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स्वतंत्रता और सामाजिक आंदोलन की कहानियों में हमने इन महिलाओं को क्यों भुला दिया?

स्त्री को ईश्वर ने एक अद्वतीय दायित्व के साथ संसार में भेजा जोकि इस सृष्टि को सदैव गतिमान बनाये रखना है। ऐसा सोचना व्यर्थ ही होगा कि एक महिला अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों से कभी मुकर गयी हो, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो। इन सब के बावज़ूद प्राचीनकाल से ही एक स्त्री को तमाम सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक संकीर्ण वर्जनाओं से स्वयं के अस्तित्व और अस्मिता के लिए दो-चार होना पड़ा है। आश्चर्य यह है कि ये स्त्री-विरुद्ध विषमताएं अभी भी इनके अनुकूल नही हुई हैं और इसके विरुद्ध स्त्री संघर्ष निरंतर जारी है। उदाहरण मंदिरों में महिलाओं का प्रवेश, तीन तलाक इत्यादि।

स्त्री अपने किसी भी संघर्ष में एकसाथ दो लड़ाई लड़ती है एक तो उसके खिलाफ समाज में पूर्वस्थापित रुढ़िवादी मान्यताएं और दूसरा सामाजिक सुधार के लिए। स्त्री संघर्ष या आंदोलन उनके लिए ही हो या सामाजिक या राजनीतिक सुधार के लिए, कोई आज की उपज नहीं है। यह हमारी ऐतिहासिक विफलता है कि हम इसको संजोए रखने में असफल रहे हैं। आशारानी वोहरा ने जब महिलाएं और स्वराज किताब लिखना शुरू की तो उन्हें तथ्य जुटाने में बारह वर्ष लग गये। उन्होने एक जगह लिखा है कि आज़ादी आंदोलन में स्त्रियों की भूमिका पर लिखने के लिए जब सामग्री जुटानें लगी तो गहरी निराशा हाथ लगी।

वर्जीनिया वुल्फ का एक कथन भी है कि इतिहास में जो कुछ अनाम है वह औरतों के नाम हैं।”

भारत का वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक स्वरुप निर्मित करने में और उसमें अपने अधिकारों को प्राप्त करने में महिलाओं ने अतुलनीय बलिदान दिया है। ऐतिहासिक अचेतनता के बाद भी हम अतीत की बात करें या वर्तमान की, सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में भागीदारी के प्रचूर संख्या में उदाहरण मौजूद हैं।

भारत में सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका को स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका से ही जोड़कर देखना होगा, क्योंकि औपनिवेशिक मानसिकता के साथ-साथ स्त्रियों के विरुद्ध तात्कालिक रूढ़िवादी मानसिकता से भी आज़ाद होना था। जिसकी शुरुआत सन्यासी विद्रोह के साथ होती है और इस विद्रोह की अग्रणी महिला देवी चौधरानी थी, जिनको अंग्रेज़ी इतिहासकारों ने दस्यु रानी की संज्ञा दी। देश को आजाद कराने में भवानी पाठक की भी महत्वपूर्ण  भूमिका रही है। एक सरकारी दास्तावेज से पता चलता है कि इसके पीछे रानी चौधरानी की बड़ी भूमिका थी। बीस वर्षों तक चलती रही आज़ादी की लड़ाई के इस प्राथमिक संघर्ष में सन्यासी विद्रोह की एकमात्र सशक्त महिला के रूप  में उनका नाम अमर है।

इसी आंदोलन में एक और नाम सामने आता है वो है दुर्गा भाभी। मशहूर क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी थी। सरदार भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू के क्रांति की साझीदार। दुर्गाभाभी की अनुपस्थिति में इन क्रांतिकारियों को इतनी जगह मिलनी असंभव थी। असहयोग आंदोलन के दौरान उषा मेहता ने भूमिगत होकर जिस तरह की सक्रिय भूमिका में रही, उनकी इस बहादुरी की तारीफ करना कम होगा।

इनके अतिरिक्त कई महत्वपूर्ण नाम है पंडिता रमाबाई, सावित्रीबाई फूले, अरुणा आसफ अली व अन्य। इनका यहां जिक्र करना महज़ नाम गिनाना नहीं है, वरन इन गाथाओं का ज़िक्र इसलिए भी आवश्यक है कि इनके लिए सबसे बड़ी चुनौती यह भी थी की समाज स्त्री-पुरुष के भेद के खिलाफ आगे आना। इस भेद के पीछे मूलरूप से सत्ता का संघर्ष है।यह कोई सत्ता स्वतंत्रता के समय की ही बात नहीं है और न ही आज की। यह खेल संपूर्ण मानव सभ्यता के इतिहास में प्रत्येक स्तर पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से चलता रहा है। अतः इनके आंदोलन में आने से दो कार्यों की पूर्ती होती है एक इस पितृसत्तात्मक समाज में स्वयं के लिए वाजिब और हक की जगह तलाशना और दूसरा देश की स्वाधीनता।

देश की स्वाधीनता के बाद अब महिलाएं अपने अधिकारों के लिए और तमाम सामाजिक परिवर्तनों के लिए आगे आईं। जितना अपने अधिकारों के लिए लड़ी उससे कहीं अधिक सामाजिक सरोकारों के लिए। वर्तमान में उदाहरणों की बात करें तो पूर्वोत्तर भारत की इरोम शर्मिला(आयरन लेडी) का नाम कौन भुला सकता है। दुनिया के इतिहास में ऐसा शायद ही पहले कभी-कहीं हुआ हो। वह नवंबर 2000 की बात, मणिपुर से असम राइफल्स के साथ मुठभेड़ में 10 लोगों के मारे जाने की खबर आई थी। उस घटना ने 28 साल की एक युवती को भीतर तक हिलाकर रख दिया। जिस उम्र में लोग आने वाले कल के सपने देखने और उन्हें सच करने में जुटे रहते हैं, उस दौर में वह तपस्या पर बैठ गई। भूखी-प्यासी। अपने लिए नहीं, बल्कि सिर्फ एक इतनी सी मांग लेकर कि जिस मिट्‌टी में वह पैदा हुई, जिसमें पली-बढ़ी, वहां के लोगों पर अत्याचार बंद हो।

वह सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अाफस्पा) हटा लिया जाए, जो सुरक्षा बलों को सिर्फ शक के बिना पर ही किसी को गिरफ्तार कर लेने और गोली मारने तक की इजाजत दे देता है। पूरे 16 साल तक इरोम शर्मिला अकेले लड़ती रहीं इस दौरान उनके तीन ही ठिकाने थे – जेल, अस्पताल या अदालत।

एक दूसरा उदाहरण लें तो- हरसूद में इंदिरा सागर बांध की बाढ़ की 1989 की रैली के समय पहली बार मेधा पाटकर का नाम सामने आया। तब से तीन दशकों से मेघा पाटकर सड़कों पर हैं आखिर क्या चाहिए। इस बड़ी रैली में देशभर हज़ारों सामाजिक कार्यकर्ता आये थे उसमें मेनका गांधी, बाबा आमटे, सुंदरलाल बहुगुणा और वीसी शुक्ला थे। हरसूद को हरहाल में बचाने को लेकर वहां एक विजय स्तंभ स्थापित किया गया और उस इंडिया टुडे में उनकी दो पेज की कवर स्टोरी छपी जिसकी हेडलाइन थी- हार न मानने वाला हौसला।

वर्तमान में महिलाओं के बहुत से ज्वलंत मुद्दे चर्चा में रहे, मंदिरों प्रवेश को लेकर उनके अधिकार की बात हो या तीन तलाक का मामला। महिलाएं मुखरता से सामने आईं और अपने अघिकार को छीन लिया इस पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी समाज से।

ऐसी ही महिलाओं की बहुत कहानियां मौजूद हैं, जो अपने अधिकारों के अतिरिक्त इस संपूर्ण मानव समाज के अधिकारों के लिए, समाज के उत्थान के लिए, हाशिए पर पड़े समाज के लिए सामने आई हैं। अतः समाज में सुधार को लेकर, राजनीति में सुधार को लेकर महिला आंदोलनों का और भारत में हुए सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका को स्वीकार करके महत्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिये।

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