुर-विरोधी समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों के समर्थन का एलान करके सबको चौंका दिया है।

हालांकि प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने कहा, “हमारी पार्टी ने पूर्व की तरह इन उपचुनावों में अपने उम्मीदवार नहीं उतारे हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हमारी पार्टी के लोग वोट डालने नहीं जाएंगे। वे भाजपा को हराने में सक्षम सबसे मज़बूत उम्मीदवार को वोट देंगे।”

अगर देखा जाए तो गोरखपुर से सीधे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और फूलपुर से उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या की प्रतिष्ठा जुड़ी है, इसलिए उनकी पूरी कोशिश होगी कि इसे हाथ से न जाने दिया जाए। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ज़मीनी स्तर पर राज्य सरकार के करीब एक साल का और केंद्र सरकार के चार साल का प्रदर्शन भी उपचुनाव पर असर डालेगा। सपा और बसपा एक दूसरे के धुर विरोधी भले ही हों, लेकिन दोनों ही पार्टियों में एक बड़ा धड़ा ऐसा है जो कि इस गठबंधन का समर्थन करता है।

खासकर यहां का युवा वर्ग मायावती के इस फैसले से उत्साहित दिख रहा है। जेएनयू के शोध छात्र और उत्तर प्रदेश में छात्र राजनीति में सक्रिय  दिलीप यादव कहते हैं, “यहां के दलित और ओबीसी युवाओं में इससे पहले इतनी खुशी नहीं देखी गई जो आज देखी जा रही है। यह फैसला  बहुजन और पिछड़ा आन्दोलन को एक नई दिशा देगा।

हालांकि इस फैसले के कई आयाम हो सकते है और शायद इसी को प्रयोग के तौर पर आज़माने के लिए बसपा ने ये कदम उठाया है।

बसपा संस्थापक कांसीराम की अगुवाई में साल 1993 में सपा और बसपा ने साथ चुनाव लड़ा था और उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई थी, लेकिन ये गठबंधन सरकार सिर्फ डेढ़ साल चली और फिर दोनों दलों में ऐसी खटास आई कि राजनीतिक विरोध, व्यक्तिगत दुश्मनी में तब्दील हो गया।

प्रदेश की मौजूदा राजनीति के संदर्भ में देखा जाए तो बसपा और सपा की राजनीतिक चुनौतियां बढ़ी हैं। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को राज्य में एक भी सीट नहीं मिली थी, जबकि सपा मात्र पांच सीटों पर ही जीत सकी थी, वो भी तब जब राज्य में सपा की ही सरकार थी। सपा के जीतने वाले सभी उम्मीदवार मुलायम सिंह के परिवार के थे। साल 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा केवल 47 सीटों पर जीती थी, जबकि बसपा 19 सीटों पर ही सिमट गई थी।

मायावाती का सपा को समर्थन देने से प्रदेश की राजनीति एक नया मोड़ ले सकती है और इसमें कोई दो राय नही होगी कि भाजपा के लिए चुनौतियां बढेंगी। अगर यह समर्थन, सफलता की परवान चढ़ता है तो 2019 के आम चुनाओं के लिए बसपा और सपा को साथ आने के लिए एक रास्ता बन जाएगा। जिस तरह  भाजपा ने हिंदुत्व  विचारधारा को अपनी लड़ाई का जरिया बनाया है, ठीक उसी तरह इन दोनों पार्टियों को भी भीमराव अम्बेडकर और रामनोहर लोहिया की विचारधारा को ज़मीनी स्तर पर यथार्थ करना होगा, क्योंकि तभी भाजपा के विजय रथ को रोका जा सकता है।

साथ ही दोनों ही पार्टियों को जनता से जुड़े मुद्दों पर सक्रियता बढ़ानी होगी, क्योंकि नरेन्द्र मोदी और उनकी टोली, सबसे ज़िम्मेवार पद पर बैठने की स्वाभाविक ड्यूटी करने से भी ज़्यादा समय और ऊर्जा, चुनाव जीतने की रणनीति बनाने और और उस पर काम करने पर लगाती है।

बीजेपी के मुकाबले में पार्ट-टाइम पॉलिटिक्स से काम नहीं चलेगा। यह बात अकेले मायावती पर ही लागू नहीं होती बल्कि सभी विपक्षी नेता ऐसा ही करते दिखते हैं।

मोदी से नाराज़गी के बाद मौका मिलने की सोच बदलनी होगी, क्योंकि मोदी, शाह से लेकर देवधर और राम माधव तक 365 दिन और 24 घंटे काम करने वाले कार्यकर्ता हैं। सिर्फ लोगों का जुटान करने और चौबीस घंटे सक्रिय रहने भर से भी बहुत बात नहीं बनेगी। मोदी और उनकी टीम एक साफ और दीर्घकालिक एजेंडे के अनुसार काम करती है। अगर उसके मुकाबले खड़ा होना है तो कम से कम कुछ बुनियादी मसलों पर साफ दृष्टि बनाने और सहमति लेकर आगे चलना होगा।

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