शायद इस वक्त सीरिया हर उम्र और हर किस्म के लोगों की मौत के लिए सबसे आसान कब्रगाह बन गया है। इस काम में दुनिया के बड़े-बड़े मुल्क और बड़ी-बड़ी ताकतें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपना योगदान दे रहे हैं। आखिर दें भी क्यों ना! इस तरह के नरसंहार से ही तो पता चलता है कि किसमें कितना है दम। जिसने ज़्यादा लोगों को मौत के तोहफे दिए, वही है सिकंदर।
सिकंदर बनने की इस दौड़ में अपना एक अलग ही मज़ा है। दुनिया भर की मीडिया में आपकी ताकत के पोस्टर लहराये जाएंगे। आपकी ताकत देखकर लोग अपने ही घर, अपने ही मुल्क में खौफ से दोस्ती कर लेंगे।
ये लोग मौत की चिंता भी नहीं करेंगे, क्योंकि आप बिना मांगे इतनी दर्दनाक मौत जो उन्हें आसानी से उपलब्ध करा रहे हैं।
आज-कल तो मौत भी भाड़े पर ले ली गई है, आपके इशारा करने से पहले ही वह सैकड़ों लोगों से रिश्ते मुकर्रर कर लेती है। वह ना रात देखती है और ना ही दिन, छोटे और मासूम बच्चों को भी मौत किसी सस्ते खिलौने की तरह मिल रही है। और तो और बच्चों को इस खिलौने के लिए अपने मां बाप से ज़िद भी नहीं करनी होती, क्योंकि बन्दूक और केमिकल्स अटैक से निकलने वाला बारूद और जहर उन्हें यह खिलौने मुफ्त जो दे जाता है। सबके लिए एक जैसा खिलौना- जिससे बस सिहरा देने वाली चीखें निकलती हैं और दहला देने वाली मौत का भयानक सन्नाटा।
किसी को इस बात से फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि यह तो रोज़ का तमाशा हो चला है। यह तमाशा हर रोज़ बर्बादी का संगीत बजाता है। हमें इसकी लत लग चुकी है, वर्ना यह संगीत सुनने लायक तो नहीं है। और फिर सीरिया में ही तो यह सबसे बड़ा काॅन्सर्ट चल रहा है, ऐसे में यमन, फिलस्तीन, इराक या म्यांमार के मसलों की क्या बिसात है? जब बाकी जगह इस स्तर पर होगा, तो वहां के शो भी देख लेंगे (प्राइम टाइम की) रात की टिकट लेकर।
दुनिया में इसांनियत के सारे सिद्धान्त शायद बस इसलिए गढ़े जाते हैं, ताकि किताबों और लाइब्रेरियों में असाधारण ज्ञान की नुमाइश की जा सके। दुर्भाग्य से कुछ दिमाग से सटके हुए लोग इन सिद्धांतों की पैरवी करने लगते हैं। वे इस ऐतिहासिक और महान कार्य में कितना सफल हो पाते हैं यह बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि उस कार्य को लाइब्रेरी और किताबों से बाहर सांस लेने की इजाज़त है या नहीं।
इस वक्त मौत के इस क्रूर खेल से तो यही लगता है कि इसांनियत सिर्फ किताबों और सिद्धान्तों के बिस्तर पर गहरी आलस भरी नींद में सो रही है। हो सकता है कि कुछ वक्त के लिए यह नींद टूट भी जाए, लेकिन आलस कभी नहीं जाएगा। फिर कोई सीरिया में लाशों के ढेर, इंसानों की चीखों और हल्की सी मीडिया कवरेज को लेकर मानवाधिकार का रोना रोएगा।
कुछ सालों बाद फिर कुछ बच्चे जवान हो जाएंगे, किसी बन्दूक की गोली से मरने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए। लेकिन मजाल है कि इसांनियत और मानवाधिकार की चर्चा कम हो।
बहरहाल हमारा अपना निष्पक्ष मीडिया, हिन्दुस्तान में अभी ‘चांदनी’ की जुदाई के आखिरी लम्हों में मशरूफ है। उसे तब तक कोई फुर्सत नहीं है, जब तक कि कोई नया टीआरपी प्रोजेक्ट लांच नहीं किया जाता।
फोटो आभार: Syrian Observatory for Human Rights