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क्या लोहिया आज अकेले काँग्रेस से बेहतर विकल्प होते?

लोकतंत्र की राजनीति में विचारधारा और सत्ता की तलाश दोनों में एक अजीब किस्म का तालमेल होता है। शुद्ध विचारधारा अगर सत्ता की तलाश से अलग हो, तो वो टिकाऊ तो होता है, लेकिन असरदार नहीं होता। दूसरी तरफ अगर सत्ता को प्राथमिकता दें और विचारधारा की लगाम छूट जाए तो फिर सत्ता का घोड़ा बेलगाम दौड़ने लगता है। बात करते हैं ऐसे शख्स की जिसने सत्ता को चुनौती दी तो भारतीय राजनीति का जायंट किलर कहा गया, वो नेता जिसने नेहरू के विरुद्ध 1962 में फूलपुर लोकसभा क्षेत्र में कम संसाधन होने के बावजूद पूरे दमखम से मुकाबला किया।

हम बात कर रहे हैं गांधी व मार्क्स के विचारों से समाजवाद की विचारधारा गढ़ने वाले और गठबंधन राजनीति के प्रणेता श्री राम मनोहर लोहिया की। एक बार नज़र डालते हैं कि अगर आज लोहिया जीवित होते, तो वर्तमान राजनीति पर क्या विचार रखते और वो किस तरह एक मज़बूत विपक्ष बन पाते।

संसदीय राजनीति नहीं तो सत्याग्रह

लोहिया का नारा था 4 घंटे अपने पेट को, लेकिन एक घंटा अपने देश को देना चाहिए। जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने स्वच्छ भारत के लिए प्रत्येक नागरिक से साल में 100 घंटे मांगे थे, लोहिया की मांग शायद अधिक होती। उनका मानना था कि हर काम सरकार के ज़रिये नहीं हो सकता, कुछ रचनात्मक कार्य तो समुदाय को ही करना होता है। वो कहते थे अगर वोट से बात नहीं बनती तो अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए अगले चुनाव का इंतज़ार न करें, सत्याग्रह अपनाएं। वर्तमान समय में वो किसानों, मज़दूरों, विधार्थियों की दुर्दशा पर एक क्रान्ति ज़रूर खड़ी करते जो काँग्रेस या एन्टी पार्टियां करने में अभी तक असमर्थ रही हैं।

भाषाई राजनीति

गीता अनिवार्य करना, हिंदी भाषा की दक्षिण राज्यों में अनिवार्यता आज की राजनीति के कुछ ऐसे विषय हैं जिसे राष्ट्रवादिता के घोल में मिलाकर वर्तमान सरकार ने खूब परोसा है। यह एक अभिशाप है की आज की काँग्रेस भाषाई लड़ाई का ना कोई समाधान निकाल पा रही है, ना विरोध कर पा रही है और न ही कोई विकल्प दे पा रही है। लोहिया होते, तो वो देसी राष्ट्रवादिता के पुरोधा होते हुए भी अपने अभियान को ताज़गी के साथ समाज की अधूरी दिमागी आज़ादी को पूरा करने के लिए आगे बढ़ाते। एक दुष्प्रचार फैला हुआ है कि लोहिया अंग्रेज़ी विरोधी थे। नहीं, वो मानसिक गुलामी के विरोधी थे, वे चाहते थे कि बच्चे अंग्रेज़ी समेत सभी भाषाओं के लिए अपनी दिमाग की खिड़कियां खोलकर रखें।

नर-नारी समता

बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के नाम पर सेल्फी खेल चल रहा है, बेटियां अगर सरकार का विरोध करे तो उनका चरित्र-हरण होता है और वहीं यौन हिंसा का विरोध करने पर BHU में जो नवरात्रों में लड़कियों की पिटाई की गई, उससे लोहिया काफी दुखी होते और जमकर वर्तमान सरकार के खिलाफ इस विषय पर बहस करते। उनका मानना था कि औरत को उसकी शरीर की सीमाओं में बांधना पुरुषों की कायरता का प्रतीक है।
उनकी दृष्टि से भारत की नारी का प्रतीक सावित्री नहीं, द्रौपदी होनी चाहिए। संकट पड़ने पर द्रौपदी ने खुली सभा में दु:शासन और दुर्योधन का मुकाबला किया और मित्र कृष्ण की मदद से भरी सभा में भीष्म पितामह का विरोध किया। नर-नारी समानता विषय पर जो समाज में नई चेतना व आत्मविश्वास जगी है, उसे आगे बढ़ता हुआ देख लोहिया खुश होते और महिलाओं के राजनीति में आरक्षण के इन सवालों पर अपनी पूरी ताकत लगा देते।

धर्मांध

जिस तरह से धर्मों के लिए या धर्मों के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है, घरवापसी जैसे अभियान चलाये जा रहे हैं, हर संदर्भ को राष्ट्रवादिता से जोड़ा जा रहा है, लोहिया निष्पक्ष रूप से वर्तमान सरकार के सामने एक बड़ा विपक्ष बनकर उभरते। उनका मानना था कि धर्म, दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म। उन्होंने चेतावनी दी थी कि एक तरफ हिन्दू जाती प्रथा का मारा हुआ है और मुसलमान में भी जाती-प्रथा और देसी-विदेशी का फर्क है। हर मुसलमान को बाबर, गोरी की औलाद मानना गलत होगा और मुसलामानों को भी यह समझना होगा की जिन्होंने पुस्तकालय जलाये, मंदिर-मस्जिद गिराए, लोगों को रक्तरंजित किया, वो उनके पुरखे कैसे हो सकते हैं। वह निश्चित ही धर्मावलम्बियों के लिए यह बहस ज़रूर छेड़ते कि हिन्दू-मुस्लिम साझेदारी कैसे विभिन्न पीड़ायें मिटा सकती है।

लोहिया के विचार अपने समय से आगे थे। लोहिया का एक ही पाप था: आज़ादी के बाद पैदा “भोगवाद” और दिशाहीनता के लिए देश को सचेत करते हुए उन्होंने नेहरू के नेतृत्व का खुलकर विरोध किया था जिससे उन्हें बहुत अर्धसत्यों का शिकार होना पड़ा। जैसे आजकल फेक न्यूज़ या ट्रोलिंग के द्वारा भ्रम फैलाया जा रहा है।

आज लोहिया के विचारों का उल्लेख करने वाले नेता हर दल में शामिल है लेकिन उन्हें यह तय करना होगा कि वोट बैंक के लिए लोहिया के विचारों को गिरवी रखना कितना सही है और क्या वो नेता जो उन्हें अपना गुरु मानते हैं, वोट-फावड़ा-जेल के ज़रिये उन मूल्यों पर अडिग रहेंगे जो उनके विचार-गुरु ने 5 दशक पहले जिया था।

जैसा लोहिया ने कहा था कि लोग मेरी सुनेंगे ज़रूर, लेकिन मेरे मर जाने के बाद, और इसीलिए उनके विचार समकालीन राजनीति के लिए बहुत ज़रूरी और प्रासंगिक हैं और आगे भी रहेंगे।

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