पोशाक, खान-पान, शिल्प, संस्कृति का भारत के हर हिस्से में अलग-अलग स्वरूप है, जो संस्कृतिक विविधता को समेटे हुए है। भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाओं के पहनने-ओढ़ने या पहनावे में समय के साथ सबसे अधिक बदलाव सामान्य तौर पर देखने को मिलता है।
महिलाओं के पोशाक-परिधान में शुरूआत में करीब हज़ारों साल पुरानी संस्कृति में महिलाएं शरीर के ऊपरी हिस्से में कपड़े नहीं पहनती थीं। बाद में एक लंबे वस्त्र से शरीर ढकने की परिपाटी शूरू हुई, जिसने समय के साथ साड़ी का रूप ले लिया। लेकिन तब भी ब्लाउज़ का चलन नहीं था। सबसे पहले बंगाली महिलाओं में ब्लाउज़-पेटीकोट का चलन शुरू हुआ। धीरे-धीरे अंग्रेज महिलाओं की तरह भारतीय महिलाओं ने भी अपने पहनने-ओढ़ने में बदलाव किया और इस तरह के पोशाक पहनना शुरू किया, जिससे शरीर का कोई हिस्सा दिखाई न दे।
बाद के दिनों में महिलाओं के पोशाक में बदलाव, देश में आर्थिक गतिशीलता और सार्वजनिक दुनिया में महिलाओं की कामकाजी भूमिका में आने के बाद अधिक देखने को मिलता है।
वास्तव में महिलाओं के जीवन में बदलाव स्वत:स्फूर्त आता है। कामकाजी महिलाओं ने पहले साड़ी को अधिक तरजीह दिया फिर उसकी जगह सलवार सूट ने ली और बाद के दिनों में जींस को तरजीह देना शुरू किया, क्योंकि यह परिधान उनको अधिक सहज महसूस कराता है। साड़ी पहनकर ट्रेन, बस, ट्राम और मेट्रों में सफर करना कठिनाई महसूस कराता है और साड़ी के बनिस्पत, जींस और सलवार-कमीज़ पहनने में ज़्यादा समय भी नहीं लगता है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि बदलते समय में महिलाओं की भूमिका में बदलावों ने उनके परिधानों में भी बदलाव किया है। लड़कियों के सार्वजनिक जीवन में अधिक मौजूदगी ने भी, उनकी सहजता और सहूलियत के कारण उनके परिधान में बदलाव कर दिए।
परंतु, महिलाओं के पोशाकों में बदलाव को समाज के बड़े तबके ने कभी भी सहजता से स्वीकार्य नहीं किया। इसलिए कभी महिलाओं के पोशाक के कारण बलात्कार, तो कभी शोषण को लेकर बे-सिर-पैर के बयान, तो कभी फलां पोशाक महिलाओं के लिए सुरक्षित और सहज के ट्वीट तो कभी ड्रेस-कोड का फतवा यदा-कदा हमेशा सामने आते रहते हैं। जबकि महिलाओं के साथ शारीरिक दुर्घटनाओं के तमाम कारण परिधानों नहीं विक्षृप्त मानसिकता और यौनिक कुठाएं है।
केरल के कोझिकोड स्थित फ़ारूक कॉलेज के आसिस्टेंट प्रोफेसर जौहर मुनव्विर ने महिलाओं के कपड़ों पर और शरीर पर बयान दिया, जिसमें उन्होंने लड़कियों के स्तनों की तुलना तरबूज़ के टुकड़े से कर दी। प्रोफेसर जौहर मुनव्विर कहते हैं, “लड़कियां खुद को पूरी तरह नहीं ढकतीं, वो पर्दा करती हैं, लेकिन पैरे दिखते रहते हैं। ज़रा सोचिए, यही आजकल की स्टाइल है।”
प्रोफेसर जौहर मुनव्विर ने यह भी कहा, “लड़कियां सिर्फ स्कार्फ से अपना सिर ढक लेती हैं और अपना सीना दिखाती हैं। सीना महिलाओं के शरीर का ऐसा हिस्सा है जो पुरुषों को आकर्षित करता है। ये एक तरबूज़ के टुकड़े की तरह है, पता चलता है कि फल कितना पका हुआ है।”
प्रोफेसर जौहर मुनव्विर के इस बयान पर सिर्फ मुस्लिम समुदाय ही नहीं सभी महिलाओं ने कड़ा प्रतिरोध दर्ज किया है। फ़ारूख कॉलेज की छात्राओं ने हाथ में तरबूज़ लेकर कॉलेज के मेन गेट तक मार्च कर अपना प्रतिरोध किया। दो लड़कियों ने प्रोफेसर के कमेंट के विरोध में फेसबुक पर अपनी टांपलेस तस्वीर शेयर की, जिसे फेसबुक ने बाद में अकांउट ब्लांक कर दिया। इस कॉलेज की छात्राओं ने कहा, “टीचरों को हमारे चेहरे की ओर देखकर पढ़ाना चाहिए न कि शरीर देखकर।” विरोध दर्ज करने वाली लड़कियों का यह भी कहना है, “मेरा सीना आकर्षक है, इसक मतलब यह नहीं है कि लोगों को मेरे ब्रेस्ट पर टिप्पणी करने का अधिकार है।” सनद रहे कि देश के प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी जेएनयू के लाइफ साइंस के प्रोफेसर अतुल जौहरी भी छात्राओं के बारे में इस तरह बयान को लेकर विवादों के घेरे में है। इस तरह के कई मामले तो बदनामी के डर से सिसकीयों और मजबूरी में दब कर रह जाते है।
महिलाओं के पोशाक या परिधान और शरीर के हिस्सों पर पूर्व में और हलिया बयानों के मध्य कई मौजूद सवाल खड़े होते हैं मसलन पहला, महिलाएं क्या पहने, क्या न पहने इसके लिए बाध्य कौन कर रहा है? दूसरा, महिलाओं के परिधान से कौन से शिष्टाचार बनाने की कोशिश हो रही है? तीसरा, महिलाओं के परिधान और शरीर को लेकर पुरुष समाज असहज क्यों हो जाता हैं? स्वयं पुरुष अपने शरीर के सीक्स एप्स या डोलो के प्रदर्शन को अश्लील क्यों नहीं कहता? पुरुषों का सीक्स एप्स या उसके डोले-शोले हमेशा फिटनेस, फैशन और पौरूष प्रदर्शन के दायरे में फिट कैसे हो जाता है ?
ज़ाहिर है कि महिलाओं के पोशाक और शरीर को यौनिकता के संकीर्ण दायरे में ही देखा जाता है, उससे इतर कहीं सोच ठहरती ही नहीं है। वास्तव में इस तरह के अनर्गल बयानों से पुरुषवादी सत्ता के वर्चस्व को बनाये रखने की कोशिश की जाती है जिसका महिला पोशाकों से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं होता है।
मौजूदा समय में महिला परिधान के बारे में किसी भी तरह के फरमान आधुनिक दुनिया में नहीं टिक सकते हैं। क्योंकि महिलाओं ने अपनी सौंदर्य को शारीरिक सौंदर्य तक सीमित नहीं रखा है। महिलाओं की कार्यक्षमता, बौद्धिकता, उसकी समझ, उसकी प्रतिभा, उसके आचार-व्यवहार ही उसके व्यक्तिव का निमार्ण करते हैं। अपनी मानसिक सुंदरता की बुनावट से वह दुनिया को अधिक प्रभावित कर रही हैं।
शरीर तक महिलाओं के प्रतिभाओं को सीमित रखने का काम जिस पुरुषवादी तंत्र ने किया, वह भले ही अपने अनरगल बयानों से पुरुषवादी श्रेष्ठता कायम कर ले और अपने जैसे सोचने वालों के बीच वाह-वाही पा ले। इस तरह के हिजाबी और कुंठित ख्याली फरमान महिलाओं को थोड़े समय के लिए परेशान ज़रूर कर दे पर महिलाओं के आत्मविश्वासी व्यक्तित्व की सुंदरता को तार-तार नहीं कर सकते हैं।
अफसोस इस बात का अधिक है कि जिन शैक्षणिक संस्थाओं की भूमिका स्त्री-पुरुष समानता स्थापित करने में होनी चाहिए थी, कहीं न कहीं स्वयं को आधुनिक और शिक्षित कहने वाले लोग ही जेंडर असमानता को बढ़ावा दे रहे हैं और उनको वो सही लग रहा है। इस तरह की सोच का पुरजोर विरोध होना चाहिए।